लहू- पसीना बेचकर  जो पेट तक ना भर सके…….

उमेश सिंह

मज़दूरों के व्यथा की गवाह बनी सड़कें। उनके दुख – दर्द से भरे दारुण कथा को बयाँ कर रही थी। हाड़ तोड़ खटने के बाद भी ‘ एक चिथड़ा सुख ‘ नसीब नही होने को बयां कर रही थी। वे कुनबे के साथ हजारो किलोमीटर यात्रा करते रहे। ज़िंदगी की जंग लड़ते रहे। अदम्य जिजीविषा के साथ। उनके कंधों पर मासूम बच्चे थे और झोले भी। माँ की कोख और मातृभूमि में शायद मरने का ख़ौफ़ कम हो जाता  है

मज़दूरों की यह व्यथा-कथा का दृश्य जब भी मेरी आँखों के ज़रिए भीतर उतरता है तो मेरी चेतना का रेशा-रेशा गहरे दर्द में डूब जाता है। आक्रोश की चिनगारी भी फूटती है। नीति नियंताओ के ऊपर। पूंजीवाद की आवारगी के उपासकों के ख़िलाफ़। बचपन मे सुनी वह कविता आवाज देने लगती है जिसे हमारे गाँव -जवार के कवि शलभ श्रीराम सिंह सुनाया करते थे।
“ लहू- पसीना बेचकर 
जो पेट तक ना भर सके
करे तो क्या करें भला 
न जी सकें न मर सके 
स्याह ज़िंदगी हुई 
उनकी सुबह और शाम 
उनके आसमां को सुर्ख़ आफ़ताब चाहिए”
श्रमिकों के पास भी पूंजी है। श्रम की पूंजी। मेहनत की पूंजी। श्रम का कर्मयज्ञ करते हैं। श्रम से सने पसीने गिरते हैं , जिसके दम पर यह दुनियाँ चमक दमक रही है। खिलखिला रही है। लेकिन श्रमिकों के हिस्से में यह खिलखिलाहट या मुस्कुराहट क्यों नहीं ?दरअसल पूंजीवाद के विकट आखेटको ने मज़दूरों  को मशीन समझ रखा है। शोषण की मशीन। जो मज़दूर अपने-अपने गांवों से शहर की ओर काम की तलाश में गए थे,उनमें हौसला भरपूर था। लेकिन जब वे बेबस ,उदास ,निराश हो लौट रहे थे तो उनकी सांसे चुक सी गयी लग रही थी। हज़ारों किलोमीटर ज़िंदगी का जंग लड़ते हुए अपने घर पहुँचे तो उनके हाथ ख़ाली थे। जीवन की प्राण वायु मद्धिम हो गई थी। उखड़ सी गई थी। जिसने श्रम के पसीने से धरा को सींचा। जो अपने कंधों पर धरती का ढेर सारा बोझ उठा रखा है। आख़िर इन मेहनतकशो के जीवन में,उनके घरो में इतना अंधेरा क्यों है ?
हमें तो फ़ैज़ अहमद फ़ैज़  याद आ रहे हैं 
“हम मेहनतकश जग वालों से 
जब अपना हिस्सा माँगेंगे 
एक खेत नहीं,एक देश नहीं 
हम सारी दुनिया माँगेंगे”
कोरोना के संक्रमण काल के हाल तो यह रहा कि काम के थमते ही मज़दूरों की रसोई भी बुझने लगी। उदास होने लगी। प्रवासी मज़दूरों ने जिस मालिक के लिए खून पसीना बहाया, उसमें से ज़्यादातर ने इन श्रमिकों से मुँह मोड़ लिया। विलियम शेक्सपीयर ने कहा है
“ अपने दुख को शब्द दो। अगर उसे कहा नहीं जाएगा तो वह आपके दिल को तब तक घेरे रहेगा,जब तक वह उसके टुकड़े नहीं कर देता”
श्रमिकों के नाम पर बने संगठनों से सवाल है कि उनके शब्दों में अब वह ताक़त क्यों नहीं रही ? श्रमिक नेताओं के जो जोश और जज्बे थे, आख़िर वह जोश-जज़्बा क्यों मद्धिम पड़ गया?  साथ ही सरकारें भी सवालों के कटघरे मे है।  सरकारे गहरा मंथन कर रहे कि श्रमिकों के घरों में उजाला कैसे पहुँचे ? कल्पना करिए कि यदि मजदूर न होते तो यह दुनिया कैसी होती ? ऐसी न क़तई नही होती। संसार का पहिया उनके कारण चल रहा है । उनकी ख़ामोशी बडी खतरनाक है। समय रहते मज़दूरों की पीड़ा का निदान जरूरी है। ऐसा न हो कि अनाज के साथ ही आग भी उनमें उपजने लगे।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Name *