राष्ट्रीय एकात्मता एवं हमारा प्रयास – दत्तोपंत ठेंगड़ी

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ बहादुर आदमी को कायर बनाता है? यह प्रश्न विचारणीय है। यह आप जो सोचते हैं वह भी सत्य हो सकता है। किन्तु यह विषय लेने की इच्छा मेरे मन में क्यों आई? क्योंकि हमें एक बात का आश्चर्य हुआ कि पंजाब के लोगों को आतंकवाद के इस सत्य का साक्षात्कार इतनी देरी से क्यों हुआ? यह तो पहले से ही, जब से संघ चला है ऐसे ही है। तो इस बात को समझने में पंजाब के लोगों को और बाहर वालों को इतनी देर लग गई इसी का हमें आश्चर्य हुआ और इसके कारण ऐसा शक हुआ कि शायद यह कायरता है। इस सत्य में भी एक मैथेड है। मैथेड जो पंजाब के लोगों को बताना होगा। ये समझना चाहिए कि यदि इस सत्य का साक्षात्कार बड़ी देरी से हुआ तो इसके पीछे भी मैथेड है। इसके पीछे जो मैथेड है इतना ही केवल बताने के लिए आज का बौद्धिक वर्ग है।

आपको तो पता अब चला मेरे कान में जब यह बात आई तो मैं छोटा था और यह मेरे लिए समझना भी कठिन था। आठ-नौ साल की मेरे उम्र थी उस समय पहली बार ऐसी बात हमारे ज्ञान में आई जिसको मैं पूरी तरह नहीं समझ सका। अब समझ सका हूं। ऐसा था कि 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का निर्माण हुआ। परम पूजनीय डाक्टर जी राजनैतिक दृष्टि से डा. मुंजे के ग्रुप में थे। आपने जीवनी में डा. मुंजे का नाम पढ़ा होगा। डा. मुंजे के ग्रुप में डाक्टर जी एक श्रेष्ठ कार्यकर्ता थे। मेरे पिताजी, ऐसे श्रेष्ठ कार्यकर्ता नहीं थे। लेकिन डा. मुंजे के ग्रुप में छोटा बड़ा काम सामान्य कार्यकर्ता के रूप में हमारे पिता जी भी कर रहे थे। डाक्टर जी के समकालीन थे। डाक्टर जी से सम्बन्ध भी था। पिता जी के मन में डाक्टर जी के प्रति बहुत श्रद्धा थी, प्रेम भी था, नाराजगी भी थी। और यह बात केवल हमारे पिताजी को नहीं थी। राजनैतिक दृष्टि से डाक्टर जी डा. मंजे के ग्रुप में थे, सारे हिंदुत्ववादी थे। उनमें से कई लोगों के मन में डाक्टर जी के प्रति ऐसी ही प्रतिक्रिया थी- प्रेम एवं श्रद्धा के साथ-साथ नाराजगी भी।

हमारे यहां जो लोग बात करते थे तो इसमें बस इतना था। दोनों बातें डाक्टर जी के बारे में हैं और कारण क्या था जो वे बोलते थे। अब हमें समझ में आ रहा है। कहते थे कि डा. हेडगेवार इतना अच्छा आदमी था। प्रखर देश भक्त, प्रखर हिंदुत्व निष्ठ, बहुत जोशीला, बंगाल में जाकर प्रत्यक्ष क्रांतिकारी दल में जिसने हिस्सा लिया है। बंगाल से वापस आने के बाद भी क्रांतिकारी आंदोलन चला रहा है। बंगाल और बाकी प्रदेशों के बीच आरगेनाईजेशन का काम डाक्टर जी के पास था। खासकर शस्त्रास्त्रों को इधर से उधर भेजने का काम डाक्टर जी ने बहुत साल तक किया। ऐसे प्रखर क्रांतिकारी थे डाक्टर जी। फिर कांग्रेस के आंदोलन में भी हिस्सा लिया। उनके भाषण कितने ओजस्वी होते थे यह तो सबको पता है। 1921 में जब उनको अरेस्ट किया गया और राजद्रोह का मामला उन पर दर्ज किया गया तब उन्होंने जो अपने बचाव में भाषण दिया उस पर कोर्ट ने अपने जजमेंट में लिखा कि उनका बचाव भाषण उनके मूल भाषण से ज्यादा आपत्तिजनक है। यानी जिस भाषण का बचाव करने के लिए उन्होंने भाषण दिया वह बचाव का भाषण मूल भाषण से भी ज्यादा राजद्रोह कारक था। ऐसा जज साहब ने कहा।

एक ही ग्रुप के होने के कारण पिता जी भी जानते थे कि बड़े तेजस्वी, प्रखर ओजस्वी भाषण डाक्टर जी के होते थे। अब यह शिकायत करने लगे कि जब संघ की स्थापना हो गई तो उल्टा ही हुआ। उनके भाषण में कोई प्रखरता नहीं रही, तेजस्विता नहीं रही। जैसे ग्रामोफोन में रिकार्ड लगा दी है कि हिंदू समाज है इसका संगठन करना चाहिए। तो इससे कोई तेज तप होता है क्या? इसके कारण कोई जोश आ सकता है क्या? यही आदमी जो 1925 से पहले इतने जोशीले भाषण देता था आज ऐसे ढीले भाषण दे रहे हैं। केवल हिंदू संगठन बस इसके सिवाय कुछ नहीं। पहले तो अंग्रेजों को गाली देना, ये करना, वो करना सब होता था अब क्या हो गया है इसको? यह बात मन में आती थी। क्रांतिकारियों में हिस्सा लेना चल रहा था। सभी लोगों के साथ संबंध भी था। जैसे उदाहरण के लिए रामलाल वाजपेयी बड़े क्रांतिकारी थे। फिर अमेरिका में चले गए उनके साथ भी डाक्टर जी आना-जाना रखते थे। भगतसिंह, राजगुरू, सुखदेव में से राजगुरू थे, जिन्हें कई दिन तक अण्डरग्राउण्ड रखने का काम डाक्टर जी ने किया था। तरह-तरह के क्रांतिकारियों के साथ उनका प्रत्यक्ष संबंध रहा। लेकिन अब भाषा इतनी मोडरेट, माइल्ड, सौम्य। क्या हो गया इसको? यह मेरे पिताजी के दोस्त भी कहते थे और फिर उनको एक बात का आश्चर्य हुआ।

1927 में हिंदू-मुस्लिम दंगा हुआ। इन दंगों में हिंदुओं ने इतनी मार दी मुसलमानों को कि मुसलमान सर नहीं उठा सका। यह इसी के कारण संभव था कि 1925 में जो संघ का  कार्य प्रारंभ हुआ वह जवान लोगों का गुट था। उसी गुट के कारण मुसलमानों को इतनी मार पड़ी। ये सब जानते थे। क्या डा. मुंजे क्या उनके ग्रुप के लोग। हमारे पिताजी वगैरा भी इस राय के थे कि भई ये जो डाक्टर जी ने अखाड़ा खड़ा किया था इसी अखाड़े के कारण मुसलमानों की पिटाई हुई है। तो यह डंके की चोट पर कहना चाहिए। हम कोई झूूठ नहीं बोल रहे, बात सही है लेकिन डा. हेडगेवार यह भी नहीं बोल रहे। वे कह रहे हैं कि जो विजय हिंदुओं की नागपुर में हुई वह हिंदू समाज के पराक्रम के कारण हुई। अरे पराक्रम तो तुम्हारे लोगों का था स्वयंसेवकों का था क्यों नहीं अपनाते उसको। क्यों नहीं बताते कि हमारे कारण हुआ है। लेकिन इतनी बुद्धिमानी डा. हेडगेवार जी में नहीं थी। वह कहते थे कि हिंदू समाज के पराक्रम के कारण ये हिंदुओं की विजय हुई है। और आपने देखा होगा कि परम पूजनीय डा. जी का या गुरुजी का या बाला साहब जी का कोई ऐसा वाक्य नहीं है जिसमें उन्होंने कहा हो कि हम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नाम की संस्था को इतना प्रबल बनाएंगे कि दुनिया में कोई भी हमारी सरफ तिरछी नजर से देख नहीं सकेगा। ऐसा किसी ने कहा था क्या? उन्होंने कहा था, समाज को इतना प्रबल बनाएंगे कि हिंदू समाज की तरफ तिरछी नजर से देखना संभव न होगा। अब बारीकी है पर समझने लायक है। तो दंगे में आपके ही लोगों के कारण यशस्वी हुए क्यों उसको ओन नहीं कर रहे? क्या ढीला आदमी हो गया है। एक समय का क्रांतिकारी। तो यह नाराजगी इन लोगों में थी। खैर मैं तो आठ-नौ साल का था। इसलिए उस समय थोड़ा-थोड़ा सुना और अब उसका अर्थ संदर्भ समझ रहा हूं। उस समय तो कुछ नहीं समझता था।

भगत सिंह, राजगुरू, सुखदेव को फांसी की सजा हुई सारे देश में उसकी प्रतिक्रिया हुई और उसके कारण शाखा में किशोर स्वयंसेवक बढ़ने लगे थे। कुछ युवा अवस्था में प्रवेश करने वाले थे। ऐसे कुछ स्वयंसेवकों के मन में भी यह विचार आया कि अब यह शांति से होने वाला काम नहीं। हमको भी कुछ ऐसा क्रांतिकारी कार्य करना चाहिए। बम कैसे बनाना, पिस्तौल कैसे लाना, बंदूक कैसे लाना वगैरा। सब शुरू हुआ। डा. जी की विशेषता थी कि उनका सभी स्तर पर प्रत्यक्ष संपर्क रहता था। इसके कारण स्वयंसेवकों के मन में क्या चल रहा है वह जानते थे। ऐसा सोचने वाले स्वयंसेवकों का जो ग्रुप था उनमें से कुछ लोगों की आज मृत्यु हो गई है। कुछ लोग आज संघ के उच्च पदों पर भी हैं। लेकिन उस समय किशोर स्वयंसेवक, युवा अवस्था में पदार्पण करने वाले स्वयंसेवकों में ये सारा चल रहा था। डा. जी को किसी ने सीधा ये बोला तो नहीं कि पिस्तौल इकट्ठा कैसे किया जाए? बम कैसे बनाते हैं? तो डा. जी ने इन लोगों को बुलाया और एक रात कुछ ऐसी चर्चा की जिससे सभी को आश्चर्य हुआ। सभी कह रहे थे डा. जी सब काम आपने भी तो किया है। अभी तक तो आप भी क्रांतिकारियों के भक्त थे। वहीं काम हम कर रहे हैं और आप हमें कह रहे हैं कि इस काम में नहीं लगना चाहिए। तब डा. जी ने कहा कि मैं ये काम कर चुका हूं इसलिए मैं तुम्हें कह रहा हूं। ये काम तुम्हें नहीं करना चाहिए। इस काम की उपयोगिता कितनी है और उपयोगिता की मर्यादा कितनी है मैं अच्छी तरह से जानता हूं। क्योंकि सालों तक मैंने क्रांति कार्य किया है। तुम बच्चे अभी सीख रहे हो मैंने तो सालों तक यह काम किया है इसलिए इसकी उपयोगिताओं की सीमाएं जान ली हैं। यह अपना रास्ता नहीं। सबको आश्चर्य हुआ। खैर शस्त्र की बात छोड़ो, बम-पिस्तौल की बात छोड़ो।

(दिसंबर 1990 की 23 से 25 तारीख तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक की ओर से लुधियाना में आयोजित सम्मेलन में दत्तोपंत ठेंगड़ी का व्याख्यान)

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