आंदोलनजीवी होने का तात्पर्य

शिवेन्द्र सिंह राणा

भारत में जनसमर्थित आंदोलनों की पृष्ठभूमि बमुश्किल एक सदी पुरानी है. 20वीं सदी के पूर्वांर्ध में देश ने आधुनिक प्रकार के जानांदोलन एवं जनविद्रोह की आयोजना को देखा-समझा. फिर सत्ता बदली, सन्दर्भ और संदर्श बदले, मान्यताएं बदली लेकिन आंदोलन की प्रवृति कायम रही. इसका लाभ भी देश को मिला, लोकतंत्र जीवंत बना रहा.

 शुरुआत में यह जन-गण-मन की आवाज़ बना किंतु बीतते समय के साथ, हर विषय जिसमें सरकार का हस्तक्षेप हो, के अवैधानिक विरोध की अशुभ परंपरा प्रारम्भ हुई. गाँधी जी द्वारा निर्देशित एवं निर्धारित प्रारूप पर आंदोलनों ने देश को सत्ता के विरुद्ध असहयोग एवं अवज्ञा की जो पद्धति सिखाई उसका प्रयोग राजनीतिक-सामाजिक भयादोहन (ब्लैकमेल) में होने लगा. जो वर्तमान तक आते-आते देश के विभिन्न हिस्सों में दिनोंदिन फैल रही अराजकता का कारक बन गया है. इसका सूत्रधार वर्ग विशेष है, जिन्हें आंदोलनजीवियों कहा जा रहा है. ये उस जमात के नस्ल हैं जिन्होंने स्वतंत्रता के पश्चात् सत्तासीन वर्ग के समक्ष प्रभावी सिद्ध हुए गाँधीवाद-समाजवाद को अपनी छद्म वैचारिकी का आवरण बनाकर निजी हित यथा, पद, पैसा, प्रसिद्धि हेतु अराजकता-उपद्रव का माहौल पैदा किया. और तब से यह पद्धति और प्रक्रिया निरंतर जारी है.
वर्तमान में उपजे तथाकथित सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों के प्रारूप एक दशक पूर्व अन्ना आंदोलन (2011) से उभरे हैं. इसने जनसहयोग से देश में भ्रष्टाचार के विरुद्ध निर्णायक एवं अग्रगामी पहल की शुरुआत की. और इसके लिए राजनीतिक वर्ग को मजबूर भी किया. किंतु इस दौरान देश में कुछ ख़तरनाक प्रवृतियों का भी उदय हुआ. जैसे निर्धारित समूहों के हठवादी रुख द्वारा निर्वाचित सरकार के इक़बाल को झुकाने की जिद, शासन-प्रशासन को यथा संभव चुनौती देने का प्रयास, सड़क पर संविधान एवं कानूनों के निर्धारण की परंपरा कायम करना, सनसनीखेज एवं अपुष्ट सूचनाओं के प्रसार द्वारा जनता को उत्तेजित या भड़काने का प्रयास करना आदि.
 
ऐसा नहीं था कि इससे पहले देश में सामाजिक कार्यकर्त्ता नहीं थे किंतु अन्ना आंदोलन ने देशभर में ऐसे ‘फुल टाइमर फोकटिया क्रांतिकारियों’ की जमात खड़ी कर दी जिन्हें सार्वजनिक  धन पर मुफ्तखोरी बड़ी रास आ रही है. इनकी सबसे बड़ी समस्या इनके हर समय चर्चा में बने रहने की सनक और ऐश्वर्यपूर्ण जीवन जीने की लिप्सा है, चाहे इसके लिए प्रयुक्त धन विदेशी सरकारों एवं एजेंसियों से मिले या देश विरोधी विघटनकारी शक्तियों से. अब चूकीं इनका पेशा ही यही है तो इन्हें निरंतर ऐसे मुद्दों की तलाश रहती है जहाँ सरकार के खिलाफ टकराव खड़े किये जायें, चर्चा हो, मिडिया का आकर्षण मिले, फंड आये इत्यादि. यहाँ न्यूनतम मेहनत में अधिकतम धन, नाम व शोहरत सब उपलब्ध है. विदेशों से राष्ट्रविरोधी सरकारों एवं संगठनों से ऐसे फंड का स्रोत भी बना ही रहता है.
वर्तमान में ये आंदोलनजीवी विभिन्न किस्मों में विभाजित है. जैसे भ्रष्टाचार वाले, यौन हिंसा वाले, जातिगत उत्पीड़न वाले, राजनीतिक प्रतिरोध वाले, संविधान बचाऊ, भगवाकरण-हिंदूराष्ट्र विरोध वाले, नारीवादी आदि-आदि. इसमें विश्वविद्यालयों के सेवानिवृत प्राध्यापक, असफल पत्रकार, गुमनाम से लेखक, निकृष्ट किस्म के वकील, तेजहीन-बौद्धिकताहीन सामाजिक कार्यकर्त्ता, छूटभइये किस्म के नेता एवं छात्र राजनीति में सक्रिय लम्पट किस्म के युवा जिन्हें श्रम से अर्जित धन के बजाय ‘ईजी मनी’ की चाह है.
 
आप सोशल मिडिया के विभिन्न हिस्सों यथा, फेसबुक, ट्विटर आदि में कईयों को अपने आपको ‘सोशल एक्टिविस्ट’ के रूप में प्रस्तुत करते देख सकते हैं. अब जिनका पेशा ही ‘सोशल एक्टिविज्म’ है तो उन्हें देश के किसी भी हिस्से में आंदोलन करने का बस बहाना चाहिए. प्रतीत होता है कि ये सुबह उठकर आंदोलन के मुद्दे तलाशते हैं ताकि आज कहाँ जुगाड़ हो सके. खादी या सूती का कुर्ता, गले में गमछा और कंधे पर झोला लटकाये पहुंच जायेंगे रोजगार की तलाश में.
इन आंदोलनजीवियों ने सड़कों पर ही अपनी अदालत लगाने एवं निजी विधानमण्डल बनाने की प्रथा प्रारम्भ की है. ये तय करने के प्रयास में लगे है कि देश में कौन ईमानदार है और कौन भ्रष्ट? क्या नैतिक हैं और क्या अनैतिक? कौन सा विधान जनता के लिए सही है? कौन पदासीन होगा और कौन नहीं?
हालांकि इन आंदोलनजीवियों में नवोन्मेषी भावना पर शक मत कीजिये. इन्होंने गाँधीवादी आंदोलनों की रणनीति को जस का तस नहीं स्वीकार किया है बल्कि हिंसा यानि उपद्रव, आगजनी, सार्वजनिक संपत्ति को जलाना, तोड़ना, लूटना, आम जनता को परेशान करना, सड़कें-रेल परिवहन बाधित करने से लेकर संसद भवन तक उपद्रवी मार्च एवं गणतंत्र दिवस या स्वतंत्रता दिवस पर हिंसात्मक हमले कर देश के राष्ट्रीय ध्वज को नुकसान पहुंचाने जैसे कई नवाचार जोड़ दिये हैं.
वैसे ये स्वयं को प्रचंड ज्ञानी समझते हैं. इन्हें कैमरे के सामने बात करते हुए देखिये, पचास-साठ तरीकों से शक्ल बनाकर ऐसे बात करेंगे जैसे पूरे देश को अंतिम बोध वाक्य से परिचित करा रहें हों. लेकिन यथार्थ में उतने ही ओछे और छिछले होते हैं. इन मुफ्तखोर आंदोलनकरियों की फ़ौज एक ऐसी ओछी एवं विघटनकारी परंपरा इस देश में शुरू कर चुकी है जो जनकल्याण एवं सरकार विरोध के नाम पर देश कों अस्थिर एवं नीति विहीन करने पर तुली है. इन आंदोलनजीवियों ने मुफ्तखोरी एवं विघटनवाद सिखाकर देश की एक पूरी नस्ल बर्बाद कर दी है.
 आलोचना-समालोचना अपनी जगह हैं. लेकिन इन भ्रष्ट तत्वों को यह आधारभूत समझ नहीं है कि यदि सारे फैसले सड़कों पर ही होने हैं तो फिर संविधान, क़ानून, अदालत, जाँच एजेंसियों और प्रशासन की क्या आवश्यकता है. जैसे कुश्ती संघ के विवाद को ही देखें. आंदोलनकारियों का रुख आश्चर्यपूर्ण है. सबूत नहीं, जाँच नहीं, बस आरोप के आधार पर हटाओ. भाई ये क्या जबरदस्ती है? क्या संविधान प्रदत्त अधिकार एकपक्षीय हैं? लोकतंत्र में फैसले क्या सरकार-प्रशासन को धमकाकर लिए जाएंगे?  मान लिया ब्रजभूषण सिंह अपराधी हैं तो उनकी दोषसिद्धि घोषित करने, दंडित करने का अधिकार किसे होना चाहिए, भारतीय संविधान पर आधारित अदालतों को या मध्ययुगीन रूढ़ियों पर आधारित खाप पंचायतों को. इस बात पर किसी को आपत्ति नहीं है कि जाँचोपरांत यदि वे दोषी पाये जाते हैं उन्हें कठोर दंड मिले किंतु इसके लिए विधिसम्मत प्रक्रिया अपनाई जानी चाहिए.
यदि ऐसे तौर-तरीकों से सरकार पर फैसले लादे जाने लगे तो क़ल को कोई भी हजार-दस हजार की भीड़ के साथ सार्वजनिक जीवन को बाधित कर एवं उपद्रव द्वारा मनमाने निर्णय की माँग करे तब कैसी अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो सकती है? यदि धरने पर बैठी भीड़ सड़क पर क़ानून बनाने लगे, यदि चौराहे पर उत्तेजित भीड़ न्याय करने लगे तो संसद और न्यायपालिका की आवश्यकता ही क्या है? नागरिक अधिकारों के प्रति जागरूकता का अर्थ ये तो नहीं कि देश को अराजकता की रणभूमि बना दिया जाये.
 आज आंदोलनजीविता भारतीय समाज का वो नासूर बनता जा रहा है जो देश को दुर्दमय अराजकता एवं भविष्य में एक कठिन आतंरिक संघर्ष की ओर धकेल रहा है.जो लोग अपने निजी स्वार्थोँ हेतु आज इन कुप्रवृतियों को समर्थन दे रहें हैं उन्हें नहीं भूलना चाहिए कि सड़क पर न्याय और कानूनी कार्यवाही की सनक से पैदा वर्ग एक दिन उनकी भी आवाज़ इसी तरह दबा देगा क्योंकि अराजकता प्रश्रय पाने के बाद केवल अनियंत्रित ही होती है.
 हालांकि एक अजीब बात है. इन सस्ते आंदोलनकारियों को आप कभी भी वनवासी बंधुओं या आपदा पीड़ितों की सेवा में तत्पर नहीं देखेंगे. ना ही ये कभी शहीद सेना, अर्द्धसैनिकों या पुलिसवालों की शवयात्रा या उनके परिवार के साथ खड़े देखेंगे क्योंकि इन्हें वहां शराब-शबाब और कैमरे की तवज्जो नहीं मिलती. लेकिन ये आतंकी-देश विरोधी गद्दारों और सनातन विरोधी विदेशियों के साथ बड़े सहज नजर आते हैं. देश में ही नहीं बल्कि दुनिया में कहीं भी सनातन धर्म और भारत विरोधी सम्मेलन हो रहा हो वहां ये पूरी ठसक के साथ उपस्थित रहते हैं. चूकीं भारत की एकता और अखंडता का मूल तत्व सनातन धर्म एवं संस्कृति है इसलिए ये सारे आंदोलनजीवी प्रमाणिक रूप से सनातन धर्म विरोधी होते हैं और उस विरोध में राष्ट्रविरोध की हद तक जाने में भी संकोच नहीं करते.
 इन आंदोलनजीवियों के फर्जी नैतिकता से जो संदेश समाज को जा रहा है वह यही है सनातन धर्म-संस्कृति, हिंदुत्व, संघ, भाजपा को कोसना ही गाँधीवादी या समाजवादी होना है. देश और समाज के लिए विघटनकारी मामलों को उठाइये. राष्ट्रविरोधी तत्वों का सानिध्य प्राप्त कीजिये. किसी भी विकासात्मक परियोजना का कट्टर विरोध करिये. यकीन मानिये जीवन में भोग अतिरेक की लालसा कभी भी अतृप्त नहीं रहेगी. सुरा-सुंदरी, शराब-शबाब-कबाब से लेकर चार पहिया वाहन और विदेश यात्रा तक किसी भी चीज की कमी नहीं रहेगी. और यदि आपने खुद को उच्च कोटि का राष्ट्रविरोधी तत्व साबित कर दिया, भले ही निकृष्टता के निम्नतम स्तर तक जाना पड़े, तो कोई विदेशी पुरस्कार भी लपक सकते हैं. गाहेबगाहे संसद या विधानसभा पहुंचने का जुगाड़ लग सकता है. यदि वह ना भी मिले तो किसी समिति या राष्ट्रीय महत्व के संस्थान में कोई पद तो झटक ही सकते हैं.
 इन आंदोलनजीवियों को समझना चाहिए कि वास्तविक आंदोलन सामाजिक चेतना के गर्भ से उभरते हैं. वे लक्ष्य और सिद्धांतों में पुष्ट होते हैं. वे लेशमात्र भी अवसरवादी नहीं होते.उनमें जितनी आमूलचूल परिवर्तन की जिज़ीविषा होती है उतनी ही निजी आकांक्षाओं के प्रति निस्पृहता. अतः निर्लज्जता एवं कुंठा की सर्वोच्चता की ओर अग्रसर इन सभी छिछले मुफ्तखोर छद्म बुद्धिजीवी वर्ग को ‘सापेक्षवादी’ बनने की जरुरत है ताकि जीवन में स्वकल्याण से उठकर सर्वजन कल्याण एवं सामाजिक संयोजन की भावना विकसित कर सकें.
 जैसा कि नेताजी सुभाषचंद्र बोस इसे परिभाषित करते हैं, ‘सापेक्षतावाद से मेरा अभिप्राय है कि जिस सत्य को हम जानते हैं या जिसे सत्य मानते हैं, वह पूर्ण या वास्तविक सत्य नहीं है, बल्कि उसके जैसा या सापेक्ष है. वह उसी अनुपात में सत्य है जिस अनुपात में हमारी चेतना उसे ग्रहण कर पा रही है और यह अनुपात हमारी चेतना में बदलाव के साथ-साथ बदलता जाता है. कहने का अर्थ यह कि जैसे-जैसे हमारी चेतना विकसित होती जाती है, वैसे ही वैसे हम सत्य के परमात्मा के करीब पहुँचते जाते हैं.’ इन आंदोलनजीवियों को मित्रवत सलाह है कि कृपया अपनी चेतना को विकसित करें ताकि सत्य को समझ पाये और देश एवं समाज को अस्थिरता की ओर ना धकेलने से बाज आये.

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