नई तालीम

आमतौर पर नई तालीम का अर्थ किया जाता है- उद्योग द्वारा शिक्षा देना। लेकिन यह कुछ अंश तक ही ठीक है । नई तालीम की जड़ इससे गहरी जाती है । उसका आधार है— सत्य और अहिंसा । व्यक्तिगत जीवन और सामाजिक जीवन, दोनों में ये दो ही उसके आधार हैं। विद्या वह है जो मुक्ति दिलानेवाली हो – ‘ सा विद्या या विमुक्तये ।’ झूठ और हिंसा तो बंधनकारक हैं। उनका शिक्षा में कोई स्थान नहीं हो सकता। कोई धर्म यह नहीं सिखाता कि बच्चों को असत्य और हिंसा की शिक्षा दो । सच्ची शिक्षा हर एक को सुलभ होनी चाहिए। वह कुछ लाख शहरियों के लिए ही नहीं, बल्कि करोड़ों देहातियों के लिए उपयोगी होनी चाहिए। ऐसी शिक्षा कोरी पोथियों से थोड़े मिल सकती है । उसका सांप्रदायिक धर्म से भी कोई संबंध नहीं हो सकता । वह तो धर्म के उन विश्वव्यापी सिद्धांतों की शिक्षा देती है, जिनमें से सब संप्रदायों के धर्म निकले हैं। यह शिक्षा तो जीवन की पुस्तक से मिलती है। उसके लिए कुछ खर्च नहीं करना पड़ता और उसे ताकत के जोर से कोई छीन नहीं सकता।

मेरा मत है कि बुद्धि का सच्चा विकास हाथ, पैर, कान, नाक, आँख आदि अवयवों के सदुपयोग से ही हो सकता है, अर्थात् शरीर का ज्ञानपूर्वक उपयोग करते हुए बुद्धि का विकास सबसे अच्छा और जल्दी-से-जल्दी होता है। इसमें भी यदि पारमार्थिक वृत्ति का मेल न हो तो बुद्धि का विकास एकतरफा होता है। पारमार्थिक वृत्ति हृदय .. अर्थात् आत्मा का क्षेत्र है । अतः यह कहा जा सकता है कि बुद्धि के शुद्ध विकास के लिए आत्मा और शरीर का विकास साथ-साथ तथा एक-सी गति से होना चाहिए । इससे अगर कोई यह कहे कि ये विकास एक के बाद एक हो सकते हैं तो यह ऊपर की विचार – सरणी के अनुसार ठीक नहीं होगा ।

हृदय बुद्धि और शरीर के बीच मेल न होने से जो दुस्सह परिणाम आया है, वह प्रकट है तो भी गलत आदत के कारण हम उसे देख नहीं सकते। गाँवों के लोगों का पालन-पोषण पशुओं के बीच होने के कारण वे मात्र शरीर का उपयोग यंत्र की भाँति किया करते हैं; बुद्धि का उपयोग वे करते ही नहीं और उन्हें करना भी नहीं पड़ता । हृदय की शिक्षा उनमें नहीं के बराबर है । इसलिए उनका जीवन यों ही गुजर रहा है, जो किसी भी काम का नहीं रहा है । और दूसरी ओर आधुनिक कॉलेजों तक की शिक्षा पर जब हम नजर डालते हैं तो वहाँ बुद्धि के विकास के नाम पर बुद्धि के विलास की ही तालीम दी जाती है ।

लोग ऐसा समझते हैं कि बुद्धि के विकास के साथ शरीर का कोई मेल नहीं है । पर शरीर को कसरत तो चाहिए ही, इसलिए उपयोग रहित कसरतों से उसे निभाने का मिथ्या प्रयोग होता है । पर चारों ओर से मुझे इस तरह के प्रमाण मिलते ही रहते हैं कि स्कूल-कॉलेजों से पास होकर जो विद्यार्थी निकलते हैं, वे मेहनत-मशक्कत के काम में मजदूरों की बराबरी नहीं कर सकते। जरा सी मेहनत की कि उनका माथा दुखने लगता है और धूप में घूमना पड़े तो उन्हें चक्कर आने लगते हैं । यह स्थिति स्वाभाविकमानी जाती है। बिना जूते खेत में जैसे घास उग आती है, उसी तरह हृदय की वृत्तियाँ आप ही उगती और कुम्हलाती रहती हैं । और यह स्थिति दयनीय मानी जाने के बदले प्रशंसनीय मानी जाती है !

इसके विपरीत, यदि बचपन से बालकों के हृदय की वृत्तियों को ठीक तरह से मोड़ा जाए, उन्हें खेती, चरखा आदि उपयोगी कामों में लगाया जाए और जिस उद्योग द्वारा उनका शरीर खूब कसा जा सके, उस उद्योग की उपयोगिता और उसमें काम आने वाले औजारों वगैरह की बनावट आदि का ज्ञान उन्हें दिया जाए तो उनकी बुद्धि का विकास सहज ही होता जाए और नित्य उसकी परीक्षा भी होती जाए। ऐसा करते हुए गणितशास्त्र आदि के जिस ज्ञान की आवश्यकता हो, वह उन्हें दिया जाए और आनंद के लिए साहित्य आदि का ज्ञान भी देते जाएँ तो तीनों वस्तुएँ समतल हो जाएँ और उनका कोई अंग अविकसित न रहे। मनुष्य न केवल बुद्धि है, न केवल शरीर है और न केवल हृदय या आत्मा है। तीनों के एक समान विकास से ही मनुष्य का मनुष्यत्व सिद्ध होगा । इसी में सच्चा अर्थशास्त्र है ।

अगर हम ऐसी शिक्षा देना चाहते हैं, जो गाँवों की आवश्यकताओं के लिए सबसे अधिक उपयुक्त हो तो विद्यापीठ को हमें गाँवों में ले जाना चाहिए। विद्यापीठ को हमें एक प्रशिक्षणशाला में परिणत कर देना चाहिए, जिससे कि हम ग्रामवासियों की आवश्यकता के अनुसार अध्यापकों को शिक्षा दे सकें। शहर में प्रशिक्षणशाला रखकर उसके द्वारा ग्रामवासियों की आवश्यकताओं के अनुसार आप अध्यापकों को तालीम नहीं दे सकते; उन्हें गाँवों के प्रश्नों में दिलचस्पी लेने और वहाँ रहने के लिए तैयार करना कोई आसान काम नहीं। सेगाँव में रोज ही मेरा यह मत दृढ़ होता जाता है । मैं आपको यह यकीन नहीं दिला सकता कि हम सेगाँव में रहकर ग्रामवासी बन गए हैं या किसी सार्वजनिक हित में हमने ग्रामवासियों के साथ ऐक्य स्थापित कर लिया है।

प्राथमिक शिक्षा के बारे में मेरा यह दृढ़ मत है कि वर्णमाला तथा वाचन और लेखन से शिक्षा का आरंभ करने से बालकों की बुद्धि का विकास कुंठित- -सा हो जाता है। जब तक उन्हें इतिहास, भूगोल, गणित और कताई की कला का प्रारंभिक ज्ञान न हो जाए तब तक मैं उन्हें वर्णमाला नहीं सिखाऊँगा । इन तीन चीजों के द्वारा मैं उनकी बुद्धि को विकसित करूँगा ।

यह प्रश्न पूछा जा सकता है कि तकली या चरखे के द्वारा किस तरह बुद्धि विकसित की जा सकती है ? अगर यह कला महज यंत्र की तरह न सिखाई जाए तो वह आश्चर्यजनक रीति से बुद्धि का विकास कर सकती है। जब आप बालक को हर एक क्रिया का ठीक-ठीक कारण समझाएँगे, जब आप उसे तकली या चरखे के हर एक कल-  पुरजे के बारे में बताएँगे, जब आप उसे कपास और सभ्यता के साथ उसके संबंध के इतिहास का ज्ञान देंगे और अपने साथ उसे गाँव के कपास के खेत में ले जाएँगे और जब आप उसे उसके काते हुए सूत की समानता और मजबूती जानने का तरीका या तार गिनना सिखाएँगे तब आप उसका दिल तो कताई की कला की तरफ आकर्षित करेंगे ही, साथ ही उसके हाथों, उसकी आँखों और उसकी बुद्धि को भी साधते जाएँगे।

इस प्रारंभिक शिक्षा को मैं छह महीने दूँगा । इतने समय में बालक शायद यह सीखने के लिए तैयार हो जाएगा कि वर्णमाला किस तरह पढ़ी जाती है; और जब वह वर्णमाला जल्दी-जल्दी पढ़ने के योग्य हो जाएगा तो सादा ड्राइंग सीखने के लिए तैयार हो जाएगा। और जब वह रेखागणित की शक्लें तथा चिड़ियों वगैरह के चित्र खींचने लगेगा तो वह अक्षरों को बिगाड़कर नहीं लिखेगा। मुझे अपने बचपन के दिन याद हैं, जब मुझे वर्णमाला सिखाई जाती थी । मैं जानता हूँ कि मुझे कितनी कठिनाई पड़ती थी। किसी को यह परवाह नहीं थी कि मेरी बुद्धि पर क्यों जंग लगाया जा रहा है! लेखन-कला को मैं एक ललित कला मानता हूँ। छोटे-छोटे बच्चों की बुद्धि पर वर्णमाला को लादकर और उसे शिक्षा का श्रीगणेश मानकर हम इस कला का गला घोंट देते हैं। इस तरह हम लेखन-कला के साथ हिंसा करते हैं और योग्य समय के पहले ही वर्णमाला सिखाने का प्रयत्न करके हम बालक की बढ़त को मार देते हैं।

गाँव की दस्तकारियों की तालीम को शिक्षा का मध्य बिंदु समझने की आवश्यकता और महत्त्व के विषय में मुझे जरा भी शंका नहीं है। हिंदुस्तान के शिक्षा – संस्थानों में जो प्रणाली अख्तियार की गई है, उसे मैं शिक्षा नहीं कहता; वह मनुष्य की बुद्धि के सर्वोत्तम अंश को विकसित करनेवाली शिक्षा नहीं है, बल्कि बुद्धि का विलास है। बुद्धि को वह किसी तरह सूचनाओं से अवगत कर देती है । बुद्धि का सच्चा व्यवस्थित विकास तो शुरू से ही गाँव की दस्तकारियों द्वारा बुद्धि को शिक्षा देने की प्रणाली से होगा और फलतः बौद्धिक शक्ति और अप्रत्यक्ष रीति से आध्यात्मिक शक्ति की भी उससे रक्षा होगी।

जुदा-जुदा विषयों पर मेरी जो तजबीजें हैं, उनमें हाथ अक्षर बनाने या लिखने की कोशिश करने के पहले औजार चलाने का काम करेंगे। आँखें जैसे जिंदगी की दूसरी चीजें देखती हैं, उसी तरह अक्षरों और शब्दों के चित्र देखेंगी; कान चीजों और वाक्यों के नाम एवं अर्थ को समझेंगे। सारी शिक्षा कुदरती और रस पैदा करनेवाली होगी और इसीलिए देश की सब शिक्षाओं से तेज रफ्तार वाली तथा सस्ती रहेगी। इसलिए मेरे स्कूल के लड़के जितनी तेज रफ्तार से लिखेंगे, उससे भी अधिक तेज रफ्तार से वे पढ़ने लगेंगे। और जब ये लिखना शुरू करेंगे तो भद्दी लकीरें नहीं खींचेंगे, जैसेकि मैं अब तक (शिक्षकों की कृपा से ) खींचता रहता हूँ, बल्कि जिस तरह वे अपने को दिखाई देने वाली दूसरी चीजों की ठीक शक्लें खींच सकेंगे उसी तरह अक्षरों की भी ठीक शक्लें बना सकेंगे। अगर मेरे कयास के स्कूल कभी कायम हों तो मैं यह कहने का साहस करता हूँ कि वाचन के मामले में वे सबसे आगे बढ़े हुए स्कूलों के साथ होड़ कर सकेंगे; और अगर यह आम खयाल हो कि लिखावट, जैसी कि आजकल ज्यादातर मामलों में होती है, वैसी गलत नहीं बल्कि सही तरीके की हो तो लिखावट में भी मेरे ये स्कूल आज के उन्नत-से – उन्नत स्कूल की बराबरी कर सकेंगे।

प्राथमिक शिक्षा का पाठ्यक्रम कम-से-कम सात साल का हो। इसमें बच्चों को इतना सामान्य ज्ञान मिल जाना चाहिए, जो उन्हें साधारणतया मैट्रिक तक की शिक्षा में मिल जाता है। इसमें अंग्रेजी नहीं रहेगी। उसकी जगह कोई एक अच्छा सा उद्योग सिखाया जाएगा। लड़कों और लड़कियों का सर्वतोमुखी विकास हो, इसलिए सारी शिक्षा जहाँ तक हो सके, ऐसे उद्योग द्वारा दी जानी चाहिए, जिसमें कुछ उपार्जन भी हो। इसे यों भी कह सकते हैं कि इस उद्योग द्वारा दो हेतु सिद्ध होने चाहिए – एक तो विद्यार्थी उस उद्योग की उपज और अपने श्रम से अपनी पढ़ाई का खर्च अदा कर सकें और दूसरे स्कूल में सीखे हुए इस उद्योग द्वारा उस लड़के या लड़की में उन सभी गुणों और शक्तियों का पूर्ण विकास हो जाए, जो एक पुरुष या स्त्री के लिए आवश्यक हैं। पाठशाला की जमीन, इमारतों और दूसरे जरूरी सामान का खर्च विद्यार्थी के परिश्रम से निकालने की कल्पना नहीं की गई है।

कपास, रेशम और उनकी बुनाई से लेकर सफाई, (कपास की) लुड़ाई, पिंजाई, कलाई, रँगाई, मांड लगाना, ताना लगाना, दो सूती (दुबटा) करना, डिजाईन (नमूने) बनाना तथा बुनाई आदि तमाम क्रियाएँ और कसीदा काढ़ना, सिलाई करना, कागज बनाना, कागज काटना, जिल्दसाजी करना, आलमारी, फर्नीचर वगैरह तैयार करना, खिलौने बनाना, गुड़ बनाना इत्यादि ऐसे निश्चित उद्योग हैं, जिन्हें आसानी से सीखा जा सकता है और जिन्हें चलाने के लिए बहुत बड़ी पूँजी की भी जरूरत नहीं होती ।

इस प्रकार की प्राथमिक शिक्षा से लड़के और लड़कियाँ इस लायक हो जाएँ कि वे अपनी रोजी कमा सकें, इसके लिए यह जरूरी है कि जिन धंधों की शिक्षा उन्हें दी गई हो, उनमें राज्य उन्हें काम दें । अथवा राज्य द्वारा निश्चित की गई कीमतों पर सरकार उनकी बनाई हुई चीजों को खरीद लिया करे ।

परंतु समस्त राष्ट्र की दृष्टि से हम शिक्षा में इतने पिछड़े हुए हैं कि अगर शिक्षा- प्रचार के लिए हम केवल धन पर ही निर्भर रहेंगे, तो एक निश्चित समय के अंदर राष्ट्र के प्रति अपने फर्ज को अदा करने की आशा हम कभी कर ही नहीं सकते । इसलिए मैंने यह सुझाने का साहस किया है कि शिक्षा को हमें स्वावलंबी बना देना चाहिए। फिर लोग भले ही मुझे यह कहें कि मेरे अंदर किसी रचनात्मक कार्य की योग्यता नहीं है । शिक्षा से मेरा मतलब है – बच्चे या मनुष्य की तमाम शारीरिक, मानसिक और आत्मिक शक्तियों का सर्वतोमुखी विकास। अक्षर ज्ञान न तो शिक्षा का आरंभ है और न अंतिम लक्ष्य। वह तो उन अनेक उपायों में से एक है, जिनके द्वारा स्त्री-पुरुषों को शिक्षित किया जा सकता है। फिर सिर्फ अक्षरज्ञान को शिक्षा कहना गलत है। इसलिए बच्चे की शिक्षा का प्रारंभ मैं किसी दस्तकारी की तालीम से ही करूँगा और उसी क्षण से उसे कुछ निर्माण करना सिखा दूँगा। इस प्रकार हर एक पाठशाला स्वावलंबी हो सकती है। शर्त सिर्फ यह है कि इन पाठशालाओं की बनी चीजें राज्य खरीद लिया करे।

मेरा मत है कि इस तरह की शिक्षा-प्रणाली द्वारा ऊँची-से-ऊँची मानसिक और आध्यात्मिक उन्नति प्राप्त की जा सकती है। सिर्फ एक बात की जरूरत है और वह यह कि आज की तरह प्रत्येक दस्तकारी की केवल यांत्रिक क्रियाएँ सिखाकर ही हम न रह जाएँ, बल्कि बच्चे को प्रत्येक क्रिया का कारण और पूर्ण विधि भी सिखा दिया करें। यह मैं आत्मविश्वास के साथ कह रहा हूँ; क्योंकि उसके मूल में मेरा अपना अनुभव है । जहाँ-जहाँ कार्यकर्ताओं को कताई सिखाई जाती है, वहाँ न्यूनाधिक पूर्णता के साथ इसी पद्धति का अवलंबन किया जाता है।

मैंने खुद इसी पद्धति से चप्पल बनाने की तथा कताई की शिक्षा दी है और उसके परिणाम अच्छे आए हैं। इस पद्धति में इतिहास और भूगोल का बहिष्कार भी नहीं है। मैंने तो देखा है कि इस तरह की साधारण और व्यावहारिक जानकारी की बातें जबानी कहने से ही अधिक लाभ होता है। लिखने और पढ़ने से बच्चा जितना नहीं सीखता, उससे दस गुनी अधिक जानकारी उसे इस पद्धति द्वारा दी जा सकती है। वर्णमाला (के चिह्नों) का ज्ञान बच्चे को बाद में भी दिया जा सकता है, जब बच्चा गेहूँ और चोकर को पहचानने लग जाए और जब उसकी बुद्धि और रुचि कुछ विकसित हो जाए । यह प्रस्ताव क्रांतिकारी जरूर है; पर इसमें परिश्रम

खूब बचत होती है और विद्यार्थी एक साल में इतना सीख जाता है, कि जिसके लिए साधारणतया उसे बहुत अधिक समय लग सकता है। फिर इस पद्धति से सब तरह से किफायत-ही-किफायत है। हाँ, विद्यार्थी को गणित का ज्ञान तो दस्तकारी सीखते हुए अपने आप ही होता रहता है।

प्राथमिक शिक्षा मेरी नजर में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण चीज है । उसकी मर्यादा मैंने यही कायम की है कि जितनी पढ़ाई मैट्रिक तक- अंग्रेजी को छोड़कर होती है, उतनी ही इसमें हो जानी चाहिए। फर्ज कीजिए कि कॉलेजों के पढ़े हुए और पढ़नेवाले सब लोग एकाएक अपनी सारी पढ़ाई भूल जाएँ तो इन कुछ लाख लोगों के स्मृति-नाश से जितनी हानि हो सकती है, वह उस हानि के मुकाबले में कुछ भी नहीं है, जो उन ३०-३५ करोड़ लोगों को अज्ञान के सागर जैसे महा अंधकार की थाह हम केवल निरक्षरता से होने वाली हानि से कभी नहीं पा सकते ।

कॉलेज की शिक्षा में भी मैं जबरदस्त क्रांति कर देना चाहूँगा । उसे मैं राष्ट्रीय जरूरतों के साथ जोड़ दूँगा । यंत्रों तथा ऐसी ही अन्य कला-कौशल संबंधी निपुणता की कुछ उपाधियाँ होंगी। वे भिन्न-भिन्न उद्योगों से संबंध रखेंगी और यही उद्योग अपने लिए आवश्यक विशारदों को तैयार करने का खर्च बरदाश्त करेंगे। जैसे टाटा कंपनी से यह अपेक्षा की जाएगी कि वह यंत्रकला – विशारदों के लिए एक महाविद्यालय राज्य की देखभाल में चलाए। इसी प्रकार मिलों के लिए आवश्यक विशारद पैदा करने के लिए एक कॉलेज मिल मालिकों का संघ चलाए। यही अन्य उद्योग भी करें। व्यापारियों का भी अपना कॉलेज रहे। अब रह जाते हैं साधारण ज्ञान (आर्ट्स), आयुर्वेद और खेती । साधारण ज्ञान के कितने ही निजी कॉलेज आज भी स्वाश्रयी हैं ही। इसलिए राज्य को अपना कोई स्वतंत्र कॉलेज खोलने की जरूरत नहीं रहेगी।

आयुर्वेद-संबंधी महाविद्यालय प्रमाणित औषधालयों के साथ जोड़ दिए जाएँगे; और चूँकि धनिक लोगों को ये प्रिय होते ही हैं, इसलिए उनसे यह अपेक्षा जरूर की जा सकती है कि वे चंदा करके इन विद्यालयों को चलाएँ। अब रहे खेती के विद्यालय । सो अगर इन्हें अपने नाम की लाज रखनी हो तो इन्हें भी स्वावलंबी बनना ही पड़ेगा। मुझे इन विद्यालयों में शिक्षा प्राप्त कुछ उपाधिकारियों का दुःखद अनुभव हुआ है। उनका ज्ञान छिछला होता है। उन्हें व्यावहारिक अनुभव नहीं होता। अगर उन्हें राष्ट्र की जरूरतों की पूर्ति करनेवाले स्वावलंबी खेतों पर काम सीखने का मौका मिला होता तो उन्हें उपाधि प्राप्त करने के बाद और वो भी अपने मालिकों के धन पर अनुभव प्राप्त करने की जरूरत हर्गिज नहीं रहती ।

अगर हमें जैसे चाहिए वैसे शिक्षक मिल जाएँ तो हमारे बच्चे श्रम- धर्म के गौरव को समझने लगेंगे और उसे वे अपने बौद्धिक विकास का साधन और महत्त्वपूर्ण अंग भी मानने लगेंगे। साथ ही वे यह भी अनुभव करने लगेंगे कि वे जो शिक्षा प्राप्त करं रहे हैं, उसका मूल्य श्रम के रूप में चुकाना भी एक प्रकार की देश सेवा ही है। मेरे सुझाव का आशय तो यह है कि हम बच्चों को दस्तकारियों की शिक्षा महज इसलिए न दें कि वे कुछ उत्पादक काम करना सीखें, बल्कि इसलिए दें कि उसके द्वारा उनकी बुद्धि का विकास हो । सचमुच अगर राज्य ७ से १४ वर्ष की उम्र के अंदर के बच्चों को अपने हाथ में ले ले, उत्पादक श्रम द्वारा उनके मन और शरीर को विकसित करने की कोशिश करे और फिर भी यह शिक्षा स्वावलंबी न हो सके, तो कहना होगा कि निश्चय ही वे पाठशालाएँ ठगी के स्थान हैं और उनमें काम करनेवाले शिक्षक निरे मूर्ख हैं ।

अभी तक हमने अपने बच्चों को शक्ति-संपन्न और उन्नत बनाने का खयाल किए बिना उनके दिमागों में किताबी बातें हँसने में ही अपनी सारी ताकत लगाई है। अब हमें इसे रोक देना चाहिए और ऊपरी कार्य की तरह नहीं, बल्कि बौद्धिक शिक्षा के प्रधान साधन की तरह हाथ-पैर के काम के जरिए बच्चों को उचित रूप से शिक्षा देने में अपनी शक्ति केंद्रित करनी चाहिए ।

मैं जिस तरह के स्कूलों की हिमायत करता हूँ, उनमें तो लड़के हाईस्कूलों में अंग्रेजी को छोड़कर जितना सीखते हैं, वह सब सीखेंगे और उसके उपरांत कवायद, संगीत, आलेखन और बेशक एकाध उद्योग भी सीखेंगे।

मैं मानता हूँ कि शिक्षा अनिवार्य और मुफ्त होनी ही चाहिए। पर बालकों को उपयोगी उद्योग देकर उसके मार्फत ही उनके मन और शरीर की शिक्षा होनी चाहिए। मैं यहाँ भी पैसों की गिनती करता हूँ, वह अनुचित नहीं है । अर्थशास्त्र नैतिक और  अनैतिक दोनों प्रकार का होता है। नैतिक अर्थशास्त्र में दोनों बाजू बराबर होंगी। अनैतिक में जिसकी लाठी उसकी भैंसका न्याय चलता है। इसका प्रमाण कितना हो, यह उसकी ताकत पर आधार रखता है। अनैतिक अर्थशास्त्र जैसे घातक है वैसे ही नैतिक अर्थशास्त्र आवश्यक है। उसके बिना धर्म की पहचान और उसका पालन मैं असंभव मानता हूँ।

 

 

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