चुनावी मौसम में नारों की बयार

ओमप्रकाश तिवारी

चुनावों में नारों की बड़ी अहमियत होती है। कई बार नारों ने देश और प्रदेश की सत्ता को बदलने का काम किया है। वर्ष 1971 के आम चुनाव में इंदिरा गांधी ने ‘गरीबी हटाओ, देश बचाओ’ का नारा दिया था। इस नारे ने उन्हें सत्ता दिलाई। वर्ष 1989 के लोकसभा चुनाव में वीपी सिंह ‘राजा नहीं फकीर हैं, देश की तकदीर हैं।’’ के नारे बल पर प्रधानमंत्री बन गए थे। 2007 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में बसपा ने ‘चढ़ गुंडों की छाती पर, मुहर लगेगी हाथी पर’ नारा दिया। इसी तरह ब्राह्मण वोट बैंक को साधने के लिए ‘हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा, विष्णु महेश है’ और ‘ब्राह्मण शंख बजाएगा, हाथी बढ़ता जाएगा’ का नारा दिया। ये नारे बेहद कारगर रहे और बसपा को बहुमत से भी ज्यादा सीटें मिली।

वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के नारों, ‘अबकी बार मोदी सरकार।’ ‘हर-हर मोदी, घर-घर मोदी’ और ‘अच्छे दिन आएंगे। इसी तरह 2019 में भाजपा का ‘मोदी है तो मुमकिन है’ नारा लोगों की जुबां पर छाया रहा। भाजपा एक और नारा, ‘सबका साथ, सबका विखास, सबका विश्वास’ और ‘सबका प्रयास’ भी बेहद कारगर रहा। इस लोकसभा चुनाव में इलाहाबाद में भाजपा उम्मीदवार नीरज त्रिपाठी के खिलाफ एक नारा – ‘भाजपा से बैर नहीं, नीरज तेरी खैर नहीं’ खूब गूँज रहा है। ये नारा असंतुष्ट भाजपाइयों का दिया हुआ है।

इस तरह नारे चुनावों में बड़ा गुल खिलाते आये हैं। मौजूदा लोकसभा चुनाव में भी नारों की लड़ाई है। चुनाव प्रचार करने निकल रहीं भाजपा कार्यकर्ताओं की टोलियां ‘एक ही नारा एक ही नाम, जय श्रीराम जय श्रीराम’ और ‘जो राम को लाए हैं, हम उनको लाएंगे’ नारे के साथ जनता से समर्थ मांग रहीं हैं। दस साल बाद भाजपा ने नारा दिया है, ‘अबकी बार 400 पार’, ‘फिर एक बार…मोदी सरकार’। हाल ही में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने विरासत टैक्स को लेकर एक नारा दिया – ‘कांग्रेस की लूट, जिंदगी के साथ भी और जिंदगी के बाद भी’ हालांकि कि यह नारा ज्यादा कारगर नहीं दिख रहा है।

इसी तरह इस बार कांग्रेस नीत इंडिया गठबंधन ‘हाथ बदलेगा हालात’ और ‘मोदी हटाओ, देश बचाओ’ और कांग्रेस का न्याय’ के नारे के साथ मैदान में है। कांग्रेस का एक और नारा, ‘झूठ का चश्मा उतारिए, सरकार बदलिए-हालात बदलिए’ चुनावी सभाओं में गूँज रहा है। टीएमसी का पुराना नारा ‘माटी, मानुष’ इस बार भी है। सपा का नारा ‘अबकी बार, भाजपा साफ’ भी कुछ क्षेत्रों में लोगों की जुबान पर है। इसी तरह इस बार बसपा ने नारा दिया है -‘मुफ्त राशन नहीं, बहनजी का शासन चाहिए’।

चुनावों में चुनाव चिह्नों को लेकर भी नारे गढ़े जाते हैं। वर्ष 1952 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी का चुनाव चिह्न दो बैलों की जोड़ी था। जनसंघ का चुनाव चिह्न दीपक था। जनसंघ ने नारा दिया ‘ये देखो दीपक का खेल, जली झोपड़ी भागे बैल।’ इसके जवाब में कांग्रेस ने नारा दिया ‘दीपक में तेल नहीं, सरकार बनाना खेल नहीं’। इस बार के चुनाव में भाजपा के चुनाव चिन्ह कमल को लेके एक नारा गूँज रहा है। ‘हमारी भूल, कमल का फूल’।

दरअसल, नारों का अपना मनोविज्ञान होता है। चुनावी नारे समर्थकों में ऊर्जा भरने और जनता के बीच माहौल कायम करने का काम करते हैं। नारों ने चुनावों में जनमत को दिशा देने का कार्य किया है। मोतीलाल नेहरू पोस्ट ग्रेजुएट कालेज के प्राचार्य डॉ. मणिशंकर द्विवेदी कहते हैं कि चुनावी नारों की अपनी अहमियत होती है। नारों के जरिये कम शब्दों में अपनी बात को प्रभावी ढंग से जनता तक पहुंचाया जाता है। इसी तरह सामाजिक कार्यकर्ता इंजिनियर योगेंद्र उपाध्याय कहते हैं कि चुनावी नारे उत्प्रेरक का कार्य करते हैं। इसीलिए चुनावी मौसम में नारों की बयार बहती है।

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