
अर्थात् राष्ट्रगान पर गौरतलब पहलू केवल तकनीकी है। यदि आधुनिक वाद्ययंत्र दिखा दें कि अब वंदे मातरम् भी जनमणमन की तर्ज पर संगीतबद्ध किया जा सकता है, तो मोदी सरकार तब नेहरू के कमजोर तर्क को काट सकती है। इस वर्ष के अंत में काकीनाडा कांग्रेस अधिवेशन की शताब्दी भी है। यहीं प्रख्यात संगीतकार विष्णु दिगंबर पलुस्कर ने (दिसम्बर 1923) वंदे मातरम् गाया था। हजारों प्रतिनिधियों ने करतल ध्वनि से स्वागत किया था। तभी से विवाद भी शुरू हुआ। इस अधिवेशन के अध्यक्ष मियां मौलाना मोहम्मद अली ने ऐतराज किया कि बंकिम बाबू के इस पद्य में मूर्तिपूजा है जो इस्लाम में वर्जित है। इस पर दिगंबर जी का जवाब था कि ”यह राजनीतिक पार्टी का अधिवेशन है। कोई मस्जिद नहीं जहां मूर्ति पूजा निषिद्ध है।” अध्यक्ष मोहम्मद अली वाक आउट कर गये। तभी से मुसलमानों के दबाव में नेहरू, अबुल कलाम आजाद आदि ने वंदे मातरम् पर रोक लगा दी। कांग्रेस सम्मेलन में 1896 से ही वंदे मातरम् लगातार गाया जाता रहा। कवि गोपालदास नीरज ने तो सुझाया भी था कि ”झंडा ऊंचा रहे हमारा” अथवा वंदे मातरम् ही राष्ट्रगान हो। न कि ब्रिटिश सम्राट की स्तुति करता अधिनायकवादी यह गीत। स्व. कल्याण सिंह की भी यही राय थी।
एकदा राष्ट्रवाद के मुद्दे ने तूल पकड़ा था आजादी के पूर्व, जब भारत के सिनेमाघरों में ब्रिटिश राष्ट्रगान ”गाड सेव दि किंग” बजता था।। अंग्रेज सिपाही सारे दर्शकों को अंग्रेज सम्राट के सम्मान में खड़े होने पर विवश करते थे। उन दिनों कराची बंदरगाह पर जापानी हमले से बचाव के लिये अमेरिकी सैनिक सिंध में तैनात थे। ब्रिटिश सेना की मदद हेतु। तभी वहां के सिनेमा घर में एक बार फिल्म के बाद ”गाड देव दि किंग” वाला ब्रिटिश राष्ट्रगीत बजा। फिर भी अमेरिकी सैनिक दरवाजे की ओर लपके। ब्रिटिश सैनिकों ने नाराजगी जतायी। इसपर एक अमेरिकी अफसर ने कहा : ”तुम्हारे बादशाह को दुनिया में हर जगह हम लोग ही जर्मन—जापानी हमले से बचा रहे हैं। चुप रहे।” स्लोवाकिया के चिंतक स्लावोज जिजेक ने कहा भी था कि : ”थोपोगे तो विरोध स्वाभाविक है।” अत: ऐसी अमेरिकी प्रतिक्रिया होनी थी।
अब एक घटनाक्रम पर सिलसिलेवार गौर कर लें। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने जगगणमन गीत 1911 में रचा था। तभी ब्रिटिश बादशाह जॉर्ज पंचम दिल्ली दरबार लगाने आये थे। उसी दौर में लंदन के मैकामिलन ने गीताजलि को प्रकाशित किया था। इस पर ही टैगोर को नोबेल पुरस्कार मिला था। कुछ वर्षों बाद 1915 में ब्रिटिश सम्राट ने टैगोर को ”सर” के खिताब से नवाजा था। इसका चार वर्ष तक पूरा उपयोग करने के बाद जालियावालाबाग कांड (1919) पर टैगोर ने त्याग दिया था। इन तारीखों पर विचार कर लें तो पूरी तस्वीर उभर आती है। फिर 7 अगस्त 1941 तक टैगोर जीवित रहे। इन दो दशकों में किसी भी स्वाधीनता आंदोलन में वे जेल नहीं गये। बल्कि राष्ट्रीय आंदोलन से दूर ही रहे। क्या मायने थे ? गुलामी से कवि हृदय पसीजा नहीं था ?
अब नरेन्द्र मोदी से अनुरोध है कि संगीतकारों को जुटायें कि वे सब वंदे मातरम् को विदेशी आर्केस्ट्रा पर लयबद्ध करायें। इससे नेहरू वाला तर्क कटेगा। तब पुनर्विचार हो कि वंदे मातरम् कैसे राष्ट्रगान बने। अब किसी इस्लामी दबाव से राष्ट्र की नीतियां निरूपित नहीं होंगी।
वंदे मातरम् के संदर्भ में मेरा एक निजी संस्मरण भी है । उन दिनों ( 1975—76) हम लोग आपातकाल के विरोध में बड़ौदा सेंट्रल जेल में कैद थे। मेरे साथ थे गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री स्व. बाबूभाई जशभाई पटेल और भारतीय जनसंघ के लोकसभायी चिमनभाई शुक्ल (राजकोटवाले)। तब तय हुआ कि वंदे मातरम रोज सुबह हम सब गायेंगे। इस पर प्रभुदास बालूभाई पटवारी ने सुझाया कि केवल प्रथम दस लाइनें ही गायी जायें। वे सर्वोदयी और मोरारजी देसाई के अंतरंग मित्र थे। पटवारी जी मेरे साथ बड़ौदा डाइनामाइड काण्ड में चौथे नम्बर के अभियुक्त थे। जॉर्ज फर्नांडिस प्रथम और मैं द्वितीय था। पटवारी बाद में तमिलनाडु के राज्यपाल बने। उन्हें इंदिरा गांधी ने दोबारा सत्ता आते ही बर्खास्त कर दिया था। वंदे मातरम् को आधा ही गाने का जनसंघ सांसद ने कड़ा विरोध किया। चिमनभाई शुक्ल ने कहा : ”आप कांग्रेसियों ने पहले देश काटा। अब वंदे मातरम् भी काट रहे है।” अत: इस मसले पर अब देश को सम्यक विचार करना होगा। भारत भले ही अखंड न हो सके। मगर वंदे मातरम् तो मूल रूप में प्रयुक्त हो ही सकता है।