आवेश और जोश के साथ सोच भी आवश्यक- दत्तोपंत ठेंगड़ी

उदयपुर में जो कुछ हुआ उससे आक्रोश स्वाभाविक है। लेकिन साथ ही सोचने की जरूरत है। 1990 में लुधियाना के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सम्मेलन में दत्तोपंत ठेंगड़ी का भाषण हुआ। उनका वह भाषण आज भी हमारा मार्ग दर्शन करता है।

एक तरफ बैरिस्टर जिन्ना का पाकिस्तान की तरफ वह सारा चल रहा था। उसका प्रतिरोध करने के लिए हिंदू सभा के लोग उतने ही ओजस्वी भाषण देते थे परंतु हिंदू उधर नहीं गया। हिंदू सभा के पास बहुत थोड़े लोग रहे। बाकी लोग कांग्रेस के साथ गए। अब ये हिंदू मानसिकता बदलनी है। वह मानसिकता क्या है यह समझ कर चलना चाहिए। जो हिंदू सभा ने नहीं किया।

संघ का अपना काम धीरे-धीरे चलता रहा। पाकिस्तान बनने के समय, हमें भी कुछ लोगों ने कहा उस समय तो मैं उमर में 27 साल का था। संघ प्रचारक भी था। उन्होंने कहा संघ इस समय कर्तव्य-च्युत रहा है। विरोध करने के लिए संघ की फौज आगे आनी चाहिए। हमने कहा काफी रोमांचक आदमी दिखता है, थे तो बूढ़े लेकिन रोमांचक थे।

तो उन्होंने कहा कि संघ की फौज लेकर आपके गोलवलकर जी को सामने आना चाहिए। हमने दो बार सुन लिया। बाद में फिर कहा आप क्या बोल रहे हैं, आपके ख्याल में है क्या? उनकी बातचीत से मुझे ऐसा पता लगा कि संघ को कुछ करना चाहिए, ऐसा कहने वाले लोग ऐसे रोमांचक थे कि उनके दिमाग में एक चित्र था जैसे पानीपत की तीसरी लड़ाई के समय एक तरफ अहमदशाह अब्दाली का कैंप था और एक तरफ हिंदुओं का कैंप था। तो वैसे ही पाकिस्तान बनने के समय एक तरफ इकबाल और बैरिस्टर जिन्ना का कैंप रहेगा। उनकी मुसलमान फौज रहेगी दूसरी तरफ गोलवलकर जी की हिंदू फौज रहेगी, दोनों का मुकाबला होगा और दोनों की टक्कर में हिंदुओं को विजय का विश्वास लेकर लड़ना चाहिए।

ऐसा कुछ चित्र उनके मन में था,मैंने कहा ये चित्र आपका सही है क्या? बोले क्यों नहीं, संघ के पास ताकत है। हमने कहा-है। लेकिन मुकाबला बैरिस्टर जिन्ना और इकबाल की सेना से होगा क्या? वे ही पाकिस्तान की मांग कर रहे हैं? हमने कहा ये जवाहरलाल नेहरू और सरदार पटेल की सेना के साथ होगा।

उस समय अंतरिम सरकार थी। ये जो आवेश और जोश वाले लोग सोचते ही नहीं। उस समय अंतरिम सरकार थी और अंतरिम सरकार के पास सेना की कमांड थी, पुलिस उनके पास थी और कोई भी कुछ भी करता तो पहले मुकाबला अंतरिम सेना के साथ होता। नेहरू और पटेल की फौज के साथ होता। जिन्ना और इकबाल तो अलग रहते। जैसे जन्मभूमि के समय आपने देखा हिंदुओं का मुकाबला हुआ। किससे हुआ? सैयद शहाबुद्दीन से हमारा झगड़ा हुआ क्या अयोध्या में? शाही इमाम से झगड़ा हुआ क्या? झगड़ा हुआ मुलायम सिंह यादव से और विश्वनाथ प्रताप सिंह की फौज से। आप समझ गए ना।

अयोध्या में जो झगड़ा हुआ, हिंदू कारसेवकों का वह सैयद शहाबुद्दीन के साथ नहीं था और शाही इमाम के साथ नहीं था। ये जो शाही इमाम और शहाबुद्दीन से भी ज्यादा मुसलमान विश्वनाथ प्रताप सिंह और मुलायम सिंह यादव जैसे हैं, इनकी पुलिस और इनके अर्ध-सैनिक बलों से ये सारा संघर्ष करना पड़ा। वही बात उस समय थी। उनके ख्याल में नहीं आई। जोश में थे। और जोश में थे इसके कारण उन्होंने कहा कि इस समय आप झगड़े के लिए खड़े क्यों नहीं होते। हमने कहा भी किसके साथ झगड़ा हुआ। मुसलमानों के साथ होगा हम समझ सकते हैं। वे तो अलग रहेंगे तमाशा देखेंगे। जैसे दो नवंबर को लोग मारे गए। मारने वालों में सैयद शहाबुद्दीन, शाही इमाम नहीं थे वो तो तमाशा देख रहे थे।

मुलायम सिंह और वी.पी. सिंह की ही सेना ने हमारे निहत्थे लोगों पर गोलियां झाड़ी और ये सारे जो शाही इमाम वगैरा थे, बाहर से तमाशा देख रहे थे। वही हाल उस समय हो जाता। लेकिन जो आवेश में हैं उनके लिए यह सोच विचार वर्जित है, परहेज है, वे सोच विचार करते ही नहीं। आवेश में आकर सारी बातें बोलते हैं। उस समय परम पूूज्य गुरुजी के जो भाषण होते थे। हमें वह सूचना देते थे। क्योंकि उनको मालूम था धरती पर क्या चल रहा है। वे कहते थे कि जन-जागरण का दबाव नेताओं पर आना चाहिए। और ये विभाजन की बात हटनी चाहिए। लेकिन साथ ही साथ ये कहते थे कि संयमपूर्ण व्यवहार करो।

गुरुजी के सारे भाषण उस समय के ऐसे थे। लेकिन जो हमसे भी ज्यादा कट्टर लोग हैं वे संयम और दुर्बलता को एक ही मानते हैं। संयम यानी कि उनको तो लगता है कि ये कमजोर है, दुर्बल है, नामर्द है। और संघ के खिलाफ फिर बात आती है कि इतनी बड़ी शक्ति आपके पास है आप कुछ नहीं करेंगे ये बात आई। पर संघ का जो अपना मार्ग है, मार्ग से चला है वह मार्ग क्या है ये सब जानते हैं। लेकिन ये जोश, ये धरती के साथ संपर्क नहीं, हवा में छलांगे लगा रहे हैं। हिंदू मानसिकता क्या है? इसका पता नहीं।

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