अपना गांव अपनी दुनिया

प्रदीप कौर आर्या

मै भारत का गांव हूं। अब मै बदल गया हूं। लेकिन हमने सिर्फ कपड़े बदले हैं। मेरा भाव वही है। सोच, संस्कृति और सरोकार भी वही है। हां कुछ व्यवस्थाएं भी बदली हैं। कुछ जरूरत से हम बदले और कुछ शहरों के संपर्क के कारण। मै पहले जैसा तो नहीं हूं लेकिन जब भी तुम पर कोई कोई संकट आता है तो तुम्हे बाहों में भर लेने का दिल करता है। संकट की कोई आंच तुम तक पहुंच न पाए इस कदर तुम्हे जकड़ लेना चाहता हूं। कोरोना कौन बड़ी बात है। अभी भी मेरे अंदर वो ताकत बची है कि तुम्हें संभाल सकूं और तुम्हें पाल भी सकूं।

जब कोराना के संक्रमण की वजह से इस बार तुम आए तो बहुत कुछ याद आ गया। अपनी पुरानी बातें। पुराने किस्से। ये किस्से अब किस्से हैं लेकिन ये तो एक संस्कृति थी। इस संस्कृति की सुरक्षा कवच में ही दिल को सुकून देने वाली न जाने कितनी चीजें सुरक्षित रहती थीं। सुख-शांति, स्वस्थ प्राकृतिक वातावरण और सहकारिता की भावना, सभी कुछ तो था मुझमें। गांव के किसी का रिस्तेदार पूरा गांव अपना रिस्तेदार समझता था। यह संस्कार ही तो था। लेकिन मैने बचाकर रखा। पूरा नही तो आधा ही सही। गांव में किसी के यहां की बारात पूरे गांव की बारात होती थी। तुम्हें भी याद होगा। घर-घर से खटिया, कुर्सी, हंडा, कड़ाही, रजाई गद्दा चद्दर इकट्ठा करने में लगे होगे। बहरहाल अब ये तो तुम्हें देखने को नहीं मिलेगा। इनकी जगह गांव-गांव कस्बे-कस्बे टेंट हाउस ने ले ली है।

पहले एक घर का मेहमान पूरे गांव का मेहमान होता था। अगर कोई नया मेहमान गांव में आता था तो गांव के लोग स्वयं उसके साथ चल कर उसे गन्तव्य तक पहुंचाते थे। हालांकि गांव की इस परंपरा में पहले की अपेक्षा थोड़ा परिवर्तन तो अवश्य हुआ है, लेकिन आज भी गांवों में यह परंपरा काफी हद तक विद्यमान है। पहले शहर के बड़े-बड़े क्लब गांव की चौपाल के सामने फीके थे। गांवों की चौपालों में शहर के क्लबों की तरह इत्र की मादकता तो नहीं बिखरती थी, लेकिन वहां माटी की सौंधी गंध अवश्य बिखरती थी। वह माटी की सोंधी गंध ही हमें बार-बार अपनी मिट्टी से जुड़ा होने का अहसास कराती थी। गांव की चौपाल में बैठ कर एक अजीब-सी शांति का अनुभव होता था। चौपाल में शहर के क्लबों की तरह दिखावटी तौर-तरीके नहीं थे। लेकिन वहां जीवन से जुड़ी हुई अन्य बहुत-सी बातें सिखाई जाती थीं। वहां जो भी कुछ था, वह दिखावटी और बनावटी नहीं था। मसलन, अगर गांव का कोई युवक खाट पर बैठे अपने से बड़े व्यक्ति के सिराहने बैठ जाता था तो उसे जम कर लताड़ लगाई जाती। इस तरह चौपाल गांव के युवकों को उठने-बैठने का सलीका भी सिखाती थी। मैने अपनी व्यवस्था भी बनाई थी। अध्यात्म, संस्कृति, तकनीक और सामाजिक अर्थशास्त्र इस व्यवस्था का आधार थे। अपने गांव को समझिए। संभालिए। शहर आपको छोड़ देंगे। गांव आपको कभी नहीं छोड़ेंगे। बाहों में भरकर आपका इस्तकबाल करेंगें। इसलिए गांवों से जुड़े रहिए। अपना गांव अपनी दुनिया…

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