सामरिक चुनौती की और उपेक्षा नहीं

 

बनवारी

चीन हमारे लिए गंभीर सामरिक चुनौती बन गया है। तिब्बत पर कब्जा करके वह हमारी सीमाओं को असुरक्षित कर ही चुका है। पाकिस्तान से उसकी दोस्ती का आधार भी भारत को चारों ओर से घेरना ही अधिक है।

चीन ने एक बार फिर यह सिद्ध कर दिया है कि जम्मू-कश्मीर के मामले में वह पूरी तरह पाकिस्तान के साथ है। पिछले महीने जब भारत ने अनुच्छेद 370 समाप्त करके जम्मू-कश्मीर के विशेष होने का भ्रम तोड़ा था, तो चीन ने सावधानी बरतते हुए प्रतिक्रिया दी थी। आरंभ में उसने इसे भारत का आंतरिक मामला बताते हुए सिर्फ इतना कहा था कि अक्साई चिन को लेकर की गई भारत के गृहमंत्री अमित शाह की टिप्पणी को वह स्वीकार नहीं करता। उसके बाद उसने लद्दाख को भारत और चीन के बीच का विवादास्पद क्षेत्र बताते हुए उसे केंद्रशासित प्रदेश बनाए जाने का विरोध किया। उसकी इस प्रतिक्रिया से प्रेरित होकर पाकिस्तान ने अपने विदेश मंत्री को चीन की यात्रा पर भेजा। पाकिस्तान के विदेश मंत्री की चीन यात्रा के बाद ही वह इस पूरे मामले में काफी सक्रिय हुआ है।

उसने सुरक्षा परिषद को जम्मूकश्मीर के मामले पर विचार करने के लिए विवश किया। वह खुली बैठक चाहता था, लेकिन सुरक्षा परिषद के सदस्य इसके लिए तैयार नहीं हुए और बंद कमरे में एक अनौपचारिक बैठक हुई। उस बैठक में चीन सुरक्षा परिषद के सदस्यों को कोई औपचारिक प्रस्ताव पास करने के लिए तैयार नहीं कर पाया। इस असफलता के बावजूद वह पाकिस्तान की पीठ थपथपाने में लगा हुआ है। यह चीन के विदेश मंत्री वांग यी की हाल की पाकिस्तान यात्रा के बाद जारी किए गए संयुक्त वक्तव्य से स्पष्ट है। वांग यी दो दिन की पाकिस्तान यात्रा पर गए थे। उसके बाद उन्हें सीमा विवाद संबंधी बैठक के लिए भारत आना था।

भारत को पाकिस्तान यात्रा के बाद उनका इस बैठक के लिए भारत आना ठीक नहीं लगा। इसलिए भारत ने उनकी यात्रा की तिथियां बदले जाने की मांग की। यह भांप कर कि भारत जम्मू-कश्मीर के मामले में चीन के रुख से नाराज है और इस माहौल में सीमा विवाद पर कोई सार्थक बात नहीं हो सकती चीन के विदेश मंत्री ने अपनी प्रस्तावित यात्रा रद्द कर दी। भारत ने चीन के विदेश मंत्री की पाकिस्तान यात्रा की समाप्ति पर जारी किए गए वक्तव्य को लेकर कड़ी आपत्ति की है। इस संयुक्त वक्तव्य में चीन की ओर से यह दोहराया गया था कि वह जम्मू-कश्मीर के मामले में पाकिस्तान के साथ है और भारत की एकतरफा कार्रवाई का विरोध करता है।

भारत ने इसे अपने आंतरिक मामले में अनुचित हस्तक्षेप बताते हुए उस पर कड़ा विरोध जताया है। लेकिन चीन के व्यवहार से हमें यह समझ में आ जाना चाहिए कि जम्मूकश्मीर के मामले में हमें केवल पाकिस्तान से ही नहीं निपटना, हमें चीन से भी निपटने के लिए तैयार रहना होगा। इस समय जम्मू-कश्मीर का लगभग 20 प्रतिशत क्षेत्र चीन के कब्जे में है। चीन अक्साई चिन में हमारी 38 हजार वर्ग किलोमीटर भूमि पर अनाधिकृत कब्जा जमाए हुए है। इसके अलावा उसके पास जम्मू-कश्मीर की शम्सगाम घाटी में हमारी 5800 वर्ग किलोमीटर भूमि है। चीन और पाकिस्तान दोनों शुरू से ही हमारी सामरिक चुनौती बने हुए है।

1947 में जम्मू-कश्मीर पर किए गए पाकिस्तानी हमले को तो लगातार याद किया जाता रहा है। लेकिन 1950 में चीन ने शिनजियांग और तिब्बत के बीच भारतीय भू-भाग से होकर सड़क बनाने का निर्णय करके भारत की सुरक्षा को जो बड़ा खतरा पैदा कर दिया था, उसे अक्सर भुलाए रखा जाता है। अक्साई चिन पर चीन के कब्जे को भी उस समय की नेहरू सरकार ने पर्याप्त गंभीरता से नहीं लिया था। अगर हमने अपनी सीमाओं की ठीक से सुरक्षा की होती तो आज चीन और पाकिस्तान की सीमाएं नहीं मिल रही होतीं। अब तक पाकिस्तान को लेकर हमारी नीति सुरक्षात्मक ही रही है। वह जम्मू-कश्मीर में आतंकवादी भेजकर उसे न केवल अस्थिर बनाए रहा, बल्कि अपनी आक्रामक रणनीति के जरिए वह जम्मू-कश्मीर के भारतीय नियंत्रण वाले क्षेत्र को ही परस्पर विवाद का मुद्दा बताता रहा। हम दुनिया को यह नहीं समझा पाए कि विवाद का क्षेत्र भारतीय नियंत्रण वाला जम्मू और कश्मीर नहीं है। पाकिस्तान के नियंत्रण वाला जम्मू और कश्मीर है। हम चीन और पाकिस्तान की इस दुरभिसंधि पर भी दुनिया का ध्यान केंद्रित नहीं कर पाए, जिसके अंतर्गत जम्मू-कश्मीर के अपने अनाधिकृत कब्जे वाले क्षेत्र से भारतीय भूमि पाकिस्तान ने चीन को सौंप दी थी। यह अंतरराष्ट्रीय संधियों और मर्यादाओं का सरासर उल्लंघन था।

लेकिन हम केवल औपचारिक बयान देकर चुप बैठे रहे। अब पहली बार हम कुछ दृढ़ता से यह कह रहे हैं कि पाकिस्तान से आगे बातचीत केवल उसके अनधिकृत नियंत्रण वाले जम्मू-कश्मीर पर ही होगी। भारत के इस नए संकल्प को रक्षामंत्री राजनाथ सिंह कई बार दोहरा चुके हैं। गृहमंत्री अमित शाह ने भी संसद के भीतर और बाहर इसे दोहराया है। अभी इसे भारत की एक कूटनीतिक मुद्रा के रूप में ही देखा जा रहा है। पर यह भारत की नीति में एक निर्णायक परिवर्तन है। इसे दुनिया को समझाने के लिए हमें औपचारिक वक्तव्य से आगे जाना होगा। अब तक हमारी नीति सुरक्षात्मक थी और पाकिस्तान व चीन निरंतर आक्रामक नीति अपनाते रहे। अब हमें सबसे पहले तो पाकिस्तान को विवश करना होगा कि वह भारत की नीति में हुए इस परिवर्तन को गंभीरता से ले। अब तक मोदी सरकार ने जो कदम उठाए हैं, उनसे पाकिस्तान में कुछ भय अवश्य पैदा हुआ है।

उसने यह भी देख लिया है कि इस समय चीन को छोड़कर संसार में और कोई देश उसका समर्थन करने को तैयार नहीं है। उसने मुस्लिम देशों का समर्थन प्राप्त करने की भरपूर कोशिश की। अब तक अधिकांश मौकों पर उसे तुर्की, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात से मदद मिलती थी। लेकिन इस बार इनमें से भी कोई उसका समर्थन करने के लिए आगे नहीं आया। पाकिस्तान नाभिकीय युद्ध छिड़ने की आशंका दिखाकर पश्चिमी देशों को इस विवाद में घसीटने की बहुत कोशिश करता रहा, पर इसमें भी वह सफल नहीं हुआ। लेकिन हमें उसकी इस असफलता मात्र से संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिए। अब हमें अपनी दूरगामी सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए पाकिस्तान और चीन से संयुक्त रूप से मिल रही इस चुनौती से निपटने की रणनीति बनानी होगी।

चीन अक्साई चिन में हमारी 38 हजार वर्ग किलोमीटर भूमि पर अनाधिकृत कब्जा जमाए हुए है। इसके अलावा उसके पास जम्मू-कश्मीर की शम्सगाम घाटी में हमारी 5800 वर्ग किलोमीटर भूमि है।

इस दिशा में हम कुछ जागरूक अवश्य हुए हैं। चीन की वन वेल्ट-वन रोड परियोजना के बारे में हमने दो टूक नीति घोषित की है, यह इसका उदाहरण है। चीन की इस परियोजना का अब तक यह कहते हुए विरोध किया गया है कि वह पाकिस्तान के अनाधिकृत नियंत्रण वाले गिलगित-बाल्तिस्तान के भारतीय क्षेत्र से गुजरती है और हमारी संप्रभुता का उल्लंघन करती है। हम यह भी जानते हैं कि चीन की यह परियोजना जितनी व्यापारिक उद्देश्यों से बनाई गई है, उतनी ही सामरिक उद्देश्यों को ध्यान में रखकर बनाई गई है। भारत ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पिछली रूस यात्रा के दौरान उसके ऊर्जा साधनों से संपन्न धुर पूर्वी क्षेत्रों में एक अरब डॉलर का निवेश करने की घोषणा करके इस क्षेत्र में चीन की बढ़ती हुई उपस्थिति का जवाब देने की कोशिश की है। भारत कूटनीतिक स्तर पर मध्य एशिया के देशों से संबंध मजबूत करने में लगा है। लेकिन यह सब अभी छिटपुट कदम ही लगते हैं।

हमारे सामने यह स्पष्ट है कि चीन हमारे लिए गंभीर सामरिक चुनौती बन गया है। तिब्बत पर कब्जा करके वह हमारी सीमाओं को असुरक्षित कर ही चुका है। पाकिस्तान से उसकी दोस्ती का आधार भी भारत को चारों ओर से घेरना ही है। हमने हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अन्य शक्तियों से मिलकर एक जवाबी रणनीति बनाई है, पर हमें चीन और पाकिस्तान की संयुक्त चुनौती का हमारी सुरक्षा पर जो दूरगामी असर पड़ रहा है, उसका और गंभीर आकलन करना है और उसके लिए उतनी ही प्रभावी रणनीति बनानी है। इसके लिए हमें सामरिक अध्ययन और विश्लेषण के अनेक नए संस्थान खड़े करने होंगे। अब तक हमने सामरिक प्रश्नों की निरंतर उपेक्षा की है। उसके दुष्परिणाम सामने हैं। अब हमें कहीं अधिक संकल्प और सक्रियता से एक ऐसा तंत्र खड़ा करना होगा, जो हमें निरंतर सभी सामरिक चुनौतियों से निपटने के लिए तैयार करता रहे।

 

 

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