खाप को नाहक बदनाम न करो

बनवारी

पंचायती शासन किस तरह के भाईचारे पर टिका रहा है इसका उदाहरण महम चैबीसी से पाया जा सकता है। सामान्यतया जाटों के गोत्र पांच गांव से लगाकर साठ.सत्तर गांवों तक में फैले हुए हैं। लेकिन महम क्षेत्र के चैबीस गांवों में बहुत छोटे.छोटे वंश हैंए जिनके भीतर पंद्रह.बीस परिवार ही हैं। इसलिए यहां पंचायत की रीढ़ जाटों का कोई एक वंश नहीं हो सकता था। इस समस्या का हल यह निकाला गया कि महम के चैबीस गांवों ने अपने आपको एक पंचायत के रूप में परिवर्तित करने का निर्णय लिया। एक पंचायत का होने के नाते उनमें भाईचारे का संबंध हो गया और चैबीस गांवों के बीच अंतर खाप विवाह संबंध वर्जित कर दिए गए। वंशानुगत भाईचारे के बिना भी सुदीर्घकाल तक भाईचारा बनाए रख पाना साधारण उपलब्धि नहीं है। चैबीस गांव की पंचायत होने के बावजूद महम चैबीसी की बहुत ख्याति रही है और महम में पंचायत का चबूतरा व उसके साथ बनाया गया जलाशय देखने लायक है।

वास्तव में भाईचारा एक सभ्यतागत गुण है जो भारतीय समाज का सदा से आधार रहा है। नृशास्त्री कहेंगे कि जाति के रूप में जाट किसी मूल व्यक्ति के परिवार का विस्तार ही हैं और जाटों के सभी गोत्र बढ़ते गए मूल परिवार की शाखाएंए प्रशाखाएं ही हैंए इसलिए उनके बीच बंधुत्व की भावना जनजातियों के बीच पाई जाने वाली बंधुत्व की भावना से भिन्न नहीं है। पर खाप पंचायतों का भाईचारा ऐसा नहीं हैए यह बात तो इसी से सिद्ध है कि यह भाईचारा केवल जाटों तक सीमित नहीं है। खाप के भीतर भी सभी जातियों के बीच भाईचारे का ही सबंध है। लेकिन एक जाति के रूप में जाट किसी एक मूल परिवार का विस्तार हैंए यह धारणा भी सही नहीं है। जाटों के उद्भव के बारे में उनके बीच प्रचलित जो सबसे प्रसिद्ध मान्यता हैए वह यह है कि वे भगवान शिव की जटाओं से उत्पन्न हुए हैं। जाट सामान्यतय शैव हैं और शिव की जटाओं का यह रूपक उनके बारे में बहुत सार्थक है। जैसा कि पाणिनी के धातुपाठ से स्पष्ट हैए जाट संज्ञा समूह के अर्थ में प्रयुक्त होती थी। इस तरह जाट विभिन्न वंशों का एक ऐसा समूह हैं जो समान कर्म और उद्देश्य के कारण एक जाति के रूप में परिवर्तित हो गए। केवल जाट ही नहीं भारत की सभी जातियों का उदय इसी तरह हुआ दिखाई देता है। जाति भी कोई स्थिर इकाई नहीं है जैसा कि उसे चित्रित किया जाता रहा है। वह एक प्रवहमान इकाई हैए उसमें नए वंश सम्मिलित होते रहते हैं और कालक्रम में कुछ पुराने वंश बाहर निकलकर दूसरी जातियों में विलीन हो जाते हैं।

जाटों के सभी गोत्र समान माने जाते हैंए फिर भी सर्वखाप पंचायत की चैधर मुजफ्फरनगर की बालियान खाप के पास रही है। बालियान खाप का चौधरी सिसौली गांव का रहा है और मंत्री सोरम गांव का। सोरम गांव में ही सर्वखाप पंचायत के अभिलेख रखे जाते रहे हैं। इन अभिलेखों के अनुसार बालियान खाप के पूर्वज बलवंश के नाम से जाने जाते थे। यह नाम प्रसिद्ध राजा बलि के नाम पर पड़ाए जो भक्त प्रह्लाद के पौत्र विरोचन के पुत्र थे और अपनी दानप्रियता के कारण प्रसिद्ध हुए। उनकी दानप्रियता को आदर्श मानकर बलवंशियों ने उनके नाम पर ही अपने वंश का नाम रख लिया। मान्यता है कि बलवंशी अयोध्या से श्रावस्ती जाकर बसे। फिर वहां से विक्रम संवत् 210 में पहले पंजाब के लोहकोट ;जिसे लवपुरी भी कहते थे और आज जिसे लाहौर कहते हैं आए। वहां से विक्रम संवत् 301 में बलवंशी राजकुमार कनकसेन ने सौराष्ट्र में माली नदी के किनारे बलि राजा के नाम पर बला नगरी बसाईए जिसका कालांतर में नाम बल्लभीपुर हो गया।

बल्लभीपुर में बल्लभी नरेशों ने विक्रम संवत् 545 से 824 तक स्वतंत्र शासन किया। विक्रम संवत् 824 में अरबों के आक्रमण के कारण बल्लभी राज्य समाप्त हो गया। उसके बाद उनकी एक शाखा स्यालकोट चली गई और दूसरी ने हिसार क्षेत्र में धावनी नगर और बालौर दो जनपद बसाए। बालौर के बाद उन्होंने बालियानों का महलाना ग्राम बसाया जो सोनीपत के पास है। बालियान वंश के लोगों ने धावनी नगर से निकलकर उतरप्रदेश के शामली कस्बे के पास पहले माजू भनेड़ा गांव बसाया और फिर 12वीं शताब्दी में सिसौली बसायाए जिसका मूल नाम शिवपूरी था। वहां होली पर एक मेला लगता थाए इसलिए पहले उसका नाम शिवहोली हुआ और फिर बिगड़कर सिसौली हो गया। संवत् 1301 में शिवपुरी के एक बहादुर जाट नेता राव देवराणा ने 4500 योद्धाओं के साथ आस.पास के क्षेत्रों को जीतकर शांति स्थापित की थी और उनके भाइयों व दो पुत्रों ने कृष्णा ;कालीद्ध और हरनदी ;हिंडनद्ध के बीच के दोआबे के प्रसिद्ध ग्राम सोरम पर अधिकार कर उसे सर्वखाप पंचायत का मुख्यालय बना दिया था।

लगभग इसी तरह का इतिहास जाटों के दूसरे प्रमुख गोत्रों का है। उदाहरण के लिए सांगवान खाप का आरंभ जिस पराक्रमी व्यक्ति से हुआए उसका नाम सिंहराम या सांगु था। उसके 13.14 पूर्वजों ने मारवाड़ के सारसु जांगला क्षेत्र पर राज किया था। इस वंश की पंद्रहवीं पीढ़ी के लहरी सिंह मारवाड़ छोड़कर अजमेर आ गए। वहां उन्होंने लिहड़ी गांव बसाया। उनके बाद दसवीं पीढ़ी में राणा नैनसुख और 11वीं पीढ़ी में सांगु पैदा हुए। 22 वर्ष की आयु में वे अजमेर छोड़कर अपने पिता के साथ हरियाणा की दादरी के निकट असावरी की पहाड़ी पर आए और बाघनवाल नाम का गांव बसाया। जाटों की बहियों के अनुसार यह विक्रमी संवत् 1323 की घटना है। जब तक यह वंश मारवाड़ और अजमेर मे थाए उसका उल्लेख राजपूतों की तरह हुआ है। नैनसुख के दो पत्नियां और चार पुत्र थे। शेखु के नाम पर शेखावतए जाखु के नाम पर जाखड़ और सांगु के नाम पर सांगवान वंश चला।

सांगु ने हरियाणा में कोई राज्य स्थापित नहीं किया। इस क्षेत्र में लूटपाट और अशांति थी। अपने साथ आए लड़ाकों के साथ सांगु ने इस क्षेत्र में शांति स्थापित की। उसके बाद पास के अत्याचारी मुस्लिम सुबेदारों की इस क्षेत्र से होकर जाने वाली फौजों और साधन.सामग्री पर छापे डालने शुरू किए। कई पत्नियों से सांगु के तेरह पुत्र और 52 पौत्र हुए। सांगु के साथ जो परिवार यहां आए होंगे वे भी कालांतर में सांगु वंश के गिने गए। इन सबका विस्तार चालीस गांव तक हो गया। इस तरह सांगवान खाप चालीस के नाम से प्रसिद्ध हुई। अब इस खाप के 61 गांव हैंए फिर भी इसकी प्रसिद्धि सांगवान चालीस के रूप में ही है। सांगु के पूर्वज राजपूत कहलाते थेए पर हरियाणा में उनकी जाति जाट हो गई। सांगु के साथ जो परिवार आए होंगे वे भी एकाधिक जाति से होंगे। फिर भी उनकी परिगणना जाटों में ही हुई।

सर्वखाप पंचायत के सोरम स्थित अभिलेखों के अनुसार पंचायती शासन के वृतांत बल्लभीपुर से आरंभ होते हैं। उनसे पता लगता है कि वहां सेन राजा पंचायतों के अनुमोदन से ही राज्य कर रहे थे। इतिहासकारों ने पुराने वैशाली आदि के गणराज्यों के आधार पर यह दिखाने का प्रयत्न किया है कि पुराने समय में कुछ जगह गणतंत्र थे और कुछ जगह राजतंत्र। वास्तव में भारतीय समाज में राजाओं की भूमिका सीमित ही रही है। उनका मुख्य कार्य तो बाहरी आक्रमण से देश की रक्षा करना ही था। इसके अतिरिक्त उनकी भूमिका दण्ड विधान के रक्षक और शास्त्र के सहायक तथा कला कौशल के आश्रयदाता की थी। वास्तविक शासन तो सभी जगह पंचायतों के ही अधीन था। सर्वखाप पंचायत के अभिलेखों के अनुसार हूणों को पराजित करने वाले अपने भाई राज्यवर्धन की बंगाल के राजा शशांक द्वारा धोखे से हत्या कर दिए जाने के बाद जब सोलह वर्ष के किशोर हर्षवर्धन को वैराग्य हुआ तो स्वामी शांतानंद की अध्यक्षता में थानेश्वर में पंचायत हुईए जिसमें एक लाख इकसठ हजार लोग थे। उन्होंने राज्य की स्थिति पर विचार करने के बाद हर्षवर्धन से राज गद्दी संभालने का अनुरोध किया। इसके बाद पंचायतों के 561 प्रधानों ने उन्हें विधिवत राजा के रूप में चुना और उनका राज्याभिषेक किया गया। यह तो प्रसिद्ध ही है कि जब उत्तरापथ की विजय के बाद हर्षवर्धन कन्नौज की गद्दी पर बैठे थे तो एक लाख ग्राम प्रमुखों ने उनका अनुमोदन किया था। पंचायती अभिलेखों के अनुसार सम्राट हर्ष ने पंचायतों का एक विशाल सम्मेलन आयोजित किया था और अपने दामाद बल्लभी नरेश ध्रुवभट्ट सेन को उनका संरक्षक घोषित किया था।

महाराजा हर्ष द्वारा आहूत इस विशाल पंचायती सम्मेलन के बाद से हर पांच साल बाद पंचायतों का सम्मेलन आयोजित होता रहा। इन पंचायतों का औपचारिक ढांचा न्यून ही रहा है। सर्वखाप पंचायत का अध्यक्ष तो हर सम्मेलन या बैठक के समय ही सर्वानुमति से चुना जाता है। लेकिन उसका मंत्रीपद स्थायी रूप से किसी परिवार के पास रहता है ताकि पंचायत के अभिलेख सुरक्षित रह सकें। विक्रम संवत 1365 में हरिद्वार में चैत्र वदी दौज को 185 खापों का एक सम्मेलन हुआ थाए जिसमें लगभग 45ए000 हजार प्रतिनिधि उपस्थित थे। इस सम्मेलन में बालियान खाप को प्रधान खाप और उसके सोरम गांव को मंत्री पद दिए जाने की घोषणा हुई थी। उस समय सोरम गांव के सबसे प्रतिष्ठित व्यक्ति राव रामराणा थे। उन्हीं को प्रथम मंत्री बनाया गया। इस समय उनकी चैबीसवीं पीढ़ी इस दायित्व को संभाले हुए है। पिछले मंत्री चौधरी कबूल सिंह ने सर्वखाप पंचायत के इतिहास को उजागर करने की दिशा में उल्लेखनीय कार्य किया था। उनके पास पंचायती अभिलेखों की दस.बारह धड़ी सामग्री थी। उसके आधार पर बनारसए दिल्ली और आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से तीन शोध प्रबंध अवश्य लिखवाए गएए लेकिन हमारे संरकारी तंत्र और मुख्य इतिहासकारों ने पंचायती अभिलेखों में कोई रुचि नहीं दिखाई।

यह पंचायत व्यवस्था दो समानांतर दिशाओं में कार्यरत रही है। जहां जाटों के किसी एक गोत्र के पर्याप्त गांव हैंए वहां एक तरफ उस गोत्र की बहुस्तरीय वंश पंचायत होगी। उदाहरण के लिए बालियान वंश के चौरासी गांव हैं। मुगलों के शासन में राजस्व प्राप्ति के लिए ऐसे ग्राम समूहों को खाप की संज्ञा दी गई। बालियान खाप के क्षेत्र में रहने वाले जाट इतर जातियों की अपनी स्वजातीय खाप पंचायतें हैं। व्यावहारिक कारणों से वंश को थोक और उपथोक में बांट दिया जाता है। वंश की शाखा का यह नामकरण भी सब जगह नहीं मिलता। कहीं थोक की जगह पाना हैए कहीं उसका कुछ और भी नाम हो सकता है। हर वंश या जाति के आंतरिक मामले इन पंचायतों में ले जाये जाते हैं। इनके समानांतर भौगोलिक स्तर पर गठित पंचायते हैं। सबसे निचली ग्राम स्तरीय पंचायत है। गांव से बड़ी इकाई गवांड हैए जो चार पांच गांवों का समूह होती है। उसके ऊपर थम्भ पंचायत हैए जो चार पांच गवांड से मिलकर बनती है। उसके ऊपर खाप पंचायत है। फिर सर्व खाप पंचायत होती है।

गांव और गवांड स्तर की पंचायतें अनौपचारिक होती हैं। इन स्तरों पर कोई स्थाई चौधरी या मुखिया नहीं होते। पंचायत की बैठक में ही उस बैठक के अध्यक्ष का निर्वाचन कर लिया जाता है। लेकिन थम्भए खाप और सर्वखाप स्तर की पंचायतें औपचारिक होती हैं और उनका खाप या सर्वखाप की पोथी में ब्यौरा लिखा जाता है। लेकिन कुछ खापें ऐसी भी हैं जिनके क्षेत्र में कई गोत्र आते हैं अथवा सामान्य हित के किसी विषय के कारण उन्हें मिश्रित खाप क्षेत्र में संगठित किया गया होता है। उदाहरण के लिए पालम 360 पंचायत के क्षेत्र में 360 गांव हैं और वह सर्वखाप पंचायत क्षेत्र की सबसे बड़ी पंचायत है। उसका क्षेत्र दिल्ली के मुस्लिम शासकों से सटा होने के कारण यहां के लोगों को एक होकर युद्ध संबंधी बहुत से फैसले लेने पड़े। बाद में जब अंग्रेजों के शासन में यहां के किसानों की भूमि अधिग्रहित की गईए तब भी यहां के गांवों की पंचायत के रूप में एकता आवश्यक दिखाई दी।

खापों के पंचायती ढांचे में एकरूपता होने को आवश्यक नहीं समझा गया। जाटों के हर गोत्र का अपना एक चौधरी होता है। कहीं वह वंशानुगत है तो कहीं पंचायत द्वारा नियुक्त। जिन गोत्रों में वंशानुगत प्रधान हैए उन्हें भी योग्यता में खरे न उतरने पर बदला जा सकता है। सामान्यतः जाटों की वंश पंचायत का चौधरी ही खाप पंचायत की अध्यक्षता करता है। पर विषय और परिस्थिति को देखते हुए किसी अन्य महत्वपूर्ण व्यक्ति से भी अध्यक्षता करने को कहा जा सकता है। सर्वखाप और उसके नीचे की खापए थम्भए गवांड और गांव की पंचायत में सभी जातियों के प्रतिनिधि सम्मिलित होते हैं और उनकी एक बराबर हैसियत होती है। सभी जातियों के पंचों का पगड़ी पहनाकर सम्मान किया जाता है। पंचायत की आम सभाओं में स्त्रियां भी बड़ी संख्या में भाग लेती रही हैं।

इन पंचायतों का सर्वप्रथम उद्देश्य पूरे समाज की एकता बनाये रखना और उनमें भाईचारा कायम रखना रहा है। पंचायती शासन का आधार नैतिक अनुशासन हैए इसलिए पंचायती निर्णयों की सर्व मान्यता रही है। सर्वखाप पंचायत के क्षेत्र में पंचायत की भूमिका काफी विस्तृत रही है। इसे न्याय करने के लिएए सबके हित का कोई निर्णय लेने के लिएए किसी सामाजिकए राजनैतिक या धार्मिक कर्तव्य के निर्वाह के लिएए गुरुकुलए तालाबए धर्मशाला या मंदिर आदि बनवाने के लिए अथवा बाहरी आक्रमण के समय युद्ध की तैयारी के लिए बुलाया जा सकता है। पंचायत के क्षेत्र में सर्वजनिक उपयोग की सब चीजें पंचायती मानी जाती रही हैं। किसी उद्देश्य के लिए इकट्ठे किए गए कोष या दूसरी सामग्री का स्वार्थ के लिए उपयोग घोर पाप समझा जाता रहा है। पंचायत के मुखिया या दूसरे अधिकारियों का सम्मान तो होता हैए पर उनके कोई विशेषाधिकार नहीं होते। पंचों का कोई स्थाई समूह भी नहीं हेाता और हर अवसर पर सर्वानुमति से पंचों का निर्धारण किया जाता है। इसलिए पंचायत सत्ताकामी लोगों की उस होड़ से बची रहती है जो शासन के किसी स्थाई तंत्र में अनिवार्य दिखाई पड़ती है।

पंचायत के कार्य को अनिवार्य कर्तव्य मानकर किया जाता रहा है। इसलिए पंचायतें सार्वजनिक हित के कार्य करने में सबसे आगे रही है। भिवानी क्षेत्र के एक बड़े गांव झोझूकलां में इस पूरे क्षेत्र का सबसे पहला विद्यालय 1891 में स्थानीय पंचायत द्वारा शुरू किया गया था। हरियाणा के दो मुख्यमंत्री बंसीलाल और बनारसी दास इसी स्कूल में पढ़े थे। इस पूरे क्षेत्र में बावडियोंए सुंदर तालाबों की श्रृंखला है जो पंचायतों द्वारा बनवाये गये। इन पंचायतों की सबसे अधिक ख्याति यहां के अखाड़ों में प्रशिक्षित होते रहे मल्लों के कारण रही है। पंचायतों ने 10 हजार से लेकर एक लाख तक योद्धा विभिन्न लड़ाइयों में विदेशी आक्रमणकारियों का मुकाबला करने के लिए भेजे हैंए जो वेतनभोगी नहीं थे। पंचायतें सैनिक प्रशिक्षण के लिए हरिद्वारए शुक्रतालए गढमुक्तेश्वरए मथुराए बदायूंए मेरठए दिल्लीए रोहतकए कुरुक्षेत्र आदि में अखाड़े चलाती रही है। पंचायत क्षेत्र के हर गांव में अच्छी नस्ल के 5.6 घोड़े सदा पाले जाते थेए जो युद्ध के समय काम आते थे। राजाओं की तरह खाप पंचायत की कोई स्थायी वेतनभोगी सेना नहीं थी। पर इस तरह की सुदृढ व्यवस्था थी कि युद्ध के लिए तत्काल एक बड़ी सेना उपलब्ध हो जाए। गांव.गांव चलने वाले अखाड़े इस तैयारी के मूल आधार थे। इन अखाड़ों के अपने पंचायती हाथीए घोड़ेए ऊंटए और खच्चर होते थेए जिनका सारा व्यय पंचायत उठाती थी। अखाड़ों के पास इतने साधन रहते थे कि वहां जोर करने वाले मल्लों को दूध.घी और बादाम आदि की पर्याप्त व्यवस्था रहे। मल्लों के लिए सदाचार के कड़े नियम थे। उनसे ब्रह्मचर्य का पालन करनेए शाकाहारी भोजन करने और मुसीबत में पड़े या कमजोर व्यक्ति की सहायता करने की सदा आशा की जाती थी।

युद्ध के समय राजाओं द्वारा पंचायत से सहायता मांगने के वृतांत न केवल सर्वखाप पंचायत के अभिलेखों में भरे पड़े हैं। बल्कि कुछ का उल्लेख आधुनिक इतिहासकारों की लिखी पुस्तकों में भी मिल जाता है। विक्रम संवत् 594 में हूणों को भारत से खदेड़ने के अभियान में सम्राट यशोधर्मा के निवेदन पर पंचायतों से कोई 75 हजार मल्ल भेजे गए थे। सोमनाथ के विश्व प्रसिद्ध मंदिर को तोड़ने वाले महमूद गजनबी को अंत में पंजाब क्षेत्र की सर्वखाप पंचायत के मल्लों द्वारा खदेड़ा गया था। विक्रम संवत् 1455 में तैमूर ने भारत पर आक्रमण किया था। दिल्ली में तुगलक वंश के सुलतान महमूद का कमजोर शासन था। तैमूर ने दिल्ली में नागरिकों का बर्बरतापूर्वक नरसंहार किया। पर उसके बाद जब वह हरिद्वार की तरफ बढ़ा तो गुर्जर कुल में जन्मे योगराज ब्रह्मचारी के नेतृत्व में 80 हजार मल्लों ने जगह.जगह तैमूर को आकस्मिक आक्रमण के द्वारा भारत से वापस भागने के लिए विवश कर दिया। अहमदशाह अब्दाली से पानीपत में हुए युद्ध से पहले मराठों ने खाप पंचायतों से अपनी सेना भेजने को कहा था और अंग्रेजों से लड़ने के लिए 1857 में बहादुरशाह जफर ने खाप पंचायतों से विनती की थीए यह बात तो इतिहास प्रसिद्ध है। मथुरा में कृष्ण जन्म भूमि पर आक्रमण से आहत होकर ही सर्वखाप पंचायत ने गोकुल जाट को एक बड़ी सेना का सेनापति बनाया था। इस निर्णय में गुरु रामदास का उद्बोधन भी सहायक हुआ था। अपने निरंतर युद्ध के द्वारा खाप पंचायतों ने कई मुगल शासकों को गोवध न करनेए मंदिर न तोड़नेए जजिया हटानेए जबरन किसी हिंदु स्त्री से विवाह न करने और पंचायती शासन में हस्तक्षेप न करने जैसी शर्ते मानने को विवश किया था।

पंचायतों में समाज के प्रति जिस तरह की दायित्व की भावना रहती थी इसका एक उदाहरण विक्रम संवत् 1798 की फाल्गुन द्वितीया को हरिद्वार में बुलाई गई पंचायत है। इस पंचायत में पश्चिमी उतरप्रदेश की सभी 18 खापों ने भाग लिया था। इस पंचायत की अध्यक्षता संत रामशरण ने की थी और उसमें बड़ी संख्या में लोग उपस्थित हुए थे। पंचायत नादिरशाह से युद्ध में मारे गए मल्लों के परिवारों की सहायता के लिए बुलाई गई थी। पंचायत में निर्णय किया गया कि नादिरशाह से युद्ध में जो आठ हजार मल्ल मारे गए हैंए उनके परिवारों का समूचा दायित्व खाप पंचायतों का है। मृत योद्धाओं की बेटियों के विवाह का दायित्व खाप पंचायतें उठाएंगी। उनके बच्चे जब तक बालिग होकर अपने पैरों पर नहीं खड़े हो जातेए तब तक उनकी शिक्षा और भरण पोषण का दायित्व भी पंचायतें संभालेंगी। उनके परिवारों को इस संकट की घड़ी में जिस भी तरह की सहायता की आवश्यकता होगीए वह खाप पंचायतें देंगी। सामाजिक दायित्व की भावना का एक दूसरा उदाहरण स्वतंत्र भारत में 1950 में हुआ सर्वखाप पंचायत का पहला सम्मेलन है। यह सम्मेलन सोरम में हुआ था और उसमें साठ हजार लोगों ने भाग लिया था। तीन दिन तक चली पंचायत की इस बैठक में गूजरों की कलशलायन खाप के चौधरी को अध्यक्ष चुना गया। पंचायत में चौदह प्रस्ताव पारित करके शादी विवाह के समय दहेजए तड़क भड़क और बड़ी बारातों पर पाबंदी लगा दी गई। इन प्रतिबंधों का लंबे समय तक असर रहा।

यद्यपि पंचायतों को निरंतर युद्ध लड़ने पड़ेए फिर भी यह उनका आपधर्म ही था । उनका सामान्य दायित्व तो समाज की एकता बनाए रखनाए लोगों में भाईचारा दृढ़ करनाए न्याय करना और लोकहित के वे सभी काम करना था जो समाज के कल्याण और उसकी अभिवृद्धि के लिए आवश्यक हों। अपनी इस भूमिका में खाप पंचायतें वे सभी दायित्व लिए हुए थीं जो भ्रमवश आधुनिक राज्य की विशेषता माने गए हैं। इतना ही नहीं अपने इन सभी दायित्वों का निर्वाह पंचायतें बिना किसी नौकरशाही केए स्वराज्य के सिद्धान्त के आधार पर करती थीं। पंचायतों को इस बात का संतोष था कि उनके पास मार्गदर्शन के लिए योग्य ब्राह्मण हैंए रिकार्ड रखने के लिए कायस्थए सामाजिक और पंचायती अभिलेखों के लिए भाट और मुनादी के लिए वाल्मीकि। उनके सभी कार्यों में स्त्रियां बढ़.चढ़कर भाग लेती थीं। युद्ध के समय भी स्त्रियों का बड़ा समूह सहायक कर्तव्य निभाने के लिए उपस्थित रहता था। कुछ वीरांगनाओें ने तो शस्त्र सज्जित होकर बाकायदा युद्ध में भाग लिया। जिस तरह के जातीय भेदभाव की लांछना भारतीय समाज पर डाली जाती हैए वह खाप पंचायतों के व्यवहार में कहीं दिखाई नहीं देता। अनेक युद्धों में उपसेनापति या मुख्य सलाहकारों के पद पर वाल्मीकि जाति के योद्धा चुने गए। युद्ध की शिक्षा देने वाले अखाड़ों में वाल्मीकि युवक बाकी सब मल्लों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर जोर करते थे। अखाड़ों की पाकशाल से ही उन्हें अन्य मल्लों के समान भोजन परोसा जाता था। पंचायत की बैठकों में सभी जाति के लोग एक साथ ही बैठते थे। इतना ही है कि पंचायत की बैठकों में पुरुषों और स्त्रियों के बैठने की व्यवस्था अलग.अलग होती थी।

सर्वहित के निर्णय करने वाली पंचायतों में सामान्यतः सभी लोग आमंत्रित होते हैं। लेकिन नीतिगत पंचायत की विशेष बैठकों में खापों के चौधरी और दूसरे प्रतिष्ठित व्यक्ति ही उपस्थित रहते हैं। ऐसी बैठकों में पहले आमतौर पर नौजवानों को नहीं बुलाया जाता था। यह मान्यता थी कि ऐसे निर्णयों में जिस परिपक्व बुद्धि की आवश्यकता होती हैए वह आयु के साथ ही आती है। न्याय करने वाली पंचायतों का तो और भी विस्तृत विधि विधान रहा है। सामान्यतः ऐसी पंचायतें तभी बुलाई जाती हैं जब कोई पक्ष शिकायत लेकर आए। पंचायतों में दोनों पक्षों की सहमति से ही पंचों का चुनाव किया जाता है। पंचायत आज की अदालतों की तरह केवल अपराधी का निर्णय करके उसे दण्ड देने के लिए नहीं बैठती। आज की अदालतें तो यह काम भी अप्रत्यक्ष साक्ष्य के आधार पर करती हैं। पंचायतों का प्राथमिक उद्देश्य न्यायबुद्धि को जागृत करना और अपराधी में पश्चाताप की भावना पैदा कर उसे सदाचरण की दिशा में ले जाना होता है।

पंचायतों के इस महत्तर उद्देश्य के कारण उसके निर्णयों की सर्वमान्यता रही है। यह माना जाता है कि पंचायत में देवता का वास है और उसके निर्णय की अवहेलना करना अनिष्ट को न्यौता देना है। पंचायत जब न्याय करने के लिए बैठती है तो मंत्रोच्चार किया जाता है और पंचों पर गंगाजल छिड़का जाता हैए ताकि वे शुद्धचित्त होकर न्याय करें। अगर कोई पक्ष एक पंचायत के निर्णय से संतुष्ट न हो तो वह उससे ऊपर की पंचायत के पास जा सकता है और अंतिम निर्णय सर्वखाप पंचायत के अधीन होता है। कभी कोई पक्ष फिर भी पंचायत का निर्णय मानने के लिए तैयार न हो तो पहले समाज के प्रतिष्ठित लोग उसे समझाते हैंए कभी.कभी पंच उसके घर यह कहते हुए बैठ जाते हैं कि जब तक वह पंचायत का निर्णय नहीं मानता तब तक वे अन्न जल ग्रहण नहीं करेंगे। ऐसा भी हुआ है कि किसी हठी व्यक्ति के निर्णय न मानने पर निराश होकर पंचों ने उसे श्राप दे दिया है। ऑक्सफोर्ड विश्वविद्य़ालय के लिए लिखे गए अपने शोध प्रबंध ष्ष्द पॉलिटिक्ल सिस्टम ऑफ जाट्स ऑफ नोर्थ इंडियाष्ष् में एम सी प्रधान ने अपने अध्ययन वर्ष 1961 के समय ऐसी तीन घटनाओं का उल्लेख किया हैए जिनमें पंचायत ने निर्णय की अवहेलना के लिए किसी व्यक्ति को श्राप दिया और वह फलित हुआ। पहले तो पंचायतों के पास अपने अधिकारी होते थेए जो पंचायत का निर्णय न मानने वालों को दण्डित कर सकते थे। आज भी पंचायतें जिस तरह समाज सुधारए जनकल्याण और शिक्षा आदि के क्षेत्र में अग्रणी भूमिका निभा रही हैंए वह उन्हें राज्य के आधुनिक तंत्र से श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए काफी है।

गांधी जी ने हिंद स्वराज्य में पार्लियामेंट को वेश्या कहते हुए लोकतंत्र के आधुनिक ढांचे में अपना अविश्वास व्यक्त किया था। उनसे स्वतंत्रता प्राप्ति के समय पार्लियामेंट के विकल्प के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि सर्वजातीय पंचायत इसका अच्छा विकल्प हो सकती है। ऐसा लगता है कि कांग्रेस के पूरे नेतृत्व में गांधीजी को छोड़कर किसी और को जातीय पंचायतों की समझ नहीं थी। उनमें से कोई यह नहीं जानता था कि भारत सदा से पंचायतों द्वारा ही शासित रहा है। सर्वखाप पंचायत के अभिलेखों में लिखा है कि पंचायती शासन ब्रह्मा जी के पुत्र मनु महाराज का बनाया हुआ विधान है और श्री रामचंद्रजी से लगाकर महाराजा युधिष्ठिर तक सब प्रतापी और न्यायशील राजा पंचायत के अनुसार ही शासन करते थे। भारत में धर्म के ही राज्य की प्रतिष्ठा रही है। राजाए आचार्य और पंचायतें इसी धर्म शासन का अंग हैं और समयानुसार एक दूसरे के सहायक होकर धर्म संस्थापन का कार्य करते आए हैं।

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