भारत के बौद्धिक-राजनीतिक जगत में जिस तरह विमर्श का स्तर गिरा है, उसने गंभीर चिंतन एवं वैचारिकी की शून्यता पैदा कर दी है. अनर्गल प्रलाप एवं बुनियादहीन आरोप-प्रत्यारोप का कुंठित बौद्धिक आतंक चरम पर है. ऐसे में प्रो. शंकर शरण की नवप्रकाशित किताब ‘संघ परिवार की राजनीति: एक हिंदू आलोचना’ सुधी पाठकों हेतु एक बेहतरीन विकल्प है.
लेखक बौद्धिक जगत के लिए अपरिचित नहीं है. राजनीति शास्त्र के विद्वान प्रो.शंकर शरण पूर्व में महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय बड़ौदा में कार्यरत रहे हैं. इसके अतिरिक्त वे एनसीईआरटी नई दिल्ली से जुड़े रहे हैं. इनका सोवियत इतिहास, भारत में कम्युनिस्ट राजनीति राजनीतिक इस्लाम सेकुलरिज्म जैसे विषयों पर गहरा अध्ययन रहा है. अब तक प्रो. शरण द्वारा लिखित तकरीबन बीसों पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं. वे 1989 से ही विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में नियमित लेखन करते रहते हैं. अपने लेखन के लिए प्रो. शरण नचिकेता पुरस्कार(2003), नरेश मेहता सम्मान(2005), भानु प्रताप शुक्ल सम्मान (2008), तथा राष्ट्रीय पत्रकारिता पुरस्कार (2015), मध्य प्रदेश सरकार आदि से सम्मानित किए जा चुके हैं.
कुल 19 अध्यायों में विभाजित 254 पृष्ठ की इस किताब के शुरुआती तीन अध्याय सीताराम गोयल, अरुण शौरी एवं नील माधव दास के विचारों एवं लेखों पर आधारित है. प्रो. शरण इसके माध्यम से अपनी बात कहने का आधार निर्मित करते हैं. अध्याय चार से लेकर अध्याय नौ संघ की विचारधारा, कार्यशैली, मंदिर आंदोलन, नेहरूवाद के संघ पर प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रभाव, हिंदुत्व के विरुद्ध बौद्धिक षड़यंत्र की सटीक विवेचना करता है. अध्याय दस अटल-आडवाणी युग की राजनीति एवं राजग सरकार के कार्यकाल का मूल्यांकन करता है. अध्याय ग्यारह से उन्नीस राजग सरकार एवं संघ के वर्तमान स्वरुप से लेकर, स्वतंत्रता आंदोलन के गाँधीयुग से अब तक के बौद्धिक विमर्श, इस्लाम, शिक्षा, धर्म, मंदिर, जातिवादी विघटन, इस्लाम एवं छद्म पंथनिपेक्षता एवं आरक्षण की समीक्षा पर आधारित है. सबसे बढ़कर किताब अंत में अपने विशेष निष्कर्ष, अर्थात् देश में जिस दक्षिणपंथी या हिंदू राजनीति की बात की जाती रही है, पिछले एक सदी में उसका अस्तित्व ही नहीं रहा है, पर पहुँचती है. प्रो.शंकर शरण हर उठाए गए मुद्दे को बेहतरीन तर्कों के साथ प्रस्तुत करते हैं. तथ्य तर्कों से पराजित नहीं होते बल्कि तथ्य तर्कों का सर्वोत्तम संबल होते हैं. इस आलोच्य पुस्तक में प्रो.शरण ने ‘तथ्य एवं तर्क’ दोनों का बेहतरीन संयोजन प्रस्तुत किया है.
प्रो. शरण निष्ठुर लेखक हैं. उनकी निष्ठुरता का कारण उनकी लेखकीय ईमानदारी है. जैसे-जैसे पाठक अगले पन्ने पर बढ़ने लगता है वैसे ही प्रो.शरण की निष्ठुरता क्रूरता में बदलती जाती है. मुद्दों को उठाने, उनका विश्लेषण, परिणाम और भविष्य के प्रभाव पर लिखते वक्त वे किसी भी सम्बंधित पक्ष का लिहाज नहीं करते. तथ्यों को यथावत रखते हुए बिना लाग-लपेट ऐतिहासिक किवदंती बनने की प्रक्रिया में शामिल आधुनिक राजनीतिक-सामाजिक शख्सियतों के चरित्र का एक बिलकुल दूसरा पक्ष प्रकट करते हुए भारतीय राजनीति के पिछले एक सदी के यथार्थ को बिल्कुल नग्न रूप में उपस्थित करतें हैं. उनका विश्लेषण पाठक को अपनी समझ के पुर्नमूल्यांकन के लिए विवश करता है. हालांकि राजनीति में व्यक्ति पूजन एवं अंधभक्ति में विश्वास रखने वालों के लिए यह किताब बिल्कुल नहीं है. बल्कि यह पूर्वाग्रहरहित निरपेक्ष आलोचना-समालोचना को आत्मसात कर सकने वाले लोगों के ही अनुकूल है.
अपनी पुस्तक में प्रो.शरण संघ एवं भाजपा के नेताओं एवं पदाधिकारियों समेत जिन अन्य दलों के नेताओं एवं पत्रकारों के विषय में उल्लेख करते हैं, उनका सिर्फ संकेत भर करते हैं, नाम नहीं लिखते. या यूँ कहें कि उनका नाम लेने से बचते हैं. सामान्य राजनीतिक इतिहास से पूर्ण परिचित ना रहने वाले एवं नई पीढ़ी के पाठकों के लिए खीज पैदा करेगी, क्योंकि उन्हें बहुत कोशिशों के बाद भी हाल उन व्यक्तियों का परिचय पाने में कठिनाई होगी. हालांकि भारतीय राजनीति से थोड़ा करीबी परिचित होने वाले पाठक आसानी से लेखक के संकेतों से उन व्यक्तियों के बारे में समझ जाएंगे जिन के विषय में बातचीत की जा रही है. शंकर शरण चतुर-सुजान लेखक हैं. संभवत वे अपनी किताब के माध्यम से किसी विवाद को आमंत्रण नहीं देना चाहते ताकि इस कारण पाठक लेखकीय लक्ष्य से विचलित ना हो.
किताब की भाषा हिंदी हैं. लेकिन कई जगह विशुद्ध उर्दू-फ़ारसी के साथ ही आवश्यकतानुसार अंग्रेजी के प्रचलित के शब्दों का प्रयोग हुआ है.इससे भाषा का माधुर्य एवं प्रवाहशीलता बनी रहती है. पुस्तक में संदर्भ को प्रमाणित करने के आवश्यकतानुरूप ही सही, कई जगह तथ्यों एवं वक्तव्यों का दोहराव हुआ है किंतु पाठकों के लिए वह कई दफ़े ऊब पैदा कर सकता है.
अक्सर किताबों की प्रसिद्धि के विषय में कही जाने वाली ‘एक बार पढ़ना शुरू करने के बाद खत्म करके ही उठने’ जैसी प्रचलित उक्ति आलोच्य किताब के लिए उचित नहीं है. इसे यांत्रिक रूप से एक बार में पढ़ने की आवश्यकता है भी नहीं, क्योंकि यह लेखक द्वारा लक्षित संदर्भों, उनके द्वारा उठाए गए मुद्दों एवं समस्या की गंभीरता, विषय-विश्लेषण तथा लेखकीय परिश्रम के प्रति अन्याय होगा. जैसा कि प्रो.शरण किताब की भूमिका में लिखते हैं, ‘यह पुस्तक एक भिन्न विचार रखती है. इसका सम्यक मूल्यांकन पाठक स्वयं कर सकेंगे. कुल मिलाकर, यह किताब हिंदू दृष्टि से संघ परिवार की पिछले सात-आठ दशकों की राजनीति की समालोचना प्रस्तुत करती है.’ इसी अनुरूप हर अध्याय समाप्ति के पश्चात् पाठक के लिए गंभीरतापूर्वक मंथन योग्य कई प्रश्न छोड़ जाता है.
प्रो.शरण पाठक को किसी निष्कर्ष तक पहुंचने का दबाव नहीं बनाते बल्कि आलोच्य विषय की विशद विवेचना करते हुए निर्णयन का अधिकार उसके विवेक पर छोड़ देते हैं. जैसा कि अपनी किताब की प्रस्तावना से पूर्व प्रो.शंकर डॉ.आंबेडकर के शब्द उद्धृत करते हैं, ‘केवल वही स्वीकार करो, जो तुम्हारे विवेक के समक्ष खरा साबित हो.’ प्रो.शरण की विशेषता रही है, वे अपने लेखन में प्रारंभ से अंत तक स्वनिर्धारित विषय पर बिना विचलित हुए दृढ़तापूर्वक केंद्रित रहते हैं. आलोच्य पुस्तक के लेखन का केंद्रीय विषय सनातन समाज का भविष्य है. वे लोग जिन्हें संघ-भाजपा की अब तक की राजनीति को समझना हो, उनके लिए यह पुस्तक आवश्यक है. परंतु जिनको भारतीय राजनीति में थोड़ी भी रूचि हो, उनके लिए भी यह एक बार पठनीय अवश्य है.
[युगवार्ता से साभार]
किताब- संघ परिवार की राजनीति: एक हिंदू आलोचना
लेखक- शंकर शरण
प्रकाशक- गरुण प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड
मूल्य- ₹ 449