राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु के दो यादगार भाषण

राष्ट्रपति का भाषण हमेशा एक औपचारिक संबोधन समझा जाता है। लेकिन 15वें राष्ट्रापति को अपवाद माना जा रहा है। वे हैं, राष्ट्रेपति द्रौपदी मुर्मु। संभवत: वे पहली राष्ट्रपति हैं, जिनके एक संक्षिप्त भाषण से पूरे देश में लोकतांत्रिक जागरण की अनोखी लहर पैदा हुई। उससे एक राजनीतिक चेतना बनी।
चाहे अवसर जो भी हो, राष्ट्रपति का भाषण एक औपचारिक संबोधन समझा जाता है। इसका एक कारण भी है। एक धारणा बनी हुई है कि वह पहले से तैयार किया गया होता है। यह बात अलग है कि राष्ट्र पति के भाषण में उनका अपना तत्व भी शामिल रहता है। फिर भी यही माना जाता है कि राष्ट्रगपति के भाषण में भारत सरकार का दृष्टिकोण अपनी अभिव्यक्ति पाता है। लेकिन 15वें राष्ट्रपति को अपवाद माना जा रहा है। वे हैं, राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु। संभवत: वे पहले राष्ट्रपति हैं, जिनके एक संक्षिप्त भाषण से पूरे देश में लोकतांत्रिक जागरण की अनोखी लहर पैदा हुई। उससे एक राजनीतिक चेतना बनी। वह निरंतर प्रवाहित हो रही है। आधुनिक भारत के इतिहास में ऐसे भाषणों को खोजना कठिन नहीं है, जो अविस्मरणीय बने हुए हैं। उदाहरण के लिए कुछ भाषणों का यहां उल्लेख किया जा सकता है। पहला भाषण जो अक्सर याद किया जाता है वह स्वामी विवेकानंद का है। जिसे उन्होंने 1893 में विश्व धर्म संसद के मंच पर दिया। दूसरा भाषण अत्यंत प्रसिद्ध है। उसे उत्तरपाड़ा भाषण के नाम से जाना जाता है। 30 मई, 1909 को ‘धर्म रक्षिणी सभा’ के मंच से श्रीअरविंद ने वह भाषण दिया था। इस भाषण में उनकी अलीपुर जेल की अनुभूतियां हैं। तीसरा भाषण महात्मा गांधी का है। जिसे उन्होंने काशी हिन्दू विश्वउविद्यालय के स्थापना समारोह के मंच से 4 फरवरी, 1916 को दिया था। दक्षिण अफ्रीका से भारत आने के सालभर बाद वे बोले, जो उनका पहला भाषण था। वह भाषण अधूरा रहा। चौथा भाषण लोकमान्य बालगंगाधर तिलक का है। जिसे उन्होंने होम रूल लीग के स्थापना दिवस पर नासिक में दिया था, 17 मई, 1917 का दिन था।
इन भाषणों से स्वाधीनता की लड़ाई को बल मिला। समाज में स्वतंत्रता की भावना प्रबल हुई। युवा को नया पथ मिला। गुलामी की बेड़ियों को तोड़ने की आंतरिक अभीप्सा जगी। हर भाषण का अपना महत्व आज भी बना हुआ है। उसे यहां रेखांकित करने की इस समय जरूरत नहीं है। इसलिए कि वह प्रासंगिक नहीं होगा। स्वतंत्रता के बाद भी कई ऐसे अवसर आए हैं जब राष्ट्री य नेताओं के भाषणों को यादगार माना गया। उनका भी यहां उल्लेख अनावश्यकक होगा। यहां यह कहना आवश्यीक है कि संभवत: 14 राष्ट्रलपतियों में किसी ने भी ऐसा भाषण नहीं किया जो साधारणजन को छू गया हो। हो सकता है कि इसे कोई अतिरंजना माने। अगर ऐसा होता है तो उसे यह बताना पड़ेगा कि किस राष्ट्रपति ने कब ऐसा कहा जो देश के हर व्यक्ति के मर्म को स्पर्श कर सका। ऐसे राष्ट्रापति कई हुए हैं, जिन्हें इतिहास में अलग-अलग कारणों से याद किया जाता रहेगा। कुछ अपनी त्याग, तपस्या, सादगी, विद्वता के लिए हमेशा याद किए जाएंगे। इस श्रेणी में पहला नाम डॉ. राजेंद्र प्रसाद का है। कुछ विवादों के लिए याद किए जाएंगे। इसमें चर्चित नाम ज्ञानी जैल सिंह का बना रहेगा। कुछ राजनीतिक पक्षपात के लिए याद किए जाएंगे। उसमें सबसे ऊपर नीलम संजीव रेड्डी का नाम होगा।
इनसे भिन्न और श्रेष्ठ उदाहरण जिस राष्ट्रपति ने प्रस्तुत किया है, वे वर्तमान राष्ट्रपति हैं। अवसर संविधान दिवस का था। 26 नवंबर, 2022 की तारीख थी। सुप्रीम कोर्ट ने संविधान दिवस का आयोजन किया था। वहां उपस्थित श्रोताओं और सहभागियों के बारे में हर कोई कल्पना कर सकता है कि कौन-कौन महानुभाव वहां रहे होंगे। वहां वे लोग थे, जो न्यायमूर्ति कहे जाते हैं। यह बात अलग है कि भारत की न्याय व्यवस्था में न्याय तो कम होता है, निर्णय ज्यादा होते हैं। ऐसा क्यों है? इस पर विमर्श पुराना है। वह सतत जारी है। हो सकता है कि कोई समय आए जब लोगों की न्याय पाने की आशा पूरी हो। ऐसा भी नहीं है कि न्याय नहीं होते। जो न्यायाधीश हैं, वे करते न्याय हैं, लेकिन यह उनकी समझ है। उसी समझ पर साधारण नागरिक प्रश्न। पर प्रश्नर न जाने कब से उठाता रहा है। वह आवाज क्या न्यायाधीशों को सुनाई पड़ती है? इसे जांचने-जानने का कोई यंत्र-तंत्र बना नहीं है। पर मनोभाव अगर वह पैमाना हो तो कहा जा सकता है कि न्यायाधीशों की दुनिया निराली है। वे अपनी दुनिया में रहते हैं।
उसी दुनिया में संविधान दिवस का नया प्रवेश सात साल पहले हुआ। इंदिरा गांधी की इमरजेंसी से सावधान वकीलों ने जिसे विधि दिवस के रूप में 1979 से मनाना शुरू किया था, उसे पहली बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संविधान दिवस विधिवत बनवाया। उसकी एक कहानी है। संविधान दिवस से एक नई शुरुआत हुई। साधारण नागरिक संविधान का साक्षर होने लगा। संविधान स्वतंत्र हुआ। वह संसद, न्यायपालिका और अफसरों की कैद से मुक्त होकर खुले आकाश में पंख फैलाकर उड़ा। ऐसा ही अवसर था जब एक लिखित भाषण की अपेक्षा से न्यायाधीश जमा थे। राष्ट्रपपति द्रौपदी मुर्मु ने अपना लिखित भाषण करीब-करीब पढ़ लिया। कुछ पंक्तियां शेष थीं। उन्होंने उन पंक्तियों को पढ़ने और उसके बाद भाषण की रस्म को पूरा कर देने के बजाए वास्तव में एक इतिहास रचा। ऐसा इतिहास जिसे भविष्यन में याद किया जाएगा क्योंकि उनके कथन में साधारण नागरिक की पीड़ा व्यक्त हुई।
ऐसे अवसर पर राष्ट्रपति से यह अपेक्षा नहीं की जाती है कि वे वह बोलें जिससे उनका मन खुले। इस अपेक्षा का संबंध संवैधानिक मर्यादा से भी है। राष्ट्र पति द्रौपदी मुर्मु ने उस मर्यादा को वैसे ही स्वरूप दिया जो अशोक चक्र में है। भारतीय जीवन दर्शन सीधी रेखा में नहीं चलता। वह चक्रीय परिधि बनाता है। लेकिन जब राष्ट्र पति ने अपना लिखित भाषण एक ओर रखकर अपने मन को खोलने का इरादा दिखाया तो वहां सभी चकित थे। औपचारिक समारोह ने नए आयाम में प्रवेश किया। उत्सुकता बढ़ी। वह सघन हुई। लोग सोचने लगे कि राष्ट्र पति अब क्या कहेंगी। उन्होंने जो कहा, उसे वहां जितना सुना गया उससे कहीं ज्यादा उनके भाषण का हर शब्द जादू बनकर देश पर छा गया। उनका वह भाषण मात्र नौ मिनट का है। उसे आज तक मिल बांटकर लोग पढ़ रहे हैं। उन्होंने जो कहा वह उनका न केवल अनुभव था बल्कि यथार्थ भी उसमें उतना ही था। उसका प्रभाव तत्काल पड़ा। न्यायाधीश अपनी जगह बैठे नहीं रह सके। राष्ट्र पति का भाषण पूरा हुआ कि सभा में उपस्थित हर व्यक्ति उनके समक्ष विनयभाव से उठ खड़ा हुआ। ऐसा दृश्यष किसी ने पहले नहीं देखा था।
वह भाषण उपलब्ध है। उसे लोगों ने ईशवचन का स्थान दे दिया है। उससे अनेक बातें निकलती हैं। पहली यह कि लाखों निर्दोष लोग जेलों में क्यों बंद हैं? दूसरी यह कि न्याय पाना क्यों बहुत दुर्लभ है? तीसरी यह कि संविधान ने शासन के जो तीन अंग बनाए हैं उनमें परस्पर समन्वय क्यों नहीं है? अंतिम बात उन्होंने इन शब्दों में कही, ‘‘मैं जो नहीं बोली, उसे भी आप समझिए और कोई रास्ता निकालिए।’ इस प्रकार राष्ट्रंपति द्रौपदी मुर्मु ने अत्यंत सहज, सरल और सदाचार की भाषा में अपने मन की व्यथा कही। वही उनकी भी व्यथा है जो पीड़ित हैं। जिनके लिए शासन कार्य करने का दावा करता है और दंभ भी पालता है। इस भाषण का तत्क्षण प्रभाव पड़ा। लोग उसे एक-दूसरे से शेयर करने लगे। मुझे भी मित्रों ने बताया। तीसरी सरकार अभियान के कर्ता-धर्ता चंद्रशेखर प्राण ने राष्ट्रपति के इस भाषण को मेरे ई-मेल पर भेजा। तीसरी सरकार अभियान ने ‘हर दिल में संविधान’ के तहत जागरूकता के प्रयास प्रारंभ किए। जिसका लक्ष्य है कि कैसे नागरिक के दैनिक जीवन में संविधान को प्रासंगिक बनाया जाए।
यह तो रहा नागरिक प्रभाव का एक उदाहरण। इसी तरह भारत सरकार ने भी राष्ट्रकपति के उस भाषण को पूरा महत्व दिया। बजट भाषण में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने एक घोषणा की कि ‘जेल में बंद ऐसे निर्धन व्यक्तियों को वित्तीय सहायता प्रदान की जाएगी जो जुर्माना या जमानत राशि की व्यवस्था करने में असमर्थ हैं।’ एक अनुमान है कि चार लाख से ज्यादा ऐसे कैदी हैं जो इस श्रेणी में आते हैं। भारत सरकार की इस घोषणा से इन विचाराधीन कैदियों की जेल से मुक्ति का रास्ता साफ हो जाता है। इस मद में भारत सरकार ने सात हजार करोड़ रुपए आवंटित करने का प्रावधान किया है। राष्ट्ररपति के भाषण से मीडिया का भी ध्यान उन कैदियों पर गया है जो न्याय के बदले अन्याय के शिकार हैं। जैसे, लखनऊ से एक खबर 3 फरवरी के टाइम्स आॅफ इंडिया में छपी कि सीबीआई की कोर्ट ने रेलवे के एक रिटायर क्लर्क को एक साल की सजा सुनाई है। उस पर 15 हजार रुपए का जुर्माना लगाया है। रेलवे के उस कर्मचारी ने 32 साल पहले किसी से सौ रुपए रिश्वसत ली थी। वह व्यक्ति इस समय 82 साल का है। यह तो रिश्वत का मामला है लेकिन राष्ट्रपति ने उन कैदियों का प्रश्न उठाया जो विचाराधीन कैदी होते हैं और उनका जुर्म भी निर्दोष होता है।
संविधान दिवस पर राष्ट्रपति के इस भाषण से संवैधानिक संस्कृति की नवरचना होती है। उस लोकतंत्र को बल मिलता है जिस पर अक्सर हर देशवासी गर्व का अनुभव करता है। जब संविधान सभा ने बालिग मताधिकार का निर्णय किया था, तब पश्चिम के विकसित लोकतंत्र के विचारवान राजनीतिक दार्शनिकों ने अनेक संदेह उठाए थे। वे संदेह उनके लोकतांत्रिक खांचे की पैदाइश थे। भारत ने उन संदेहों को इसलिए मिटाया क्योंकि यह देश प्राचीनतम लोकतंत्र का साक्षी हर समय रहा है। उस लोकतंत्र में समता, स्वतंत्रता और न्याय का संतुलन कैसे बने? इस प्रश्न को लोग अपने-अपने ढंग से उठाते रहे हैं। पहली बार किसी राष्ट्रपति ने उस मूल प्रश्न को सहज ढंग से चिंहित किया है। यही उस भाषण की विशेषता है। इसी तरह राष्ट्रठपति द्रौपदी मुर्मु का वह भाषण भी अत्यंत महत्वपूर्ण है जिसे उन्होंने 25 जनवरी को इसी साल दिया। 74वें गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर वे राष्ट्रम को संबोधित कर रही थीं। उनके भाषण का यह अंश राजनीतिक संतुलन और समन्वय का बढ़िया उदाहरण है, ‘हमारा देश, बाबा साहब भीमराव अंबेडकर का सदैव ऋणी रहेगा, जिन्होंने प्रारूप समिति की अध्यक्षता की और संविधान को अंतिम रूप देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। आज के दिन हमें संविधान का प्रारंभिक मसौदा तैयार करने वाले विधिवेत्ता बेनेगल नरसिंह राव तथा अन्य विशेषज्ञों और अधिकारियों को भी स्मरण करना चाहिए जिन्होंने संविधान निर्माण में सहायता की थी।’ बेनेगल नरसिंह राव का उल्लेख ही संविधान की तुला को सम्यक बनाता है। 
हमारा देश, बाबा साहब भीमराव अंबेडकर का सदैव ऋणी रहेगा, जिन्होंने प्रारूप समिति की अध्यक्षता की और संविधान को अंतिम रूप देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। आज के दिन हमें संविधान का प्रारंभिक मसौदा तैयार करने वाले विधिवेत्ता बेनेगल नरसिंह राव तथा अन्य विशेषज्ञों और अधिकारियों को भी स्मरण करना चाहिए जिन्होंने संविधान निर्माण में सहायता की थी।

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