समान नागरिक संहिता समय की मांग

प्रज्ञा संस्थानभारतीय संविधान के चतुर्थ अध्याय में अनुच्छेद 36 से 51 तक राज्य के नीति- निर्देशक सिद्धान्तों का प्रावधान है, जिन्हें अनुच्छेद 38 द्वारा नींव का पत्थर घोषित किया गया है। अनुच्छेद 37 में यद्यपि इन निर्देशक सिद्धांतों को वाद-निरपेक्ष माना गया है अर्थात् इनको लागू न करने पर न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती किन्तु इसी अनुच्छेद में यह भी घोषणा की गई है कि ये निर्देशक सिद्धांत देश के शासन में मूलभूत आधार हैं और कानून बनाने में इन सिद्धांतों का प्रयोग करना राज्य का कर्तव्य होगा।

न्यायमूर्ति के.एस. हेगड़े ने ठीक ही लिखा है, “यदि कोई सरकार इन निर्देशक सिद्धांतों की अवहेलना करती है तो उसे चुनाव के समय मतदाताओं को निश्चित रूप से जवाब देना होगा।’ न्यायमूर्ति एम.सी. छागला ने नीति-निर्देशक सिद्धांतों को महत्वपूर्ण बताते हुए लिखा है, “यदि इन सिद्धांतों को लागू कर दिया जाए तो हमारा देश वास्तव में धरती पर स्वर्ग बन जाएगा।’ वाद-निरपेक्षता के कारण नीति-निर्देशक सिद्धांतों का महत्व कम नहीं हो जाता। यही नहीं सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक निर्णय में राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों को मूल अधिकारों से अधिक महत्वपूर्ण माना है। इन सिद्धांतों के महत्व को स्वीकार करते हुए संविधान के अनुच्छेद 41, 42, 43, 45, 46, 49 तथा 50 को अधिकांश रूप में लागू कर दिया गया है किन्तु दुर्भाग्यवश वोट की राजनीति के कारण अभी तक अनुच्छेद 44 (समान नागरिक संहिता), अनुच्छेद 47 (नशाबन्दी) तथा अनुच्छेद 48 (गो हत्या पर प्रतिबंध) को लागू नहीं किया जा सका है।

संविधान के अनुच्छेद 44 में प्रावधान है कि राज्य सम्पूर्ण देश में “समान नागरिक संहिता’ लागू करने का प्रयास करेगा अर्थात् सभी के लिए निजी कानून एक जैसे होंगे। निजी कानूनों से अभिप्राय उन कानूनों से है, जो निजी मामलों में लागू होते हैं। जैसे विवाह, तलाक, उत्तराधिकार आदि। परतंत्र भारत में हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, पारसी आदि सभी समुदायों में भेदभाव पूर्ण दमनकारी, क्रूर व अन्यायकारी निजी कानून प्रचलित थे। हिन्दू समाज में शिक्षा-प्रसार व समाज-सुधार आंदोलनों के फलस्वरूप बहु-विवाह, बाल-विवाह व सती प्रथा तथा विधवा विवाह निषेध के विरुद्ध 1956 में हिन्दू-कोड बिल लागू हुआ। ईसाई व पारसी समुदायों में भी त्रुटिपूर्ण निजी कानूनों में सुधार हुआ किन्तु मुसलमानों में आज भी दकियानूसी, दमनकारी व भेदभावपूर्ण कानून लागू हैं। वास्तव में विभिन्न समुदायों में प्रचलित अंधवि·श्वासों, कुरीतियों एवं मध्यकालीन रूढ़िवादी परम्पराओं को धर्म के ठेकेदारों द्वारा धार्मिक आवरण पहनाकर उनको अपरिवर्तनीय निजी कानून घोषित कर दिया गया है। इसलिए संविधान निर्माताओं ने समतामूलक समाज और पंथनिरपेक्ष शासन की स्थापना हेतु एवं राष्ट्रीयता की चेतना तथा देश में भावनात्मक एकता के विकास के लिए “समान नागरिक संहिता’ का प्रावधान किया।

भारत के अतिरिक्त संसार में ऐसा कोई देश नहीं है, जहां अलग-अलग सम्प्रदायों व वर्गों के लिए अलग-अलग कानून विद्यमान हों। अमरीका व अन्य पश्चिमी देशों में पूर्णतया समान नागरिक संहिता लागू है, जहां बड़ी संख्या में मुसलमान व अन्य अल्पसंख्यक वर्गों के लोग रहते हैं। अनेक प्रगतिशील मुस्लिम देशों यथा मिस्र, सीरिया, तुर्की, मोरक्को, इंडोनेशिया व मलेशिया, यहां तक कि पाकिस्तान में भी बहुपत्नीवाद, मौखिक तलाक तथा पुरुष-प्रधान उत्तराधिकार आदि के मामलों में भेदभावपूर्ण व दमनकारी कानून बदल दिए गए हैं और उनको उदार व मानवीय बनाया गया है।

पाकिस्तान के सर्वोच्च न्यायालय ने अपने 20 दिसम्बर, 2003 के महत्वपूर्ण निर्णय में मुस्लिम लड़कियों को अपनी मर्जी से विवाह करने की स्वतंत्रता प्रदान की है किन्तु हमारे देश में अल्पसंख्यकों के संरक्षण के नाम पर आज भी महिलाओं को अन्याय, दमन व पीड़ा सहनी पड़ रही है। वस्तुत: आज सभी संप्रदायों के निजी कानून पुरुष प्रधान हैं। हिन्दुओं में पिता की सम्पत्ति में पुत्री का कोई अधिकार नहीं है। फलस्वरूप अनेक स्त्रियों को दहेज न मिलने पर जला दिया जाता है या मार दिया जाता है। मुसलमानों में पुरुष की गवाही दो महिलाओं की गवाही के बराबर मानी जाती है। ईसाइयों में कोई भी स्त्री अपने चरित्रहीन पति को तलाक नहीं दे सकती, क्योंकि ईसाई निजी कानून में चरित्रहीनता तलाक का कोई कानूनी आधार नहीं है।

पाकिस्तान के जनक मोहम्मद अली जिन्ना के आग्रह पर 1937 में मुसलमानों के लिए अलग से शरीयत कानून बना जिसके परिणामस्वरूप द्विराष्ट्र सिद्धांत की नींव पड़ी और भारत का दुर्भाग्यपूर्ण विभाजन हो गया। इस अधिनियम में यह भी प्रावधान किया गया है कि जो मुसलमान इस कानून को बाध्यकारी स्वीकार करने के लिए राज्य के सम्बंधित अधिकारी को यह शपथपत्र देगा कि वह और उसके वारिस इस कानून (शरीयत) को अनिवार्य रूप से मानने के इच्छुक हैं, तभी शरीयत कानून उस मुसलमान और उसके परिवार पर लागू होगा। अत: शरीयत का कानून पूर्णतया ऐच्छिक है, बाध्यकारी नहीं।

 

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