गांधी के तीन अभियान

 

रामबहादुर राय

भारत में एम जे अकबर से अपरिचित शायद ही कोई हो। वे प्रसिद्ध पत्रकार, संपादक, लेखक और राजनीतिक नेता भी हैं। उनकी अनेक पुस्तकें हैं। इन दिनों जिस पुस्तक के लिए वे चर्चा में हैं, वह उनकी पुस्तकों की श्रृंखला में नूतन है। यह पुस्तक एक टाइम मशीन है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के जमाने में ऐसी पुस्तक का महत्व बहुत बढ़ जाता है, जब इतिहास के एक महापुरुष पर वह केन्द्रित हो। वे महापुरुष हैं, महात्मा गांधी। लेकिन यह पुस्तक महात्मा गांधी शीर्षक से नहीं है। इसके कवर पेज पर हिंदी में गांधी और अंग्रेजी में पुस्तक का नाम है, ‘गांधी, ए लाइफ इन थ्री कैंपेन्स’। इस शीर्षक से यह समझा जा सकता है कि पुस्तक बापू के उन तीन अभियानों पर केन्द्रित है, जिनसे देश स्वतंत्र हो सका। पुस्तक के परिचय में इसे दूसरे शब्दों में लिखा गया है कि मोहनदास करमचंद गांधी को ठीक ही महात्मा का आदर प्राप्त था। उन्होंने दुनिया के सबसे ताकतवर साम्राज्य को अपने तीन जन अभियानों से उखाड़ फेंका। इस सफलता को हासिल करने में उन्हें दो दशक से ज्यादा समय लगे।

इस पुस्तक को कई स्तरों पर पढ़ा जा सकता है। अपने आप में यह एक छोटा परंतु रोचक उपन्यास जैसा है। जिसमें एक साथ कई कहानियां साथ-साथ चलती हैं। जिनकी रुचि उन कहानियों में होगी, वे इसे उपन्यास की तरह कहानियों का आनंद लेते हुए पढ़ेंगे। ऐसा जो करेगा वह आजादी की लड़ाई की सजीव घटनाओं से परिचित होता चलेगा। वे घटनाएं ही स्वतंत्रता संग्राम की मुख्यधारा है। एक दूसरा स्तर भी है। जिसमें महात्मा गांधी स्वयं हैं। उनका व्यक्तित्व है। उनकी त्याग और तपस्या है। उनका रणकौशल है। उनके नये-नये प्रयोग हैं। वे सफल प्रयोग हैं। उन छोटे-छोटे प्रयोगों ने कैसा चमत्कार किया, इसकी इस पुस्तक के हर पन्ने पर कहानियां हैं। वे पाठक में उत्सुकता जगाती है। महात्मा गांधी का मिशन क्या था, इसे समझने में ये कहानियां मदद करती हैं।

एक स्तर और भी है। वह स्वतंत्रता संग्राम के उतार-चढ़ाव और ब्रिटिश साम्राज्य की चालों से संबंधित है। उसे जो जानना चाहेगा, वह इस पुस्तक को अपनी प्रिय पुस्तक बना सकता है क्योंकि इसमें सप्रमाण वे बातें दी गई हैं जो ब्रिटिश साम्राज्य की ‘बांटो और राज करो’के रहस्य खोलती हैं। ऐसे कई स्तर हैं, जिन पर इस पुस्तक को देखा और पढ़ा जाएगा। इस पुस्तक में लेखक हर जगह उपस्थित है, जितना उपस्थित है, उतना ही वह अनुपस्थित भी है। कोई भी पूछ सकता है कि ऐसा कैसे है? यह प्रश्‍न बहुत स्वाभाविक है। स्वाभाविक इसलिए है क्योंकि एक ही साथ अपनी पुस्तक में लेखक उपस्थित भी हो और अनुपस्थित भी, तो इसे परस्पर विरोधी बात कहेंगे। इसीलिए ऐसा प्रश्‍न बहुत स्वाभाविक माना जाएगा। लेकिन यह इस पुस्तक का एक यथार्थ है। इस यथार्थ का कोई रंग नहीं है। अगर है तो वह सफेद है। इसलिए सफेद है क्योंकि सफेद में ही सारे रंग आ जाते हैं। एम जे अकबर ऐसे ही लेखक हैं। यह उनकी विशेषता है।

आमतौर पर पुस्तक के प्रयोजन पर लेखक स्वयं कुछ लिखता है। इस परिपाटी को एम जे अकबर ने इसमें बदल दिया है। नयी परिपाटी बनाई है। इस पुस्तक का फॉरवर्ड कुंवर नटवर सिंह ने लिखा है। जो अपनी उम्र के लंबे पड़ाव पार कर सौ साल के करीब पहुंच रहे हैं। वे अनुभवी हैं, गुणी हैं, ज्ञानी हैं और सबसे खास बात यह है कि वे गहरे अध्येता हैं। उन्हें दार्शनिक और विचारक न भी मानें, तो यह मानना ही पड़ेगा कि उन्होंने दुनिया देखी है। ऐसे व्यक्ति को किसी खास खांचे में डालना चाहें भी, तो वह उसमें नहीं फिट हो सकता है। उनकी कोई परिभाषा भी बनाना कठिन है। उन्हें उनके शब्दों से जानना संभव है। ऐसे व्यक्ति को अनेक विभूषणों से बताने का रिवाज है। उन रिवाजों में न जाकर यह कहना काफी है कि नटवर सिंह के फॉरवर्ड में वह बात आ गई है जिसे एक पाठक जानना चाहेगा। वह यह कि पुस्तक का प्रयोजन क्या है?

वे इसे बहुत अच्छे से अपने फॉरवर्ड में बताते हैं। उन्होंने तीन बातें कही है। एक, महात्मा गांधी के नाम से शायद ही कोई अपरिचित हो। अर्थात सभी लोग परिचित हैं, चाहे वे बूढ़े-बुजुर्ग हों, चाहे नई उम्र के हों और जिस भी काम-काज में लगे हों। इसे दूसरे शब्दों में यह कह सकते हैं कि वह व्यक्ति अभागा ही होगा, जो महात्मा गांधी के नाम से परिचित न हो। लेकिन क्या नाम से परिचित होना काफी है? इसका उत्तर अपनी पहली बात में नटवर सिंह देते हैं और लिखा है कि ऐसा परिचय सतही है। जाहिर है कि यह परिचय होना न होना बराबर है। इससे सभी सहमत होंगे कि महात्मा गांधी को जितना अधिक हो सके उतना जानना चाहिए। उन्हें जानना देश, समाज, संस्कृति और राजनीति के लिए ही जरूरी नहीं है, बल्कि भारत के पुनरोत्थान के लिए यह पहली और अनिवार्य शर्त है। वैसे ही जैसे किसी विद्यार्थी के लिए कोई पर्चा अनिवार्य हुआ करता है। उसे ही उस छात्र की कसौटी माना जाता है। इसी तरह नटवर सिंह का भी मानना है और यह सही भी है कि नयी पीढ़ी को अवश्‍य महात्मा गांधी को जानना चाहिए। उन्हें इस बात का अफसोस है कि जिन्हें महात्मा गांधी को जरूर जानना चाहिए, वे उनके विमुख हो रहे हैं।

क्या इसीलिए यह पुस्तक है? यह प्रश्‍न भी है और उत्तर भी है। प्रश्‍न इसलिए है क्योंकि स्वयं नटवर सिंह ने इसे खड़ा किया है। वे लिखते हैं कि महात्मा गांधी पर अब तक ग्यारह हजार पुस्तकें छपी हैं। इस कथन में ही प्रश्‍न निहित है कि जब इतनी पुस्तकें हैं, तो फिर एक नई पुस्तक की क्या जरूरत है? इस प्रश्‍न से यह मत समझें कि नटवर सिंह ने एम जे अकबर की इस पुस्तक को खारिज कर दिया है। सच यह है और उन्होंने इसे लिखा भी है कि जो काम गांधी पर लिखी सैंकड़ों पुस्तकों ने नहीं किया है, वह इस पुस्तक से संभव है। ऐसा क्यों है? इसलिए है क्योंकि महात्मा गांधी की आत्मकथा बीसवीं सदी के दूसरे दशक तक ही सीमित है। हालांकि वह आत्मकथा सही मायने में महात्मा गांधी को मुहावरे की भाषा में खुली किताब की तरह बहुत साफ-साफ पेश करती है। स्वयं महात्मा गांधी ने अपनी आत्मकथा में कुछ भी छिपाया नहीं है। सही ही है कि उन्होंने अपनी आत्मकथा को ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’ नाम दिया। उस प्रयोग ने ही उन्हें महात्मा बनाया।

गांधी की आत्मकथा जहां रूक जाती है, वहां से ही वास्तव में भारत का स्वतंत्रता संग्राम महात्मा गांधी के नेतृत्व में प्रारंभ होता है। वह साल 1920 है।  गांधीजी ने आत्मकथा 1925 में लिखना प्रारंभ किया। लेकिन उन्होंने उसे 1920 तक ही सीमित रखा। इसका कारण भी स्पष्‍ट किया कि 1920 के बाद उनका जीवन सबके सामने है और वह खुली किताब जैसा है। महात्मा गांधी की जीवनी अनेक हैं। बहुतों ने उनकी जीवनी लिखी है। फिर भी एक पुस्तक ऐसी होनी चाहिए जो जमाने के अनुरूप हो। प्रामाणिक हो। वैसे ही सत्य पर आधारित हो जैसे महात्मा गांधी का जीवन था। यह बात नटवर सिंह और एम जे अकबर में एक समानुभूति के रूप में प्रकट हुई। इस प्रकार नटवर सिंह ने लिखा है कि जो कमी थी वह इस पुस्तक से पूरी हो सकती है।

संभवत: इन दोनों में समानुभूति आजादी के अमृत महोत्सव से उत्पन्न वातावरण में पैदा हुई है। भारत आज अमृत काल में है। लेकिन आजादी के नामी और अनामी लोगों की खोज का जो क्रम चल पड़ा है वह रोज एक चेतना के नये ज्वार को जन्म दे रहा है। ऐसे समय में आजादी के आंदोलन की मुख्यधारा के महानायक महात्मा गांधी के प्रति जिज्ञासा का भाव पैदा होना कोई आश्‍चर्य की बात नहीं है। यह तो सहज है और स्वागत योग्य है। महात्मा गांधी के जीवन की तुलना आकाश से की जा सकती है। आकाश अनंत है। उसी तरह महात्मा गांधी के व्यक्तित्व में अनंतता के अनेक आयाम हैं। कौन किस आयाम की ओर निगाह डालता है और उससे अपना लगाव महसूस करता है, यह उस व्यक्ति की अपनी रुचि से निर्धारित होगा। इस पुस्तक को पढ़ने के लिए शांत और निर्मल मन चाहिए। तभी महात्मा गांधी की धुरी पर चले आजादी के आंदोलन का जो नद है, उस ब्रह्मपुत्र को अपनी चेतना में आत्मसात किया जा सकता है। उसका विराट दर्शन हो सकता है। एक ऐसा शब्दचित्र इस पुस्तक में है, जिससे कम से कम दो बातें जानी जा सकती है। पहली कि महात्मा गांधी ने स्वतंत्रता को साकार करने के लिए कैसे और कब-कब अपने प्राणों की बाजी लगा दी। महात्मा बुद्ध ने अंगुलीमाल को अहिंसक बना दिया। महात्मा गांधी ने अहिंसा के अस्त्र से ब्रिटिश साम्राज्य को विदा कर दिया। दूसरी बात कि वे अपने जीवन के अंतिम अध्याय में अपने सहयोगियों से विवश हो गए थे। लेकिन जिन्हें उन्होंने गढ़ा था, वे ही उनके उपकरण हो सकते थे। यही उनकी विवशता थी। लेकिन कोई अपनी विवशता को सकारात्मक भी बना सकता है, यह महात्मा गांधी से सीखना चाहिए। उन्होंने भारत विभाजन को स्वीकार नहीं किया। स्वीकार किया, परिस्थितियों की विवशता को। ऐसा करते हुए उनके मन में कोई मलीनता नहीं थी।

यह अनोखी बात है। इस पर आश्‍चर्य होता है। जो चकित होगा वह सचेत भी होगा। सजग भी होगा। वह गहरे उतर कर सच को जानने का प्रयास करेगा कि महात्मा गांधी का मूल मंत्र क्या था? कौन थे महात्मा गांधी? उनका जीवन संदेश क्या है? क्या महात्मा गांधी अमृत काल के भारत में समसामायिक हैं? एम जे अकबर ने उन तीन अभियानों की प्रामाणिक कहानी बताई है, जो भारत की आजादी और बंटवारे की मंजिल तक पहुंची। उस मंजिल पर महात्मा गांधी का बलिदान भी हो गया। यह पुस्तक महात्मा गांधी के सपनों की पड़ताल नहीं करती, बल्कि महात्मा गांधी के जीवित प्रयासों को चित्रित करती है। उन प्रयासों में सफलता और विफलता दोनों है। खास बात यह है कि महात्मा गांधी सफलता से अहंकारवश फूलते नहीं और विफलता से हार नहीं मानते। ऐसा व्यक्ति निर्विकार और गुणातीत होता है। महात्मा गांधी की यही तस्वीर इस पुस्तक में है। यह पुस्तक 242 पन्नों की है। इसके तीन अध्याय हैं। हर अध्याय में एक अभियान है। पहला, असहयोग। दूसरा, नमक सत्याग्रह। तीसरा, भारत छोड़ो। इस पुस्तक में छोटी-मोटी अनेक गलतियां भी हैं। जैसे कि हिंद स्वराज को 1908 में रचा हुआ लिखा गया है, यह 1909 होना चाहिए। लेकिन यह पुस्तक हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रयोजन को बहुत अच्छे ढंग से प्रस्तुत करती है।

 

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