विश्वास-मत तो मिला था ! पर किस कीमत पर ?

के .विक्रम रावयह फसाना (दास्तां) है दो विश्वास मत वाले प्रस्तावों की। दोनों घटनाओं में पंद्रह साल का फासला है। महीना वही जुलाई (22 जुलाई 2008) का था। भाजपा और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट एक साथ थे। निशाने पर थी सरदार मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार। उस पर एक नजर डालें तो अहसास पक्का हो जाता है कि सियासत में अनजाने भी हमबिस्तर हो जाते हैं। यहां तर्जनी सोनिया-मनमोहन सिंह की ओर इशारा करती। इस जोड़े ने साबित कर दिया था कि सत्ता की स्वार्थ साधना ही सम्पूर्ण सैद्धांतिकता है। तुलना में उसके अगले सप्ताह का विश्वास मत ही शुद्ध सैद्धांतिक होगा गया था। मगर मणिपुर भिन्न है। वह मानवता का प्रश्न है। मणिपुर की नस्लवादी, संकीर्ण, हिंसक सरकार ने विश्व इतिहास के क्रूर सत्तानशीनों की दीर्घा में अपना स्थान निश्चित करा लिया है।
 सम्यक विवेचना करें तो पता चलेगा कि सरदार मनमोहन सिंह ने 2008 में जिस कुरीति, षड्यंत्र और बेहूदगी से सत्ता पकड़े रखी थी उसकी मिसाल संसदीय इतिहास में नहीं मिलेगी। राजनीतिक इतिहास का शोधकर्ताओं के लिए यह अध्ययन का विषय है। यह अब अधिक प्रासंगिक हो जाता है क्योंकि कल (26 जुलाई 2023) ही राज्य सभा में सोनिया-कांग्रेस के पूर्व सांसद, दैनिक “लोकमत” के मालिक विजय दर्दा, सुपुत्र विजय समेत, कोयला कांड में लूटखसोट के अपराध में दिल्ली अदालत से चार वर्ष की सजा पा चुके थे। उन पर सरदार मनमोहन सिंह की विशेष अनुकंपा रही। विशेष न्यायाधीश ने दर्दा बंधु पर पंद्रह लाख का जुर्माना भी लगाया है। सीबीआई ने सात साल की सजा की मांग की थी। दर्दा कांड से कांग्रेस सरकार डगमगा गई थी। छत्तीसगढ़ में कोयलों के खदानों की नीलामी का प्रकरण था। लेखा परीक्षक (कैग) ने दस लाख करोड़ रुपए का घोटाला पकड़ा था।
राजकोष की व्यापक लूट के सिलसिले में तब मनमोहन सरकार कटघरे में खड़ी थी। सोनिया गांधी की वह कृपापात्र थी। मगर मुद्दा विश्वास मत का था। भारत-अमेरिका परमाणु संधि जिसका स्वाभाविक रूप से कम्युनिस्ट सांसद विरोध कर रहे थे। जैसा अपेक्षित था। मगर वे सब भी दुविधा में थे। तब संप्रग सरकार ने माकपा वरिष्ठ सांसद सोमनाथ चटर्जी को लोकसभा अध्यक्ष बनवाया था। हिंदु महासभा के संस्थापक निर्मलचंद्र चटर्जी के बेटे सोमनाथ कट्टर कम्युनिस्ट और चीन-परस्त रहे। उन्होंने माकपा सचिव प्रकाश करात के आग्रह को ठुकरा दिया कि वे सरदार मनमोहन सिंह-सोनिया गांधी का साथ छोड़ दें। अमेरिका के साथ हुई परमाणु संधि को सदन में गिरवा दें। पर बाबू सोमनाथ चटर्जी ने स्पीकर का आसन भी नहीं छोड़ा। डटे रहे।
 जब सदन में दलों की नाकेबंदी हो रही थी तो दलीय गठजोड़ अजीबों गरीब था, बल्कि नरवानर की टोली जैसी थी। हिंदूवादी और मार्क्सवादी की गलबहियां हुई थी। संसदीय इतिहास में इतनी निम्नतम बिंदु तक सदन कभी नहीं गिरा था। दो दिन तक बहस चली। सांसदों का वोट बटोरने हेतु मनमोहन सिंह-सोनिया ने कोई कसर नहीं छोड़ी। यहां तक एक सांसद थे जिनका वोट पाने के लिए एक विमान पत्तनम का नाम उनके स्वर्गीय पिता के नाम कर दिया गया। अस्पताल के बिस्तर से एक रोगी सांसद को सशरीर सदन में लाया गया। नामी माफिया सांसद आतंकी अतीक अहमद (अल्लाह उन्हें जन्नत बख्शे) को जेल से छुड़वा कर संसद में लाया गया। मुलायम सिंह यादव के सांसद ठाकुर अमर सिंह कि किरदारी गजब की रही। आरोप था कि भाजपा के कुछ सांसदों को खरीद लिया गया था। मगर दांव उल्टा पड़ा। इन लोगों ने हरे नोटों का बंडल सदन में लहराया और बताया कि खुल्लम-खुल्ला खरीद फरोख्त चालू की गई है। कम्युनिस्ट पार्टी का समर्थन इस विश्वास मत के विरुद्ध देने के कारण तो समझ में आया था। अमेरिका के वे जन्मजात विरोधी रहे। अपनी आत्मकथा “द्रोहेकाल का पथिक” में बिहार के सांसद पप्पू यादव ने लिखा था कि जुलाई 2008 में उन्हें भाजपा और कांग्रेस ने चालीस करोड़ की रिश्वत अलग-अलग देने की पेशकश की थी। उस वर्ष 2008 में लोकसभा में संप्रग सरकार और सरकार मनमोहन सिंह के समर्थन में जो हरकतें हुई वैसा उदाहरण विश्व संसदीय इतिहास में नहीं मिलता। नतीजन सरकार बच गई। विश्वास मत पा गई। सवाल था किन शर्तों के आधार पर ?
 यह मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार का पहला विश्वास मत था। सहयोगियों की मदद से इसे जीत लिया। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार ने अमेरिका के साथ परमाणु समझौते पर हस्ताक्षर किए, जिससे भारत के नागरिक परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम में एक नया, ऐतिहासिक अध्याय खुल गया। विश्वास मत का अत्यधिक राजनीतिक महत्व भी था। वाम दलों ने कांग्रेस से नाता तोड़ लिया। इसके बाद वामपंथ का पतन शुरू हो गया। मनमोहन सिंह नेहरू-गांधी परिवार के बाहर से अब तक के एकमात्र प्रधान मंत्री बने जिन्होंने कार्यालय में लगातार दो कार्यकाल पूरे किए। विश्वास मत के बाद की राजनीतिक स्थिति ऐसी थी, जहां संभवतः पहली बार विदेश नीति के मुद्दे प्रमुख चुनावी मुद्दों में से एक बन गए थे।

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