किसान आन्दोलन का इतिहास – दत्तोपंत ठेंगड़ी

पिछली शताब्दी में किसानों की दुःस्थिति, असन्तोष तथा विद्रोह के प्रमुख कारण अकाल, शाहूकार, जमींदार, मूल्य-वृद्धि तथा अपर्याप्त कानूनी संरक्षण थे। सन् 1870, 1896, 1897 में भीषण अकाल हुए। सन् 1870 से बंगाल के करदाताओं ने कर देने तथा उनको निकालने के अदालत के आदेशों का पालन करने से इंकार कर दिया। परिणामस्वरूप बंगाल के कई विभागों में अराजकता फैल गयी। सरकार ने जांच समिति की नियुक्ति की और अन्त में टेनेन्स ‘करदाताओं’ को राहत देनेवाला सन् 1885 में ‘बंगाल टेनेन्स ऐक्ट’ पारित किया।

सन् 1875 में महाराष्ट्र में इसी तरह की परिस्थिति में भूमि-करदाताओं ने अपने साहूकारों के मकानों पर हमले किये और कई साहूूकारों को जान से मार डाला। परिस्थिति को सामान्य करने तथा किसानों को कुछ संरक्षण देने की दृष्टि से सन् 1879 में दि डेक्कन एग्रीकल्चरीज रिलीफ ऐक्ट पारित किया गया। वैसे  सन् 1890 के बाद अपनी भूमि साहूूकार ले लेंगे-इस आशंका से पंजाब के किसानों ने साहूकारों के खिलाफ आंदोलन किया और सरकार को सन् 1902-1903 में ‘दि पंजाब एलिअनेशन ऐक्ट’ पारित करना पड़ा।

अभिप्राय यह है कि अकाल की भीषणता, मूल्यवृद्धि की तेज गति, कर्जे के बोझ, उसका ब्याज देने की अक्षमता, साहूकारों के अमानुषिक अत्याचार, तथा जमीनदारों की मनमानी के कारण पिछली शताब्दी के उत्तरार्द्ध में देश के विभिन्न भागों में किसानों के विद्रोह हुए।

किसानों की अंतर्गत क्षमताओं की ठीक जानकारी महात्मा जी को थी। बिहार के चंपारण 1917 तथा खेड़ा 1918 में गांधीजी ने किसानों को सत्याग्रह-प्रयोग के रूप में संगठित किया। न् 1919 में कांग्रेस ने किसानों को सलाह दी कि असहयोग आंदोलन के अंतर्गत वे भूमि-कर देना बंद करें।

किसान आंदोलन के जनक कम्यूनिस्ट नहीं

यह सोचना गलत है कि भारत में किसान आंदोलन का प्रारंभ कम्यूनिस्टों के ही नेतृत्व में हुआ। यह बात सही है कि किसान नेता के नाते कई कम्यनिस्टों के नाम सामने आते हैं, और उन्होंने उनकी अवधारणा के अनुरूप आंतरिकता से कार्य भी किया है, जैसे- किशोरी प्रसाद सिन्हा, मुजफ्फर अहमद, इराबोत सिंह, पी. सुन्दरैयाा, एन. प्रसाद राव, ए.के. गोपालन, राहुल सांकृत्यायन, कृष्णा पिल्लै, बंकिम मुखर्जी, भवानी सेन, सोमनाथ लाहिरी, श्रीयुत् तथा श्रीमती परूलेकर आदि।

किंतु वास्तविकता यह है कि विभिन्न दलों के नेताओं ने किसानों का नेतृत्व तथा उनकी सेवा की है। महात्मा गांधी, सरदार पटेल, पंडित नेहरू, जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेंद्र देव, स्वामी सहजानन्द सरस्वती, प्रो. एन.जी. रंगा, इन्दुलाल याज्ञिक, जदुनन्दन शर्मा, पंजाब की गदर पार्टी के बाबा पृथ्वीसिंह आजाद यहां तक कि अंग्रेेज सरकार के समर्थक- पंजाब की यूनियनिस्ट पार्टी के सर छोटूराम और मद्रास की जस्टिस पार्टी के बी. रामचंद्र रेड्डी आदि विभिन्न दलों के लोगों ने अपने-अपने ढंग से इस क्षेत्र में कार्य तथा नेतृत्व किया है। मतलब यह है कि किसान क्षेत्र पर कभी किसी भी एक दल या समूह का एकाधिकार नहीं रहा।

किसान का निर्माण

हमने बार-बार यह स्पष्ट किया है कि भारतीय किसान संघ किसी भी राजनीतिक दल का अंग नहीं है और न कभी रहेगा। सभी राजनीतिक दलों के लिए एक दबाव गुट की हमारी 8भूमिका है। तो भी लोगों के द्वारा यह प्रश्न आता है कि क्या किसान संघ का कोई राजनीतिक संबंध हो ही नहीं सकता? क्या वे स्वयं अपना राजनीतिक दल बना ही नहीं सकते?

इन प्रश्नों के पीछे एक विशिष्ट मनोरचना है। बचपन से हमने ब्रिटिश संसदीय लोकतंत्र का ही वायुमंडल देखा है। इसके कारण हमें लगता है कि यह ब्रिटिश संसदीय संस्था तथा ब्रिटिश दलीय पद्धति ही प्रमाणभूत संस्थाएं हैं, लोकतंत्र के अंतर्गत इससे भिन्न पद्धति हो ही नहीं सकती, और राजनीतिक दल भी उसी तरह का ही हो सकता है जिस तरह का ग्रेट ब्रिटेन में है।

किसान का निर्माण अति प्राचीन काल में हुआ है। राजनीतिक दलों का निर्माण अभी-अभी हुआ है। राजनीतिशास्त्र के विद्वान बताते हैं कि सन् 1850 में यूनाइटेड स्टेट्स के अलावा दुनिया के किसी भी देश में आधुनिक अर्थ की राजनीतिक पार्टियां विद्यमान नहीं थी। बाद में जो दल-निर्माण हुए, उनका उद्गम भी एक समान नहीं था। उनके विभिन्न स्रोत रहे हैं।

सन् 1854 में कनाडा में कंजरवेटिव पार्टी का जन्म हुआ। उसके जन्मदाता के रूप में थे बैक आफ मांट्रियल, दि ग्राण्ड ट्रंक रेलवे, मांट्रियल के बड़े व्यापारी, बड़ी कंपनियां, सरमायेदार लोग, जिनको उधर की परिभाषा में ‘दक्षिणपंथी’ कहा जाता है। मजदूरों की ट्रेड यूनियनों तथा फेवियन सोसायटी के प्रभाव से इंग्लैंड में लेबर पार्टी का निर्माण हुआ। छात्र संघ तथा विश्वविद्यालयीन लोगों के प्रभाव से पिछली शताब्दी में यूरोप में कुछ जन-आंदोलन निर्माण हुए तथा प्रारंभिक वामपंथी राजनीतिक दलों के निर्माण में भी उनके प्रभाव का हाथ रहा।

पिछले कुछ दशकों में ही प्रक्रिया कुछ लैटिन अमेरिकी देशों में भी चली। फ्रांस की रेडिकल पार्टी तथा वेल्जियम की लिवरल पार्टी का उदय बहुत मात्रा में ‘फ्रिमन्सनरी’ के प्रभाव के कारण हुआ। दक्षिणपंथी क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक पार्टियों के निर्माण में कैथोलिक संगठनों का हाथ रहा। ‘एक्स सर्विसमेन्स एसोसियेशन’ की भी विभिन्न देशों में इस दृष्टि से बड़ी भूमिका रही है।

द्वितीय महायुद्ध के पूर्व इटली तथा जर्मनी में गठित हुए फासिस्ट तथा नाजी पार्टी के निर्माण में एक्स सर्विसमैन का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। सन् 1936 में फ्रांस की ‘एक्स सर्विसमेंस एसोशिएशन’ ने स्वयं अपने को सीधे राजनीतिक पार्टी में परिवर्तित किया था। हिटलर के आक्रमण के शिकार बने हुए पूर्वी यूरोपीय देशों में प्रतिकार के लिए जो भूमिगत संगठन कार्य करते रहे उन्होंने हिटलर की पराजय के पश्चात् प्रकट राजनीतिक दलों का स्वरूप धारण किया था।

भूमिगत संगठनों से सीधे प्रकट राजनीतिक दलों में उनका परिवर्तन हुआ था। पूर्व, मध्यपूर्व, अफ्रीका, लैटिन अमेरिका तथा 1939 के पूर्व मध्य यूरोप में लोग सामंत परिवार, सैनिक नेता, या प्रभावशाली संरक्षक वर्ग के नेतृत्व में संगठित हो जाते थे, उनका  स्वरूप राजनीतिक दलों के समान ही रहता था। लेनिन ने रूस की परंपरा के अनुसार षड़यंत्रकारी गुप्त संस्थाओं के जाल के रूप में कम्यूनिस्ट पार्टी का गठन किया था, और वही नमूना कुछ अन्य देशों की कम्यूनिस्ट पार्टियों ने भी बहुत सालों तक अपनाया।

कुछ यूरोपीय देशों में कम-अधिक मात्रा में राजनीतिक दलों के योगदान देने का काम समाचारपत्रों तथा सहकारी संस्थाओं ने भी किया। किसानों, खेतिहर मजदूरों के संगठनों ने जिन देशों में राजनीतिक दलों के निर्माण में योगदान दिया है वे देश हैं स्कंडिनेवियन देश, मध्य यूरोप, स्विटजरलैंड, आस्ट्रेलिया और कनाड़ा। इन देशों में किसान-खेतिहर मजदूरों के संगठनों ने राजनीति को तथा राजनीतिक दलों की पर्याप्त मात्रा में प्रभावित किया है।

इस तरह शिक्षित लोगों की यह धारणा गलत है कि राजनीतिक दलों का निर्माण केवल एक ही पद्धति या स्रोत से होता है। देश-काल-परिस्थिति के अनुसार इस सब बातों में विविधता आती है। केवल ब्रिटिश माॅडल ही एकमात्र माॅडल नहीं है।………………जारी

‘ध्येय पथ पर किसान’ पुस्तक से साभार

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