गाँधी दर्शन में ग्राम-आत्मनिर्भरता

शिवेंद्र सिंहआत्मनिर्भरता या आत्मावलंबन का अर्थ है स्वयं पर भरोसा करना, या स्व पर निर्भरता. आत्मनिर्भरता के चार आयाम होते हैं, आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक. आधुनिक भारत के इतिहास में जिस विभूति ने ग्राम – आत्मनिर्भरता के लिए सर्वाधिक प्रतिबद्धता दिखाई वो राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी थे.ऐतिहासिक विचारों के आधार पर वर्तमान के प्रतिमान गढ़ना भविष्य के लिए मार्गदर्शन का कार्य कर सकता है. गांधी दर्शन के अंतर्गत आत्मनिर्भर गाँव की संकल्पना को इसी रूप में देखा जाना चाहिए.

गाँधी जी के अनुसार भारतीय सभ्यता क़ी विशेषता इसका ग्राम केंद्रित होना है. यहाँ शहरों ने केवल पूरक क़ी भूमिका निभाई है. इसके विपरीत पश्चिमी सभ्यता शहर केंद्रित रही है, जहाँ गाँव पूरक भूमिका में थे. यहीं कारण था कि गाँधी जी के राष्ट्रवाद में ग्रामों की प्रमुख भूमिका थी. उनके लिए स्वराज का आशय मात्र उपनिवेशवादियों से मुक्ति ही नहीं बल्कि शहर केंद्रित व्यवस्था से ग्राम की मुक्ति भी था. ग्रामीण व्यवस्था के बारे में गाँधी जी का कहना है कि, ” स्वतंत्र भारत के पुनःनिर्माण की योजना में उसके गाँव को आज की तरह शहरों पर निर्भर नहीं रहना चाहिए बल्कि इसके विपरीत शहरों का अस्तित्व सिर्फ गांव के लिए और गाँव के के हित के लिए होना चाहिए. इसलिए चरखे को केंद्र का गौरवपूर्ण स्थान देकर उसके इर्द- गिर्द गाँवो को जीवन देने वाले गृह उद्योग संगठित किये जाएं.” (सम्पूर्ण गाँधी वांगमय खंड 89 के पृष्ठ 94 )

गाँवों के आत्मनिर्भर हुए बिना राष्ट्र भी आत्मनिर्भर नहीं हो सकता.  देश की अर्थव्यवस्था और बाजार के मजबूत होने के लिए आवश्यक है कि लोगों की ज़ेब में पैसे हों. सामान्यतः इसके दो तरीके हैं, पहला,लोगों के पास रोजगार हो, दूसरा, सरकारें पैसा दें. जब सरकार लोगों को पेंशन, भत्ते या किसी लाभ के रूप में लोगों को पैसे देती हैं तो उससे जनता में उसका वर्चस्व बढ़ता हैं लेकिन लोगों की गतिविधियों या श्रम का  राष्ट्रीय उत्पादन में जो उपयोग होना चाहिए वो नहीं हों पाता. गाँधी जी के चरखे या ग्रामोदय की जो संकल्पना थी उसमें हर आदमी के हाथ में काम होगा और कम या ज्यादा हर आदमी के हाथ में पैसा होगा. यह व्यक्ति के सम्मान और राष्ट्र की समृद्धि, दोनों के लिए जरुरी है.

आत्मनिर्भरता का सबसे महत्वपूर्ण पहलू आर्थिक है. आर्थिक विकेंद्रीकारण से गाँधी जी का अभिप्राय बड़े पैमाने के उद्योगों के स्थान पर लघु कुटीर उद्योगों की स्थापना से था. वर्तमान में देश की सबसे बड़ी समस्या बेरोजगारी की है. इसे ख़त्म करने के लिए जरुरी है कि हर हाथ में काम हो और यह बड़ी इंडस्ट्री के माध्यम से संभव नहीं है. बड़े उद्योगों में आटोमेशन यानि स्वचालन अधिक है और उनमें रोजगार की गुंजाईश कम होती है. भारत जो की बड़ी आबादी का वहन कर रहा है वहाँ लघु और कुटीर उद्योग अधिक रोजगार प्रदायक होंगे. 80 के दशक का ही उदाहरण लें तो तत्कालीन अर्थशास्त्रियों का मानना था कि औद्योगिक क्षेत्र में एक रोजगार खड़ा करने के लिए 24 से 25 लाख रुपयों की जरुरत होती है. उसी के समानांतर ग्रामीण क्षेत्र में रोजगार पैदा करने के लिए लगभग 800 रुपयों की जरुरत पड़ती है. ऐसा नहीं है कि भारी औद्योगिकीकरण कि आवश्यकता नहीं थी. किंतु यहाँ प्रश्न प्राथमिकता का है ना कि आवश्यकता का.

  इसके अतिरिक्त छोटी मशीनों के साथ काम करने में व्यक्ति अधिक सुविधा महसूस करता है. तथा सृजन एवं संतोष का सुख मिलता है. महात्मा गाँधी मानते हैं कि, श्रम अपने आप में एक पूँजी है तथा श्रम मानवीय जीवन का सार है. बड़े उद्योगों और मशीनों के सम्बन्ध में एक यूरोपीय विद्वान् का कथन है कि, इससे व्यक्ति धीरे- धीरे एलिमिनेट हो जाता है, पहले उत्पादन और मशीनों से, फिर धीरे-धीरे अपने समाज से. यूरोप में आत्महत्या का सबसे बड़ा कारण आर्थिक अभाव नहीं बल्कि जीवन की एकरसता है. इसी के बरअक्स ज़ब व्यक्ति छोटे उद्योगों या मशीनों के साथ अपने गाँव -परिवार के साथ रहते हुए उत्पादन से जुड़ा होता है तो उसमें एकरसता नहीं आती. महात्मा गाँधी का कहना था, “हमें मनुष्य को ख़त्म करने वाली मशीन नहीं चाहिए, हमें तो मनुष्य की क्षमता बढ़ाने वाली मशीन चाहिए.”

ग्रामीण उद्योग के विकास का एक अन्य पहलू यह भी हैं कि रेलवे और सड़कों पर दबाव कम हो जाता है क्योंकि माल परिवहन कम हो जाता है. स्थानीय स्तर पर उत्पादन और वितरण आसान होता है. ग्रामीण औद्योगिकीकरण का सबसे बड़ा फायदा पर्यावरण सुरक्षा को लेकर है. क्योंकि ना तो धुँआ उगलने वाली बड़ी मशीनें होती हैं और ना ही नदी- नालों को गंदा करने वाला वेस्टेज ही निकलता है. इससे पर्यावरण की सुरक्षा भी संभव है. वास्तव में धारणीय विकास की संकल्पना गाँधीवाद के साथ सहज़ साम्य रखती है. साथ ही ग्रामीण ढांचा (Infrastructure) और ग्रामीण औद्योगीकरण के फलस्वरूप उत्पादन खर्च कम होगा जिससे शहरी उपभोक्ता पर आर्थिक बोझ नहीं बढ़ेगा.

उत्पादन के लिए जिस कच्चे माल की आवश्यकता होती है उसके स्रोत गाँव ही हैं. गाँव में उत्पादन इकाईयां लगे तो अनावश्यक ट्रांसपोर्टेशन और रोजगार के लिए पलायन, दोनों रुकेंगे. ग्रामीण उत्पादों में लाभ का प्रतिशत न्यूनतम होता है. चूँकि उसमें लागत भी कम आती है क्योंकि गाँवों में कच्चा माल आसानी से उपलब्ध हो जाता है, परिवार द्वारा निर्मित और ग्रामीणों द्वारा श्रम को भी नगन्य जोड़ा जाता है. इसके उलट शहरी क्षेत्रों और बड़े उद्योगों में तैयार उत्पाद कई गुणा महंगा होता है. ये महंगे उत्पाद गाँव की पूँजी भी खींच रहें हैं, जो कि सही मूल्य की दृष्टि से भी अनुचित है. उत्पादन के पूरे व्यय और कुछ लाभाश को सम्मिलित रूप से सही मूल्य कहते हैं.

ग्राम आत्मनिर्भरता का दूसरा पहलू हैं, राजनीतिक आत्मनिर्भरता. महात्मा गाँधी केंद्रीकृत शासन व्यवस्था के विरोधी हैं. गाँधी जी के अनुसार विकेंद्रीकारण की आवश्यकता इसलिए है, क्योंकि केंद्रीकृत व्यवस्था का मुख्य आधार हिंसा अथवा पाशविक शक्ति है, जिसका अहिंसात्मक समाज में कोई स्थान नहीं है. इसके अलावा, राज्य के अंतर्गत शक्तियों के केंद्रीकरण के कारण स्थानीय स्वशासन के अवसर कम होते हैं तथा व्यक्ति की नैतिक भावना कुंठित होकर उसके विकास का मार्ग अवरुद्ध करती हैं. साथ ही व्यक्ति पर अनेकों प्रतिबन्ध आरोपित कर उसका जीवन जटिल बना देती है.

आजादी के समय समयाभाव और संसाधनहीनता का बहाना कर पंचायतों को अनुच्छेद 40 के अंतर्गत नीति निदेशक तत्वों का हिस्सा बना दिया गया.अतः स्वतंत्र भारत में भी पंचायतों की दुर्दशा बनी रही, और जो विकास के प्रयास भी हुए तों उनकी नियत में खोट था. सन् 1992 का 73वां संशोधन अधिनियम भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में एक मील का पत्थर था. यह प्रतिनिधि लोकतंत्र को भागीदारी लोकतंत्र में परिवर्तित करने हेतु महत्वपूर्ण कदम था. किंतु वर्तमान  तक स्थानीय संस्थाएं अपनी उपयोगिता साबित करने में विफल रहीं हैं. इसमें अब तक की सरकारों  और प्रशासन की संवेदनहीनता की बड़ी भूमिका है. 1985 में गठित जी. वी. के. राव समिति का निष्कर्ष था कि विकास प्रक्रिया दफ़्तरशाही युक्त होकर पंचायत राज से विच्छेदित हो गई हैं एवं नौकरशाही की इस प्रक्रिया के कारण पंचायती संस्थाएं कमजोर हो गयी हैं. मशहूर शायर दुष्यंत कुमार के शब्दों में कहें तो, “यहाँ तक आते- आते सूख जाती हैं कई नदियाँ, मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा”.

गाँधी जी ने ग्राम आधारित विकेंद्रित व्यवस्था का वृत्तों के रूप में वर्णन  रोचक ढंग से किया है. इस व्यवस्था के अंतर्गत प्रथम वृत्त का निर्माण दो गाँव के प्रतिनिधिओं द्वारा अपना संयुक्त प्रतिनिधि चुनकर होना था, तत्पश्चात दूसरा वृत्त ऐसे बीस प्रतिनिधियों द्वारा अपने प्रतिनिधि के चुनाव से बनना था. निरंतर रूप से इसी क्रम द्वारा अंतिम वृत्त भारत की राजव्यवस्था का स्वरुप निर्धारित करता. जिसमें चुने हुए प्रतिनिधि राष्ट्र की राजनीतिक व्यवस्था का संचालन करते. गाँधी जी राष्ट्र की संप्रभुता को भारत के गाँवो में केंद्रित मानते थे. इसी ग्राम आधारित संप्रभुता का पोषण करते हुए अपनी वृत्त आधारित व्यवस्था का.. जिसमें हर बाहरी वृत्त अपने आतंरिक वृत्त और उसकी संप्रभुता का आदर करता है.

गाँधी जी का कथन है, ” असंख्य गाँव से बने इस ढांचे में कभी भी आरोहणशील नहीं, बल्कि सतत विस्तारशील वृत्त होंगे. जीवन का यह रूप पिरामिड जैसा नहीं होगा, जिसमें शीर्षस्थ खंड का बोझ निम्नस्थ खंड उठाता है. वह महासागरीय वृत्त के समान होगा, जिसका केंद्र गाँव के लिए हमेशा मर मिटने को तैयार व्यक्ति होगा, और वह गाँव, गाँव के वृत्त के लिए मिट जाने को तत्पर रहेगा. इस तरह अंत में व्यक्तियों से बना यह संपूर्ण ढांचा एक जीवन का रूप ले लेगा. उसके अंतर्गत व्यक्ति आक्रामक नहीं, बल्कि विनयशील होंगे और सभी उस महासागरीय वृत्त की भव्यता के सहभागी होंगे जिसके कि वे अभिन्न अंग है. इसलिए सबसे बाहरी परिधि में जो सत्ता निहित होगी वह आतंरिक वृत्त को कुचलने के लिए नहीं, बल्कि सभी को शक्ति देने के होगी और वह परिधि स्वयं उन वृत्त से शक्ति प्राप्त करेगी.”(सम्पूर्ण गाँधी वांगमय खंड 85 के पृष्ठ 32)

गाँवों की आत्मनिर्भरता के अन्य दो मुख्य बिंदु सामाजिक और सांस्कृतिक आत्मनिर्भरता है.  गाँव सांस्कृतिक इकाई होने के साथ ही भारत के सामाजिक जीवन के आधार स्तम्भ रहें हैं. सांस्कृतिक और सामाजिक आत्मनिर्भरता के बिना आत्मनिर्भर ग्राम की संकल्पना पूर्ण नहीं होगी. संस्कृति अथवा परिष्कार (Refinement) आत्मिक एवं बौद्धिक प्रगति की सूचक है.  ऋग्वेद के अनुसार, ‘सा संस्कृति: प्रथिमा विश्ववारा’. चोल शासन प्रणाली के अंतर्गत ग्राम पंचायतें संस्कृति की सबसे बड़ी संरक्षक थीं. चोल सम्राट परांतक प्रथम के उत्तरमेरुर अभिलेखों(919 से 921ई.) से इनकी विशेषताओं की जानकारी मिलती है. भारत के सामाजिक संबंध और सामूहिकता, सामुदायिकता और सहकारिता के आधारभूत मंत्र पर चलने वाली व्यवस्था का आधार ग्राम पंचायतें रहीं हैं. पंचायतों को यदि सुदृढ़ किया जाए तो यह सामूहिक कार्यों के अतिरिक्त महामारी और प्राकृतिक आपदाओं से निजात दिलाने, भूमि, सीमा, उत्तराधिकार और वैवाहिक आदि विवादों को सुलझाने की एक स्वस्फूर्त व्यवस्था साबित हो सकती है.

 औपनिवेशिक काल में भारतीय संस्कृति पर हावी होती पश्चिमी सभ्यता के विरुद्ध गाँधी जी का तर्क है कि,”यूरोप की  यांत्रिक और कृत्रिम सभ्यता जो हमारे देश में पैठ गई है उसे हमें निकाल बाहर करना है. उसकी जरुरत हमें कतई नहीं है. हमारी जो प्राचीन संस्कृति थी मै उसे जीवित करना चाहता हूँ उसी में हमारा सुख हमारी समृद्धि और शांति निहित थी और यदि हम अपनी प्राचीन संस्कृति को अपना सकें तो जगत में शांति स्थापित करने के कार्य में दीप स्तंभ का कार्य करेंगे. राष्ट्र को आज की अपेक्षा अधिक आत्मचिंतन करना चाहिए. परस्पर विरोध प्रतिस्पर्धा और धनवान कैसे बना जाए यह सब सोचने के बज़ाय हमें कौटुंबिक भावना का प्रसार करना चाहिए. आदर्श तो उसे ही कहा जा सकता है जिसमें मनुष्य मानवी ढंग से जीवन जी सके और उसे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पूर्णता प्राप्त करने का अवसर मिले.” (संपूर्ण गाँधी वांगमय खंड 88, पृष्ठ 82)

आत्मनिर्भर गाँव सही मायने में आत्मनिर्भर तभी होंगे ज़ब वे न्यायिक पहलू से भी स्वआश्रित हो. मानव सभ्यता के इतिहास में पंचायतों का प्रारंभिक स्वरुप न्यायिक संस्था का ही था. पंचायतों के माध्यम से किये गये निर्णय को दोनों पक्ष स्वीकार कर लेते हैं. इससे ग्रामीण समाज की समरसता बनी रहती है. जबकि कई सालों तक कोर्ट-कचहरी के चक्कर काटकर और लाखों रूपये खर्च कर भी न्याय नहीं मिलता. ऊपर से प्रशासन पर दबाव भी बढ़ता है. गांधी जी का कहना था कि, ‘ग्राम पंचायतें, राज्य के न्याय सम्बंधी कार्य में पर्याप्त कमी कर देंगी.’

 स्वास्थ्य की आत्मनिर्भरता एक ऐसा पहलू हैं. गाँधी जी सदैव भारत की पारम्परिक चिकित्सा पद्धति के समर्थक रहें हैं. जोहांसबर्ग में ज़ब भारतीय खनिकों में काला प्लेग फैला तब गाँधी जी मिट्टी और जल चिकित्सा से कुछ मरीज़ो को बचाने में सफल हुए. भारत सरकार पिछले कुछ वर्षों से आयुर्वेद, रस, सिद्ध जैसी भारतीय चिकित्सा पद्धतियों के विकास और विस्तार में संलग्न है. ऐसे में पंचायतें इसका सबसे प्रभावी माध्यम साबित हों सकती हैं. ग्रामीण समाज परंपरागत रूप से इससे जुड़ा है, दूसरे जड़ी – बूटीयों की उपलब्धता ग्रामीण क्षेत्रों में सुलभ है.

इसके अलावा शिक्षा एक अन्य मुद्दा है जिस पर पंचायतें प्रभावी कार्य कर सकती हैं. राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी के समर्थक होते हुए भी गाँधी जी का मानना था कि बच्चों की प्रारंभिक शिक्षा का माध्यम उनकी मातृभाषा होनी चाहिए.

1920 में कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन में उनके द्वारा लिखित संगठन के संविधान में प्रांतीय कमेटियों का गठन भाषाई आधार पर करना स्वीकार हुआ. विदेशी भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाने के विचार का गाँधी जी नै सदैव विरोध किया. वे लिखते हैं, “अंग्रेज हिंदुस्तान छोड़ रहे हैं, मगर यहां के लोगो गुलामी के इतने आदी हों गये हैं कि अब भी अंग्रेजी भाषा का लालच नहीं छोड़ते जिस पर पूरा अधिकार करने की कोई कभी उम्मीद नहीं कर सकता. अंग्रेजों ने तलवार के जोर से जो विजय पाई, उससे हुईं उनकी भाषा की विजय, हमारे सबसे बुरी गुलामी साबित हुईं है. (संपूर्ण गाँधी वांगमय खंड 88, पृष्ठ 441). पंचायतें स्थानीय शिक्षा के माध्यम, विषय आदि के सम्बन्ध में बेहतर निर्णयन कर सकती हैं. अतः प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था को पूर्णतः स्थानीय निकायों के सुपुर्द कर दिया जाना चाहिए.

गाँवों के आत्मनिर्भरता का एक बड़ा सकरात्मक पहलू शहरों की ओर पलायन का रुकना.. अभी इस पलायन से शहरों पर दबाव बढ़ता जा रहा है और पूरी व्यवस्था ध्वस्त हो रही है. इसलिए  आत्मनिर्भर गाँव पलायन के विरुद्ध प्रभावी रोक लगाएंगे तथा व्यक्ति अपने परिवार और जड़ों से भी जुड़ा रहेगा. हालांकि,पलायन के अंतर्गत सामाजिक नैतिकता का एक बिंदु भी है. दूसरे दृष्टिकोण से देखें तो इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति के कारण सामाजिक संबंधों में परंपरागत, भावनात्मक टूटने लगे, आर्थिक मापदंड ही सम्बधों का आधार बन गया. संयुक्त परिवार की प्रथा ध्वस्त हों गयी. पुरुषों के रोजगार हेतु पलायन से शहर और गाँव दोनों जगहों पर लैंगिक असमानता पैदा हुईं. परिणाम ये हुआ कि नैतिक पतन के साथ ही वेश्यावृति का संस्थागत विकास हुआ. इन परिस्थितियों को भारत के सम्बन्ध में भी देखा जा सकता है. एक सक्षम और आत्मनिर्भर गाँव भारतीय परंपराओं का संरक्षक भी साबित होगा.

नारद भक्ति सूत्र में कहा गया है, ” वादो नावलंब्य” अर्थात् जिन्हें भक्ति मार्ग का प्रचार करना है उन्हें विवाद का अवलंबन नहीं लेना चाहिए, क्योंकि “बाहुल्यावकाशत् अनियतत्वाच्च” अर्थात् विवाद बढ़ता ही जाता है, ख़त्म नहीं होता. एवं विवाद का फैसला कभी नहीं होता. अतः आजादी के बाद ग्राम आत्मनिर्भरता की जो दुर्गति हुईं उसके आरोप- प्रत्यारोप से बचते हुए भविष्य में इसकी प्रगति के पहलुओं पर विचार करने की आवश्यकता है. साथ ही विचार इस बिंदु पर भी कि, गाँधीवाद आज बदलते परिवेश में ग्रामीण आत्मनिर्भरता के लिए कितना सार्थक हो सकता है. गाँधी – दर्शन अपने बोध में ग्राम – आत्मनिर्भरता के परिपेक्ष्य में सदैव प्रासंगिक रहा है.इसी तर्क को पुष्ट करते हुए पट्टाभि सीतारमैया का यह कथन उदृत हैं, ” गाँधीवाद- सिद्धांतों या मतों का, नियमों या व्यवस्थाओं का, आदेशों या निषेधों का समूह नहीं है, वरन् जीवन की एक शैली है. यह जीवन की समस्याओं के प्रति एक नई धारणा का संकेत करता है, या किसी पुरानी धारणा की पुनः व्याख्या करता है, और वर्तमान समस्याओं के लिए पुरातन समाधान प्रस्तुत करता है. “

जैन आचार्य सामंतभद्र के अनुसार, “सर्वापदामन्तकरं निरन्तम् सर्वोदयम् तीर्थमिद तवैव”. वर्तमान में समाज में पैठ कर चुकी  समस्याओं के  समाधान एवं आत्मनिर्भर गाँव की संकल्पना को साकार करने के हेतु गाँधी जी के सर्वोदयी सिद्धांतों के आलोक में प्रयास किया जाना चाहिए.

         

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