क्योंकि पत्रकारिता सदाचारिता है

प्रभाष जोशी जी पुण्य तिथि 5 नवंबर को है। इस बार पुण्य स्मृति में ‘प्रभाष जी  की पत्रकारिता ‘विषय पर प्रो. सुधीश पचौरी बात करेंगे। वरिष्ठ पत्रकार बनवारी जी अध्यक्षता करेंगे। समय होगा सायं 5 बजे। प्रभाष जी ने पत्रकारिता पर  कई कागद कारे लिखे थे। उन लेखों का संकलन ‘जब तोप मुकाबिल हो..’ किताब की शक्ल में आ चुके हैं। साल 2001 के नवंबर महीने के एक लेख को हम यहां पाठकों से साझा कर रहे हैं।

कलकत्ते में भारतीय भाषा परिषद ने भोपाल में मध्य प्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति ने और रायपुर में छत्तीसगढ़ के सूचना और जनसंपर्क विभाग ने पिछले महीने ऐसे आयोजन किए जिनमें मीडिया के किसी पहलू पर नए सिरे से विचार हुए। इनमें हिन्दी,बांग्ला और अंग्रेजी के सम्पादक और वरिष्ठ पत्रकार शामिल हुए। तीनों विचार-विनिमय की पृष्ठभूमि में तहलका था। और इन गोष्ठियों में मैने पहली बार महसूस किया कि जो सम्पादक और पत्रकार अपने काम और रवैये का बचाव करते हुए उसका औचित्य ठहराते हुए कभी नही थकते थे अब आत्म-निरीक्षण के विनम्र मूड मे हैं। जो सम्पादक अपने अखबारों और मालिकों की निर्लज्ज बाजारवादिता को दुनिया के बदल जाने के तर्क पर ठीक या अपरिहार्य बताते आ रहे थे वे भी मंच से और माइक पर स्वीकार कर रहे थे कि अगर हम कुछ मर्यादाएं और सदाचार स्वीकार करेंगे तो हमारे अनुष्ठान का समाज में न कोई सम्मान बचेगा, न खुद हमें लगेगा कि हम कोई इज्जतदार और जनोपयोगी काम कर रहे हैं। प्रेस की आजादी का कोई मतलब नहीं रहेगा और हमारी भूमिका वाचडाग की नहीं रह जाएगी। हम नौकरों की तरह काम करने को रह जाएंगे।

तहलका ने खोजी ‘पत्रकारिता’ करके राजनेताओं, सैनिक अफसरों और नौकरशाहों का जो भंडाफोड़ किया है और रक्षा सौदों में भ्रष्ट्राचार के जो सबूत दिए हैं उनने मीडिया वालों में कोई गर्व और गौरव की भावना नहीं जगाई है। बल्कि इसके ठीक विपरीत वे एक तरह की शर्मिंदगी में हैं। तहलका ने सैनिक अफसरों को वेश्याएं सप्लाई करके उनके साथ गमन की जो जोरी-छुपे फिल्में खींची हैं उससे इज्जतदार सम्पादकों को लगा है कि जैसे दल्ले बना दिए गए हैं। लगभग सबने स्वीकार किया कि भले कैसी ही स्टोरी करनी हो हम ऐसा काम नहीं कर सकते। पूछा गया कि पैसे और शराब की रिश्वत पर उनकी आत्मा में घिन क्यों नहीं आई और वेश्याओं के इस्तेमाल पर ऐसी नफरत क्यों हुई तो उनने कहा पैसा और शराब फिर भी निर्जीव चीजें हैं लेकिन वेश्याओं का इस्तेमाल और उनके सैनिक अफसरों के साथ यौनाचार की फिल्म बनाना न सिर्फ अपने को पतित करना है बल्कि ब्लेकमेल के लिए तैयार करना भी है। उनको कहा कि तहलका ने तो वे सभी फिल्में तभी वेंकटस्वामी आयोग और रक्षा मंत्रालय को सौप दी थीं तो पुराने और प्रसिद्ध संवाददाता ने कहा जब समता पार्टी ने हल्ला मचाया कि वेश्याओं के इस्तेमाल पर तहलका के खिलाफ कार्यवाई होनी चाहिए तो तरूण तेजपाल ने एक टेप जारी किया जिसमें समता के भूतपूर्व कोषाध्यक्ष आरके जैन भी वेश्याएं आफर करते दिखाए गए हैं। तहलका ने यह समता पार्टी को चुप करने के लिए किया। क्या भरोसा है कि वे दूसरे टेंपों का इस्तेमाल ब्लेकमेल करने में नहीं करेंगें या नही करते।

ऐसा नहीं है कि ये सम्पादक और वरिष्ठ पत्रकार सिर्फ वेश्याओं के इस्तेमाल पर ही चिंतित थे। उन्हें लगता है कि तहलका कांड से कुल मिलाकर मीडिया की इज्जत गिरी है और ऐसे काम मीडिया में सब करने लगे तो न स्वंतंत्र मीडिया बचेगा, न लोकतंत्र ठीक से काम कर सकेगा। वेश्याओं वाला प्रकरण हटा भी लिया जाए तो मीडिया वाले कुल मिलाकर अपने अनुष्ठान पर चिंतित नजर आए और भ्रष्ट राजनेता और भ्रष्ट समाज को कोसने के बजाय अपने अंदर देखते और अपनी शंकाएं प्रकट करते दिखे। सच कहूं? मेरे लिए तो यह नया अनुभव था, पत्रकारों को इतना अंतरगामी पहले कभी मैने पाया नहीं था, इमरजेंसी और सेंसरशिप झेलते पत्रकारों के साथ भी मै अठारह महीने जिया हूं, उन्हें भी लगता था कि यह सब ज्यादा चलने वाला नही है, आज नही तो कल इमरजेंसी उठेगी, सेंसरशिप खत्म होगी और हम पहले की तरह खुलके काम कर सकेंगे, तब शायद ही किसी पत्रकार को ऐसा पश्चाताप होता था कि इंदिरा गांधी की इतनी आलोचना करके यह मुसीबत हमने ही मोल ली है, लेकिन अब पाता हूं कि तहलका ने पत्रकारों को अंदर से हिला दिया है।

तरूण तेजपाल के दोस्त लोग कह रहें है कि यह तो मारवाड़ी प्रेस है जिसकी आत्मा एकदम जाग्रत हुई है क्योंकि तहलका ने वेश्याओं का उपयोग किया। इस प्रेस की मारवाड़ी नैतिकता को सदमा पहुंचा है। अब एक्सप्रेस और हिन्दुस्तान टाइम्स की मिलकियत तो मारवाड़ी कही जा सकती है। क्योंकि गोयनका और बिरला मारवाड़ी है, लेकिन शेखर गुप्ता और वीर संघवी तो मारवाड़ी नही हैं। दिलीप पडगांवकर भी नही हैं। ‘हिन्दू’ को इस तरह आयंगर ब्राम्हण कहना पड़ेगा। लेकिन ऐसे भेद और पहचान करेंगे तो तरूण तेजपाल पंजाबी है, कमला को चंबल से खरीदकर दिल्ली करने का दावा करने वाले अरूण शौरी भी पंजाबी हैं। अगर मारवाड़ी प्रेस वेश्याओं के इस्तेमाल से शर्मा गई है तो क्या पंजाबी पत्रकार सारी मर्यादाएं तोड़कर बड़े दुस्साहसी और क्रांतिकार हो गए हैं? मारवाड़ी नैतिकता पर फब्ती कसने वाले पंजाबियों को नैतिकता के बारे मे कहा जाता है-की फर्क पैंदा ए- यानि कुछ भी कीजिए क्या फर्क पड़ता है। यानि कमला नाम की औरत को खरीद लाइए और शोर मचाकर वाहवाही लूटकर बल्ले बल्ले करके उसे भटकने को बियाबान में छोड़ दीजिए। तीन सैनिक अफसरों को वेश्याओं के साथ सुलवा दीजिए। उसकी फिल्म बनावा लीजिए। फिर चाहे जिसको ब्लेकमेल करिए-कि फर्क पैंदा ए। क्या हम इस तरह प्रेस को मारवाड़ी और पंजाबी में बांटकर अपना बचाव करेंगे। अगर भाजपा और समतावाले तहलका की नीयति में खोट देखतें हैं तो क्या हम वेश्याएं भेजने के धतकरम की निंदा करने वाली प्रेस को मारवाड़ी कहकर जवाब देंगे? अगर समता पार्टी वाले तहलका पर वेश्यावृत्ति करवाने का दोष मढ़ते हैं तो आरके जैन को दल्ला बताकर अपने को पाक साफ बताएंगे?

नहीं, तरूण तेजपाल भूल रहे हैं कि उनके पोर्टल के कारण-तहलका का इतना असर हो नहीं सकता था अगर प्रेस और टीवी उसे नहीं उठाते। तहलका डाट काम अपने बूते पर वह कर नहीं सकता था जो प्रेस और टीवी ने उसका किया। अब अगर वही प्रेस तहलका के तौर – तरीकों को गलत बताकर उसकी निंदा कर रही है तो उसे मारवाड़ी कहकर बदनाम नहीं किया जा सकता। तहलका की नीयत और उसके पीछे लगे हाथों की बात भाजपा और समता वाले कहते हैं और इससे भंडाफोड़ से ध्यान हटाना चाहते हैं तो तहलका के तौर तरीकों की निन्दा करने वाली प्रेस को मारवाड़ी कहना भी बहस को नाहक मोड़ना है। भारत में प्रेस और टीवी तहलका किस्म की खोजी पत्रकारिता करे तो पत्रकारिता बचेगी नहीं। तब अपना लोकतंत्र भी शस्त्रों का बाजार हो जाएगा और उसमें कमीशनखोर और दलाल राज चलाएंगे। यह न पत्रकारिता को मंजूर होगा, न लोकतंत्र को। मै पहले ही बता चुका हूं कि पत्रकारिता हथियार बनाने-बेचने वालों के धन्धे की तरह नहीं हो सकती, न वह जासूसी एजेंसियों की तरह चल सकती है। पत्रकारिता एक खुला और जवाबदेही वाला अनुष्ठान है-वह उस तरह खोजबीन नहीं करता जिस तरह राज्य या जासूसी या धन्धेबाजी की एजेंसियां करती हैं। सच उगलवाने और सबूत जुटाने के लिए आखिर पुलिसवाले थर्ड डिग्री तरीकों का इस्तेमाल करते हैं। वे भी दावा यही करते हैं कि लोकहित और न्याय के लिए कर रहे हैं, लेकिन क्या किसी अखबार टीवी चैनल या पोर्टेल की टीम पुलिस की तरह काम कर सकती है?

तरूण तेजपाल और उनके अरूण शौरी जैसे समर्थक कहते हैं कि पत्रकारिता के आम और स्थापित तरीके अपनाए जाएं तो किसी को भी वैसे पकड़ा नहीं जा सकता जैसा तहलका के छुपे कैमरे और हथियार बेचनेवाले बने पत्रकारों ने किया। विशेष परिस्थिति में विशेष तरीकों और असाधारण खबरों के लिए असाधारण तरीके अपनाने ही पड़ते हैं। लेकिन ऐसा करने में आप कानून तोड़ते हैं तो राज्य का यह कर्तव्य है कि वह आपके खिलाफ कार्यवाई करे। आपने लोकहित में किया है तो इस पर माफी आपको न्यायालय देगा। आप अपनी मर्जी से मुक्त हुए नहीं घूम सकते हैं। तहलका को कोई विशेषाधिकार नही है जैसा की किसी पत्रकार या प्रेस की एजेंसी को नहीं है। जो मीडिया अपने सारे अधिकार एक साधारण नागरिक के बुनियादी अधिकार से प्राप्त करता है वह किसी विशेषाधिकार की आड़ नहीं ले सकता। इसलिए भारत में मीडिया के वही मर्यादाएं – और वही सदाचार अपनाने होंगे जो कि एक आम नागरिक के हैं और समाज को मान्य हैं। सब जानते हैं कि बड़े ठेके या आर्डर लेने वाले धन, शराब और स्त्री का उपयोग करते हैं। उनके तौर तरीकों को किसी ने पत्रकारिता नहीं कहा। राज्य की गोपनीय जानकारी निकालने के लिए जासूस भी ऐसे ही तरीके अपनाते हैं। उन्हें पत्रकारिता करने का प्रमाणपत्र किसी ने नही दिया। सारी खोजबीन पत्रकारिता नहीं होती। लोकहित के सारे काम भी पत्रकारिता के नहीं होते। पत्रकारिता की खोजबीन और लोकहित साधने के उसके तरीके पत्रकारिता के ही हो सकते हैं और इनका खुला पारदर्शी और जवाबदेही वाला होना जरूरी है क्योंकि पत्रकारिता कोई गोपनीय एजेंसी नही है। वह लोगों को जानकारी देने, मत बनाने में मदद करने, सार्वजनिक मामलों पर जनता की तरफ से निगरानी करने, शासकों को लोगों के प्रति उत्तरदायी बनाने, राज्य के तीनो स्तंभों पर नजर रखने और पार्टी विहीन तटस्थ विपक्ष की भूमिका निभाने के लिए है। ऐसी स्वतंत्र, स्वधीन और जिम्मेदार प्रेस के बिना लोकतंत्र सच्चा लोकतंत्र नहीं हो सकता और सच्चे लोकतंत्र में ही स्वतंत्र, स्वाधीन और जिम्मेदार प्रेस हो सकती है। इसलिए प्रेस लोकतंत्र की पूरक भी है।

इतनी जिम्मेदारियों और इतने गुणों वाली पत्रकारिता जाहिर है कि तहलका की तरह फर्जी कंपनी बनाने, फर्जी समान बेचने और आर्डर प्राप्त करने के लिए धन, शराब और स्त्री का रिश्वत की तरह इस्तेमाल करके नही की जा सकती। आजकल फैशन है कि साध्य और साधन की बहस को पुरानी और बेकार बताया जाए। अच्छे लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कैसे भी साधन अपनाएं जाएं सब कबूल। ऐसा करते हुए महात्मा गांधी को बीते जमाने का संत बताकर निपटा दिया जाता है क्योंकि साधनों की शुद्धि पर उनने सबसे ज्यादा जोर दिया और कहा कि अनुचित साधनों से उचित लक्ष्य पाया नहीं जा सकता। उनने तो यहां तक कहा कि साधन ही लक्ष्य की शुद्धता निश्चित करते हैं। साध्य साधन की एकता कोई महात्मा गांधी का शगल या ऐब नही था। उनने यह गीता और हमारे देश के दूसरे महान ग्रंथों से लिया और उसे व्यवहार से सिद्ध किया। वे न तो असाधारण प्रतिभा और क्षमतावाले आदमी थे, न वे कोई अद्भुत काम करने निकले थे। वे वही करना चाहते और करने को कहते थे जिसे आम आदमी कर सके। वे अहिंसा और सत्य पर जोर देते थे क्योंकि इनका पालन कोई भी कर सकता है। अगर वे ऐसे तरीके नहीं अपनाते जो आम आदमी न अपना सके तो आजादी के आंदोलन में इतने भारतीयों को सिपाही नहीं बना सकते थे जितनों को उनने बनाया। दुनिया के किसी भी देश की आजादी की लड़ाई में उतने लोग नहीं आए जितने भारत के स्वाधीनता संग्राम मे। उसमें कोई भी भाग ले सकता था इसलिए शांति और अहिंसा से वह लड़ाई जीती गई। यह साधनों और साध्य की एकता का नतीजा था। इसलिए साध्य और साधन की बहस को पुराने जमाने का शगल बताकर निपटाया नहीं जा सकता।

पत्रकारिता अगर सच्चाई का अनुष्ठान है तो उसे झूठ और धोखाधड़ी से साधा नहीं जा सकता। अगर वेश्याओं के इस्तेमाल से आप बताना चाहते हैं कि हमारे सैनिक अफसर, नैतिक रूप से कितने कमजोर और कामुक हैं तो उनके भ्रष्ट्राचार पका भंडाफोड़ तो आप कर देंगे लेकिन उसकी जगह सदाचार को स्थापित नहीं कर सकते क्योंकि भंडाफोड़ आपने स्वयं भ्रष्ट्राचार करके किया है। भंडाफोड़ करना ही पत्रकारिता का अगर एकमात्र उद्देश्य है तो उससे भी सदाचार तभी कायम होगा जब भंडाफोड़ सदाचार से किया गया हो। लेकिन भंडाफोड़ तो पत्रकारिता का एक काम है और तहलका ने सदाचार से काम नहीं किया है। और जो सदाचार नहीं है उसे पत्रकारिता अपना नहीं सकती क्योंकि पत्रकारिता सदाचार के बिना हो नहीं सकती। देश के ज्यादातर और जिम्मेदार पत्रकार अगर तहलका के तौर तरीकों से सहमत नहीं हैं और वेश्याओं के इस्तेमाल ने अगर उन्हें आत्मनिरीक्षण के लिए प्रेरित किया है तो यह देश के लिए शुभ और आश्वस्ति का संकेत है।

9-9-2001

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