आत्मघाती राजनीति की ओर बढ़ रही कांग्रेस

बनवारी

कांग्रेस की राष्ट्रीय निष्ठाएं कितनी कमजोर पड़ गई हैं, इसका ताजा उदाहरण संविधान से हटा दी गई अनुच्छेद 370 को लेकर बनी हुई उसकी दुविधा है। संविधान से यह धारा हटाए एक वर्ष से ऊपर हो चुका है। केंद्र सरकार के इस कदम को देशभर में व्यापक समर्थन मिला है। लेकिन कांग्रेस अभी तक यह तय नहीं कर पाई कि वह केंद्र सरकार के इस निर्णय के साथ है या वह उसके विरोध में है। अब तक केंद्र सरकार के इस निर्णय का मुखर विरोध केवल जम्मू-कश्मीर की उन पार्टियों ने किया है, जो राज्य में अलगाववादी शक्तियों को बढ़ावा देती रही हैं। उन्होंने केंद्र सरकार के इस निर्णय से एक दिन पहले 4 अगस्त, 2019 को श्रीनगर में फारूक अब्दुल्ला के घर बैठक करके यह घोषित किया था कि वे अनुच्छेद 370 और 35ए को संविधान से हटाने का विरोध करेंगी।

फारूक अब्दुल्ला का घर गुपकार मार्ग पर है, इसलिए इस घोषणा को गुपकार घोषणा कहा गया। इसकी पहली बैठक में कांग्रेस भी शामिल थी। पर देशभर में संविधान से अनुच्छेद 370 समाप्त किए जाने का जो समर्थन हुआ, उसे देखकर वह झिझक गई और उसकी अगली बैठकों में शामिल नहीं हुई। कांग्रेस के राष्ट्रीय नेताओं की दुविधा 6 अगस्त, 2019 को कांग्रेस कार्यकारिणी द्वारा जारी वक्तव्य से भी स्पष्ट हो गई थी, जिसमें केवल अनुच्छेद 370 हटाए जाने के तरीके की आलोचना की गई थी। उसमें कहा गया था कि अनुच्छेद 370 की संवैधानिक वैधता है और उसे राज्य के सभी पक्षों की सहमति से ही हटाया जा सकता है। जो लोग जम्मू-कश्मीर की राजनीति को समझते हैं, उन्हें कांग्रेस का यह तर्क हास्यास्पद ही दिख सकता था। क्योंकि जम्मू-कश्मीर के अधिकांश दलों के अनुच्छेद 370 बनाए रखने में और अपना अलगाववादी एजेंडा बढ़ाते रहने में निहित स्वार्थ पनप गए हैं।

जम्मू-कश्मीर में 28 नवंबर से जिला विकास परिषदों के चुनाव होने है। गुपकार घोषणा में जो पार्टियां शामिल हुई थी, उन्होंने पहले घोषित किया था कि वे अनुच्छेद 370 की बहाली तक विधानसभा के चुनाव नहीं लड़ेंगी। पर अब वे अपनी राजनैतिक उपस्थिति बनाए रखने के लिए जिला विकास परिषदों के चुनाव लड़ना चाहती हैं। उन्होंने इन चुनावों के लिए पीपुल्स एलाइंस नाम से एक गठबंधन कर लिया है। इस बीच उसके दो शीर्षस्थ नेताओं के बयानों से पीपुल्स एलाइंस का राज्य राष्ट्र विरोधी चरित्र भी प्रकट हो चुका है।

पीपुल्स एलाइंस के अध्यक्ष फारूक अब्दुल्ला ने पहले पत्रकार करन थापर को दी भेंटवार्ता में कहा कि वे अनुच्छेद 370 हटाने के लिए चीन के हस्तक्षेप का स्वागत करते हैं। उन्होंने यहां तक कह दिया कि कश्मीर के लोग अपने बीच भारतीय सेना की जगह चीनी सेना देखना अधिक पसंद करेंगे। इस बात को उन्होंने कई बार और दोहराया। यह सीधे-सीधे देशद्रोह था और उनके इस वक्तव्य के आधार पर उनकी लोकसभा की सदस्यता निरस्त की जानी चाहिए थी। उनके इस वक्तव्य के आधार पर पीपुल्स एलाइंस को चुनाव लड़ने के अयोग्य घोषित करवाया जा सकता था। क्योंकि पीपुल्स एलाइंस ने अपने अध्यक्ष के इस वक्तव्य का औपचारिक रूप से विरोध करते हुए अपने आपको उससे अलग नहीं किया।

फारूक अब्दुल्ला के बाद महबूबा मुफ्ती ने भी उतना ही आपत्तिजनक वक्तव्य दिया। महबूबा मुफ्ती पीपुल्स एलाइंस की उपाध्यक्ष हैं। उन्होंने कहा कि वे तब तक राष्ट्रीय ध्वज नहीं फहराएंगी जब तक जम्मू-कश्मीर का अपना पुराना अलग झंडा बहाल नहीं हो जाता। इतना ही नहीं पीपुल्स एलाइंस ने 24 अगस्त, 2020 की अपनी बैठक में जम्मू-कश्मीर के उस पुराने झंडे को अपना चुनाव चिन्ह घोषित कर दिया।

यह दुर्भाग्य की बात है कि भारतीय जनता पार्टी को छोड़कर देश के अन्य सभी दलों ने पीपुल्स एलाइंस के इस राष्ट्र विरोधी चरित्र पर चुप्पी साध रखी है। गृह मंत्री अमित शाह ने पीपुल्स एलाइंस को उचित ही गुपकार गैंग की संज्ञा दी है। किसी अनुचित या आपराधिक उद्देश्य के लिए इकट्ठा होने वाले समूह को गैंग ही कहा जा सकता है।

पीपुल्स एलाइंस के नेता अपने उद्देश्य के लिए जिस तरह पाकिस्तान और चीन का सहारा ढूंढ़ रहे हैं, उसके बाद उनके राष्ट्र विरोधी उद्देश्य में कोई शंका नहीं रह जाती, इसलिए उसे गैंग बताना अनुचित नहीं है। उमर अब्दुल्ला ने यह कहते हुए पीपुल्स एलाइंस का बचाव किया है कि वह केवल चुनाव लड़ने के लिए किया गया गठबंधन है और उसे गैंग नहीं कहा जा सकता। पर यह एलाइंस केवल चुनाव लड़ने के लिए नहीं, चुनाव के जरिए शक्ति पाकर संविधान से हटा दी गई अनुच्छेद 370 बहाल करवाने के लिए बनाया गया संगठन है। इस संगठन की देश के बाहर बनी हुई निष्ठाएं किसी से छुपी नहीं है।

पाकिस्तान पिछले तीन दशक से भारत में आतंकवादी भेजकर हमारे जवानों, आम कश्मीरियों और अन्य देशवासियों का खून बहाता रहा है। उससे हमदर्दी दिखाने वाले नेताओं को लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं का इस्तेमाल करने की छूट नहीं होनी चाहिए। महबूबा मुफ्ती ने गृहमंत्री अमित शाह के पीपुल्स एलाइंस को गुपकार गैंग बताने पर आपत्ति करते हुए कहा है कि भाजपा को टुकड़े-टुकड़े गैंग या गुपकार गैंग जैसे विशेषणों का इस्तेमाल करने की आदत पड़ गई है। यह कहते हुए महबूबा मुफ्ती पीपुल्स एलाइंस को टुकड़े-टुकड़े गैंग की श्रेणी में रखते हुए अमित शाह के आरोप को सही ही सिद्ध कर रही थीं।

महबूबा मुफ्ती का देश विरोधी एजेंडा इतना स्पष्ट है कि अब स्वयं उनकी अपनी पार्टी के लोग उनसे किनारा करते जा रहे हैं। इस गुपकार गैंग में राज्यस्तरीय दलों के अलावा सीपीएम भी शामिल है और सब जानते हैं कि सीपीएम की राष्ट्रीय निष्ठाएं कितनी संदेहास्पद हैं।

कांग्रेस हमेशा जिस तरह की दोहरी भूमिका निभाती रही है, वैसी ही इस बार भी निभा रही है। देश का दूसरा सबसे बड़ा राष्ट्रीय दल होने के नाते वह देश के लोगों की भावनाओं की पूरी तरह अनदेखी नहीं कर सकती थी। इसलिए उसने दबी जुबान फारूक अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती के आपत्तिजनक बयानों का विरोध किया। पर जम्मू-कश्मीर की चुनावी राजनीति में वह इसी गुपकार गैंग के साथ खड़ी है।

अमित शाह के आक्षेप का जवाब देते हुए कांग्रेस के आधिकारिक प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने कहा कि वे गुपकार घोषणा पर अमल के लिए बने पीपुल्स एलाइंस का अंग नहीं हैं। लेकिन जम्मू-कश्मीर में राज्य पार्टी के अध्यक्ष गुलाम अहमद मीर ने स्वीकार किया है कि जिला विकास परिषद के चुनाव के लिए उनकी पार्टी और पीपुल्स एलाइंस में सीटों को लेकर समझौता हुआ है। इस स्वीकारोक्ति की आवश्यकता इसलिए पड़ी कि पीपुल्स एलाइंस ने 43 सीटों के लिए अपनी जो तीन सूचियां जारी की थीं, उनमें दूसरी सूची में तीन कांग्रेसी उम्मीदवारों के नाम थे।

कांग्रेस के राज्यस्तरीय नेताओं ने इस पर यह कहते हुए लीपापोती करने की कोशिश की है कि कांग्रेस का पीपुल्स एलाइंस के दलों से केवल जिला स्तर पर सीटों को लेकर समझौता हुआ है। पर कांग्रेस के नेताओं को यह समझ में नहीं आ रहा कि अगर सचमुच वह गुपकार गठबंधन की राजनैतिक मांगों के विरोध में है तो उनके साथ किसी तरह का चुनावी समझौता कैसे कर सकती है? जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस की इस भूमिका से स्पष्ट है कि उसकी राष्ट्रीय निष्ठाएं इतनी कमजोर हो गई हैं कि वह देश के हित और अहित के बीच अंतर करने की क्षमता खो चुकी है।

कांग्रेस एक तरह की आत्मघाती राजनीति की ओर आगे बढ़ रही है। कश्मीर जैसे राष्ट्रीय भावना से जुड़े विषय पर उसकी यह दुविधा उसे ले डूबेगी। कांग्रेस में एक वर्ग ऐसा है, जिसकी वैचारिक निष्ठाएं यूरोपीय वामपंथ के छद्म उदारवाद पर आधारित हैं। उनके लिए कश्मीर की समस्या कश्मीर के लोगों की स्वायत्तता की समस्या है। अपने वैचारिक दुराग्रहों से बाहर निकलकर उन्होंने कभी यह देखने की कोशिश नहीं की कि कश्मीर की समस्या सदा ही घाटी की सांप्रदायिक समस्या थी। जो लोग हमेशा कश्मीरियों के आत्मनिर्णय के अधिकार की बात करते रहे हैं उन्होंने यह देखने की कोशिश नहीं की कि कश्मीर की न कभी कोई एक जातीय पहचान थी और न आज है।

शेख अब्दुल्ला ने जिस मूल मुस्लिम कांफ्रेंस का गठन किया था, वह जम्मू के हिन्दू राजा और जम्मू क्षेत्र की हिन्दू जनता के खिलाफ घाटी की बहुसंख्यक मुस्लिम आबादी को उकसाने के लिए बनाया गया राजनैतिक संगठन था। जवाहर लाल नेहरू के कहने पर मुस्लिम कांफ्रेंस का नाम बदलकर नेशनल कांफ्रेंस कर देने भर से उसका चरित्र नहीं बदल गया।

कश्मीर की राजनीति में अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार ने अब तक जो जहर घोला है, उसने कश्मीरी समाज को और भी अनेक हिस्सों में बांट दिया है। पूरे कश्मीर के नाम पर बनी किस सरकार ने अब तक जम्मू या लद्दाख के साथ न्याय किया? जम्मू क्षेत्र से राज्य का एकमात्र मुख्यमंत्री बनने का अवसर गुलाम नबी आजाद को मिला था। यह अपवाद भी इसलिए संभव हुआ कि वे मुसलमान हैं।

क्या गुपकार गैंग का कोई दल कश्मीर के मुख्यमंत्री के रूप में जम्मू के किसी हिन्दू नेता या लद्दाख के किसी बौद्ध नेता को स्वीकार कर सकता था? कश्मीरियत की धज्जियां क्या उसी दिन नहीं उड़ गई थीं, जब कश्मीर से पंडितों को पलायन के लिए विवश किया गया था? कश्मीर का प्रश्न सिर्फ पी. चिदंबरम जैसे लोगों के लिए ही क्षेत्रीय स्वायत्तता का प्रश्न हो सकता है, जो अपनी पार्टी तक को असहज करते हुए आज भी खुलकर अनुच्छेद 370 बहाल करने की मांग कर रहे हैं।

वास्तविकता यह है कि कश्मीर राजनैतिक या सांस्कृतिक किसी भी अर्थ में एकरूप इकाई नहीं है। जहां तक अनुच्छेद 370 की बात है, उसका अर्थ उसी दिन समाप्त हो गया था, जिस दिन कांग्रेस ने जम्मू-कश्मीर के प्रधानमंत्री का पद बदलकर मुख्यमंत्री किया था। उस समय अगर जम्मू-कश्मीर की स्थिति में आधे-अधूरे परिवर्तन न किए गए होते और अल्पकाल के लिए संविधान में जोड़ी गई अनुच्छेद 370 को पूरी तरह समाप्त कर दिया गया होता तो जम्मू और कश्मीर के लोगों को इतने दुर्दिन न देखने पड़े होते। यह दोनों परिवार जम्मू-कश्मीर की राजनीति में जहर घोलते रहे हैं, आज भी घोल रहे हैं और जम्मू-कश्मीर को शांति और समृद्धि के रास्ते पर आगे बढ़ाने के लिए इन दोनों परिवारों को किनारे लगाने की जरूरत है। समस्या यह है कि उनके संकट की हर घड़ी में सबसे पहले कांग्रेस उनके साथ खड़ी हो जाती है।

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