शिक्षा के नाम पर सिर्फ राजनीति

 

बनवारी

छात्र आंदोलन कोई नई बात नहीं है। भारत ही नहीं दुनियाभर में छात्र आंदोलन होते रहे हैं। उनका राजनैतिक उपयोग भी कोई नई बात नहीं है। इंदिरा गांधी के शासनकाल में देश के अधिकांश विश्वविद्यालय सत्ता विरोधी राजनीति का अड्डा बने हुए थे। उन छात्र आंदोलनों से उभरे अनेक युवा नेता आज कई राजनैतिक दलों के शीर्ष पर हैं। भारत ही नहीं दुनियाभर में छात्रों के आंदोलन से सत्ताएं भी बदलती रही हैं। लेकिन इस समय जो हो रहा है, वह छात्र राजनीति नहीं है, वह मात्र राजनीति है। इस राजनीति का आधार भारत को एक राष्ट्र के रूप में अपनी सभ्यतागत पहचान स्थापित करने से रोकना है। यह संयोग नहीं है कि इस राजनीति के आधार पर देश के चार बड़े विश्वविद्यालयों में उबाल देखने को मिल रहा है।

वे हैं जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, जामिया मिलिया, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और जादवपुर विश्वविद्यालय। इनमें दो वामपंथी विचारधारा के गढ़ हैं और दो मुस्लिम राजनीति के। इन चारों विश्वविद्यालयों का लंबे समय से राजनीतिक दुरुपयोग हो रहा है। इसमें मुख्य भूमिका वहां पढ़ाने वाले अध्यापकों के एक वर्ग की है। यह वर्ग वैचारिक आग्रहों के आधार पर संगठित है। इसलिए उनके द्वारा छात्रों को प्रभावित करना आसान होता है। यह सभी विश्वविद्यालय साधनों के मामले में संपन्न है। वे देशभर के कुशाग्र छात्रों को आकर्षित करने में सफल होते हैं। इन विश्वविद्यालयों पर देश में शिक्षा पर होने वाले व्यय का बड़ा हिस्सा खर्च होता है। वे छात्रों को उदारतापूर्वक छात्रवृत्ति उपलब्ध करवा सकते हैं। इसलिए वैचारिक आधार पर संगठित शिक्षकों को छात्रों पर अपना प्रभाव जमाने का और आसानी से अवसर मिल जाता है।

जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, जामिया मिलिया, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और जादवपुर विश्वविद्यालय राजनीति के गढ़ बन गए हैं। इसमें मुख्य भूमिका वहां वैचारिक आग्रहों के आधार पर संगठित अध्यापकों के एक वर्ग की है।

इन सभी विश्वविद्यालयों में वैचारिक आग्रह अकसर दुराग्रहों में बदलते रहते हैं। उनमें भिन्न विचारधारा वाले अध्यापकों और छात्रों के प्रति गहरी असहिष्णुता देखी जा सकती है। वे दूसरी विचारधारा वाले लोगों को अपने यहां बोलने तक नहीं देते। कई बार देश के महत्वपूर्ण और शीर्षस्थ पदों पर बैठे लोगों का भी वहां जाना दूभर कर दिया जाता है। इन सभी विश्वविद्यालयों में एक तरह का शैक्षिक माफिया पैदा हो गया है जो किसी दूसरी विचारधारा को पनपने नहीं देता। वामपंथी विचारधारा जहां भी फली-फूली है, उसने दूसरी किसी विचारधारा को पनपने नहीं दिया। यही स्थिति इस्लाम के नाम पर चलने वाली राजनीति की है। यह दोष मूलत: हमारे नीतिकारों का है कि उन्होंने इन सभी विश्वविद्यालयों को वामपंथियों का या अल्पसंख्यक राजनीति का अड्डा बनने दिया। विश्वविद्यालयों को खुली दृष्टि से दुनिया को समझने और अपनी सभ्यता को आगे बढ़ाने का माध्यम होना चाहिए। अंग्रेजों ने बीसवीं सदी के आरंभ में हिन्दू और मुस्लिम विधि व्यवस्था को समझने के लिए उनके अलग-अलग शिक्षा केंद्रों की नींव डाली थी। हमने अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा के नाम पर मुस्लिम विश्वविद्यालयों का प्रचलन किया। इसी तरह कांग्रेस के वामपंथी रोमांस के कारण जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय वामपंथियों का अड्डा हो गया।

जादवपुर विश्वविद्यालय भी वामपंथियों का गढ़ रहा है। उसके इस स्वरूप को दृढ़ करने में कांग्रेस की आरंभिक सरकारों, मार्क्सवादी सरकारों और तृणमूल सरकार, सभी का योगदान रहा है। यह सभी विश्वविद्यालय इस अवस्था में पहुंच गए हैं कि वहां शिक्षा के नाम पर सिर्फ राजनीति होती है। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में इस समय जो आंदोलन हो रहा है, उसकी शुरूआत भले छात्रावास के शुल्क में की गई वृद्धि से हुई हो, लेकिन इस आंदोलन का स्वरूप शुरू से राजनैतिक ही रहा है। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय को देश के दूसरे विश्वविद्यालयों से अधिक साधन उपलब्ध हैं। वहां मिलने वाली छात्रवृत्तियों की संख्या कम नहीं है। उसके बाद भी छात्रावास जैसी सुविधाएं नाममात्र के शुल्क पर उपलब्ध थीं। यह सुनकर आश्चर्य होता है कि अब तक वहां छात्रावास के एक पूरे कमरे का किराया 20 रुपये महीना था और दो छात्रों को दिए जाने वाले कमरे का किराया 10 रुपये। उसे बढ़ाकर क्रमश: 600 और 300 किया जाना आंदोलन का आधार हो गया। बाद में बढ़ी हुई राशि को घटाकर आधा कर दिया। उसके बाद भी छात्र अपनी मांग छोड़ने के लिए तैयार नहीं हुए। छात्रावास के कमरों के किराये में वृद्धि का आंदोलन छात्रावासों तक सीमित नहीं था। छात्रावास के पदाधिकारियों ने विश्वविद्यालय की सामान्य गतिविधि रोकने की कोशिश की। 3 जनवरी को उन्होंने मुखौटे पहनकर नए सत्र की पंजीकरण की प्रक्रिया रोकने के लिए कार्यालय में घुसकर तोड़फोड़ की।

जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय को यहां के वामपंथी शिक्षकों ने एक मार्क्सवादी मदरसे में बदल दिया है। उसमें शिक्षा का अर्थ खुली आंख और खुले दिमाग से दुनिया को समझना और देखना नहीं रह गया है।

कंप्यूटरों को नुकसान पहुंचाया और मारपीट की। अगले दिन जब फिर पंजीकरण की प्रक्रिया शुरू हुई तो मुखौटा पहने हुए छात्र संघ के पदाधिकारियों के नेतृत्व में फिर ऐसा ही किया गया। विश्वविद्यालय के बहुसंख्यक छात्रों को जबरन पंजीकरण से रोकना उन सब लोगों को अपराध नहीं लगा, जो आज 5 जनवरी की घटना को मुद्दा बनाए हुए हैं। पांच जनवरी से पहले उत्पाती छात्रों के हाथ में भी डंडे थे और उन्होंने भी मुखौटा पहना हुआ था। पांच जनवरी को जो दंगाई जबरन विश्वविद्यालय में घुसे और छात्रावासों में घुसकर छात्रों को डंडों और लाठियों से पीटा, उन्होंने भी मुखौटे पहन रखे थे। ये दोनों ही वर्ग हिंसा के दोषी थे और दोनों की ही आलोचना होनी चाहिए थी। यह दुर्भाग्य की बात है कि जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में एक तरह की गैंगवार हुई। लेकिन उसके लिए केवल एक पक्ष को दोषी ठहराना गलत है। यह वही विश्वविद्यालय है, जिसमें 2016 में संसद पर किए गए हमले के अपराधियों को फांसी देने का विरोध हुआ था और देश के टुकड़ेटुकड़े होने के नारे लगे थे। उस विरोध-प्रदर्शन में जो लोग शामिल हुए थे, वे आज भी राजनैतिक हीरो बने घूम रहे हैं और वामपंथियों के लाडले बने हुए हैं। वामपंथियों का भारत में यह इतिहास रहा है कि उन्होंने हमेशा देश विरोधी शक्तियों का साथ दिया है। स्वतंत्रता आंदोलन के समय कम्युनिस्टों ने मुस्लिम लीग का समर्थन किया था। 1962 में चीन ने भारत पर हमला किया। उसके बाद मार्क्सवादियों के जुलूस में माओ की तस्वीरें दिखाई दीं और चेयरमैन माओ जिंदाबाद के नारे लगे। मार्क्सवादी यह तक मानने को तैयार नहीं थे कि चीन ने भारत पर हमला किया है। उनकी टेक यही थी कि कम्युनिस्ट देश किसी पर हमला नहीं करता। जबकि कम्युनिस्ट देशों का दूसरे कम्युनिस्ट देशों तक पर हमला हुआ है।

किसी भी व्यक्ति को यह बात अजीब लग सकती है कि कम्युनिस्ट एक गैर कम्युनिस्ट देश में अभिव्यक्ति की आजादी चाहते हैं, जबकि किसी कम्युनिस्ट शासन में लोगों को अभिव्यक्ति की आजादी नहीं दी जाती। रूस और चीन में पिछली शताब्दी में किसानों और कामगारों पर जितने अमानुषिक अत्याचार हुए हैं, उतने पूंजीवादी देशों में भी नहीं हुए। फिर भी वामपंथियों को पश्चिमी देश नर्क दिखाई देते हैं और कम्युनिस्ट देश स्वर्ग। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय की समस्या यह है कि वहां के वामपंथी अध्यापक भारतीय जनता पार्टी के शासनकाल में नियुक्त एक गैर-मार्क्सवादी उपकुलपति को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं। विश्वविद्यालय के वर्तमान कुलपति जगदीश कुमार की शैक्षिक योग्यता पर उंगली नहीं उठाई जा सकती। उनके विरुद्ध विश्वविद्यालय के वामपंथियों ने 2016 में ही मोर्चा खोल दिया था, क्योंकि उन्होंने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के सात वर्ष पुराने निर्देश को लागू करते हुए यह नियम बनाने की कोशिश की थी कि कोई शिक्षक अनगिनत शोध छात्रों को अपने साथ संलग्न नहीं कर सकता।

यह देखकर किसी को भी आश्चर्य होगा कि यहां के वामपंथी अध्यापक अपने साथ 40-50 शोध छात्रों को संलग्न किए रहे हैं। दुनिया में ऐसा कहीं नहीं होता। एक शिक्षक अधिक से अधिक तीन-चार शोध छात्रों का ही मार्गदर्शन कर सकता है। लेकिन इन सब बातों पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फैला वामपंथी बुद्धिजीवियों का गिरोह उत्तेजित नहीं होता। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय को यहां के वामपंथी शिक्षकों ने एक मार्क्सवादी मदरसे में बदल दिया है। उसमें शिक्षा का अर्थ खुली आंख और खुले दिमाग से दुनिया को समझना और देखना नहीं रह गया है। उसमें शिक्षा का अर्थ अपने समाज और देश के हित की चिंता नहीं रह गया है। वह एक ऐसा विश्वविद्यालय हो गया है, जहां मार्क्सवादी विचारधारा के बाहर देखने की छूट नहीं है। यहां के छात्र अपनी स्वेच्छाचारी जीवनशैली के लिए विख्यात हैं। उनके आंदोलन का पहला उद्देश्य देश को दुनियाभर में बदनाम करना होता है। इस तरह की प्रवृत्तियों को कोई भी सभ्य समाज और देश बर्दाश्त नहीं कर सकता।

 

 

 

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