गज़ल – ज़िन्दगी

कौन लेगा अब ख़बर भी इस जहाँ में बेख़बर की;
बात इक दिन की नहीं है बात है इक उम्र भर की.
ये तमाशा और तेरी ये जवाँ महफ़िल ओ साक़ी,
सुब्ह तक हम छोड़ देंगे, बात है इक रात भर की.
लिख दिया है रब ने क़िस्मत में न जाने क्या हमारी,
हाध का सोना है मिट्टी ठोकरें हैं रहगुज़र की.
आदमी की चाहतों की कोई हद होती नहीं है,
जानता कुछ नहीं उम्मीद जबकि साँस भर की.
ज़िन्दगी के इस सफ़र में सबकी अपनी उलझने हैं,
एक दुनिया रब की अपनी, एक दुनिया हर बशर की.
आप, हम, ये, वो फ़क़त किरदार हैं कुछ वक़्त के बस,
ख़त्म होगी हर कहानी एक दिन हर इक सफ़र की.
ज़िन्दगी पहचान मुझको मैं तेरा आशिक़ नहीं हूँ,
मौत मेरी दिलरुबा है, दोस्त है तू उम्र भर की.
आ गया अय “प्रेम” ख़ुद से बात करने का सलीक़ा,
अब तो सूरत भी नहीं है याद मुझको हमसफ़र की.

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