कर्म में रत रहने से साकार होगा रामराज्य – जे.एस.राजपूत

गांधी को कितने लोगों ने याद रखा? जिन्होंने सत्ता स्वीकार की और खुद को उनका उत्तराधिकारी घोषित किया उन्होंने उनका कितना सम्मान किया? क्या कभी उन्होंने उनकी रामराज्य के संकल्पना पर विचार करने का प्रयास किया है? हम सब लोग यहां बैठे हैं और सबने गांधी जी को पढ़ा भी होगा। हम सब कहते भी हैं कि वो बहुत अच्छे थे। मुझे उनके सामान्य भाव ज़्यादा प्रभावित करते हैं। उनके परिवार में संस्कार देने की जो परंपरा थी जिसके कारण वो अपना पहला कदम चल सके। 

हमारी सभ्यता में माँ का जो स्थान था, परिवार का जो स्थान था, संस्कारित करने के लिए जो प्रथाएं थी उन्होंने गांधी को रास्ता दिखाया। वो रास्ता कहाँ गया वो रास्ता ही हम भूल गए। प्रोफेसर यशपाल हमारे बहुत बड़े वैज्ञानिक थे एक बार मेरे कमरे में आए तो उनके साथ-साथ कुछ समाचार पत्र वाले भी आ गए चर्चा हो रही थी। उस चर्चा में एक वाक्य निकला कि आज हम विश्व में हर व्यक्ति के पड़ोसी हो गए हैं। मैं यह खड़े होकर किसी से भी संपर्क कर सकता हूँ। किसी से बात कर सकता हूँ। और दूसरा वाक्य है कि हम पड़ोसी धर्म भूल गए हैं। और दूसरा ये कि “we are neighbours not neighbourly”। अगर चर्चा करनी ही है तो भारत की संस्कृति की इस निरन्तरता पर चर्चा करनी चाहिए। गांधी उस निरन्तरता के एक बिन्दु हैं। और किस प्रकार हमारे समाज में उन्हें अलग कर दिया। 

हम एक बहुत बड़ी सभ्यता के उत्तराधिकारी हैं। पूरी दुनिया अचंभित हैं कि भारत में विश्व बंधुत्व की ये समझ इतने पहले कैसे आ गई। भारत की सभ्यता में विविधता की स्वीकार्यता इतनी पहले कैसे आ गई। ‘सर्वभूतेही तेरता’ ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ ‘वसुधैव कुटुम्बकं’  ये दर्शन के वो बिन्दु हैं जिन्हें प्राप्त करने में विद्वानों ने बहुत लंबा समय लगाया और बहुत देरी से समझ पाए। 

1960 में अमेरिका में काले गोरों की बस अलग होती थी आज के 18 साल के बच्चे को बताइए तो कहते हैं ऐसा भी होता था क्या? एक बड़ी सभ्यता का उत्तराधिकारी होने के नाते हमारा ये उत्तरदायित्व था कि उन मानवीय मूल्यों को शासन व्यवस्था में अंगीकृत करना। जो गांधी की रामराज्य की व्याख्या से निकलते हैं। दैहिक दैविक भौतिक तापा, रामराज्य नहीं काहु व्यापा; बड़े-बड़े दर्शन में न जाइए। जब ये अंश मेरे मन में आता है तब मुझे गांधी का वो वाक्य याद आता है जो वो कहते थे कि मैं आपको एक जंतर देता हूँ। उन्होंने कहा कि जब भी कोई काम करो जहाँ भी करो हमेशा ये सोचो की पंक्ति की आखिरी छोर पर खड़े व्यक्ति को इससे लाभ होगा या नहीं। 

अब आप कल्पना कीजिए कि अगर किसी देश में, राज्य में, पंचायत में अगर ऐसी व्यवस्था हो जाए तो हर एक आदमी का कष्ट दूर किया जा सकता है। कोई भूखा नहीं सोएगा। कोई बिना उपचार के नहीं मरेगा। कोई ऐसा नहीं होगा जिसके सर पर छत नहीं हो। रामराज्य का व्यावहारिक स्वरूप आज के संदर्भ में यही होना चाहिए। और उसका एक ही रास्ता है कि भारत की ज्ञानार्जन परंपरा को समझा जाए। भारत के शाश्वत ज्ञानार्जन परंपरा को समझना। हमारे यहाँ चरैवेति चरैवेति का अर्थ चार कदम आगे बढ़ना नहीं था। उसका अर्थ था ज्ञान को बढ़ाना उसे उसके उत्कर्ष पर ले जाना। और सारा ध्यान इस पर था कि इस ज्ञान का उपयोग मानव हित में कैसे हो सकता हैं। 

अध्ययन-मनन-चिंतन-उपयोग ये हमारे चार सोपान थे। पृष्ठ, प्रतिपरिष्ठ, परपृष्ठ ये हमारी पेडागोजी थी। गांधी अपने रामराज्य की अपनी सोच को आगे बढ़ाने में कहीं तो असफल हुए कि वो ऐसे लोग नहीं तैयार कर पाए जो उनकी बात एक दो पीढ़ी तो सुनते, मानते। उनके पंक्ति के आखिरी आदमी के बारे में सोचता। इसपर सोचने की आवश्यकता है। मेरा मानना है कि भारत की शिक्षा व्यवस्था को चित निर्माण पर केंद्रित करना चाहिए। मेरे जैसे अध्यापक को यह अधिकार देना है कि मैं अपने बच्चों को तुलसीदास के इन दोहों के माध्यम से उनके चित को मानवता को समर्पित कर सकूँ। ऐसे अनेकों वर्णनों के बारे में बता सकूँ और उन्हें कह सकूँ कि इसका किसी पाठ से, पंथ से, समुदाय से, धर्म से कोई संबंध नहीं है। इसका संबंध है सिर्फ मानवता से है। 

रवींद्रनाथ टैगोर और गांधी में राष्ट्रवाद को लेकर चर्चा होती थी। टैगोरे कहते थे की राष्ट्रवाद के नाम पर मैं मानवता को कुर्बान नहीं कर सकता। मैं इंसान को मानवता के क्षितिज पर देखना चाहता हूँ। तभी तो मैं ये कह सकूँगा की ‘ईश्वर अंश जीव अविनाशी’। जरूरत है की हम अपने बच्चों को ये सिखाएं की जब तुम पैदा होते हो तो तुम्हारा पितृ ऋण, दैव ऋण, और ऋषि ऋण का दायित्व बनता है। तुम्हारे शरीर की देखभाल माता-पिता करते हैं, प्रकृति तुम्हें खाने पीने को देती है, शिक्षा तुम्हें गुरु देते हैं, तुम्हारा खुद का क्या है? ऐसी ही उसके दायित्व बढ़ते जाते हैं।

गांधी जी ने बार-बार ये कहा कि भारत भूमि भोग भूमि नहीं कर्म भूमि है। यह हम अपने कर्ज उतारते रहते हैं। इसीलिए गांधी कुछ ऐसे वाक्य कह गए तो विश्व भर में लोगों को आंदोलित कर देते हैं। गांधी ने 1948 को एक पत्र लिखा यूनेस्को के डायरेक्टर जनरल को, उन्हें कहा गया की मानव अधिकारों का घोषणा पत्र हम बना रहे हैं दुनिया में किसी को तकलीफ न होगी, हर व्यक्ति को उसका अधिकार मिले, हर एक व्यक्ति को सम्मान मिले, हर एक व्यक्ति को जीवन की मूलभूत अवश्यकताएं मिले। तो गांधी जी ने इसके उत्तर में कुछ पंक्तियाँ लिखकर भेजी, उन्होंने कहा कि अगर हर व्यक्ति अपने कर्तव्यों का पूरी ईमानदारी से पालन करे तो किसी के अधिकारों का हनन नहीं होगा। 

मैंने जापान में पाया कि वहाँ ये कैसे हुआ कि शिक्षक कक्षा में 2 मिनट पहले आ जाता है। ट्रेन कभी लेट नहीं होती। ये हैं अपने कर्तव्यों का सही से पालन करने का नतीजा। जिसे दुनिया में सबसे अपमानित और नष्ट किए हुए जापान को शीर्ष पर लाकर खड़ा कर दिया। गांधी ने अपने समय के हिसाब से हमें ये बताया, विवेकानंद ने बताया और उससे भी पहले कबीर और ना जाने कितनों ने हमें ये बताया है। सभी ने अपने समय के अनुसार हमें बताया कि इस निरन्तरता को बनाए रखना कितना महत्वपूर्ण है। 

हमने एनसीआरटी में बहुत कुछ बदलाव किया हमने ये लिखा की देश के बच्चों को क्या-क्या जानना चाहिए। बताया कि बच्चों को सभी धर्मों के मूलतत्वों के बारे में पता होना चाहिए, सभी धर्मों के अंतर और समानता को समझकर उसका सम्मान करना चाहिए, और तीसरा हमें स्कूल में बच्चों को पूजा पाठ कर्मकांड नहीं करना चाहिए। भारत के सुप्रीम कोर्ट में ये मामला गया सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ये काम पहले ही हो गया होता तो हर बच्चे के बगल में दूसरे धर्म के बैठने वाले बच्चों के प्रति और भी स्नेहभाव बढ़ता, और सोचता कि इसके धर्म में भी तो वही बात कही जा रही है। शांति की बात कौन नहीं कहता, अहिंसा की बात कौन नहीं कहता है, सत्य की बात कौन नहीं कहता, सही आचरण की बात कौन नहीं कहता, भाईचारे की बात कौन सा धर्म नहीं कहता है। ये पाँच मूल्य हमने बदले थे और हमें लगता था कि जो गांधी कहते थे कि व्यवस्था का आधार सही आचरण ही होता है। 

जब हर व्यक्ति पंक्ति के आखिरी व्यक्ति के अधिकारों का ख्याल रखेगा तो उसके अधिकारों का हनन होगा ही नहीं। इसीलिए गांधी का एक मशहूर वाक्य है वो कहते हैं “प्राकृति के पास सभी के आवश्यकतापूर्ति के संसाधन है मगर एक के भी लालचपूर्ति के लिए नहीं” जिस दिन ये स्थापित हो जाएगा। उस दिन रामराज्य की ओर हम एक कदम बढ़ा लेंगे। विश्व परिवर्तन का एक ही तरीका है कि शिक्षा को जितना हो सके अपनी परंपराओं, भाषाओं, विचारों, पद्धतियों से पुष्ट करेंगे हम उतने ही उन्नत होते जाएंगे। हमारे पास वो सब उद्धरण हैं जो उन्हें एक बेहतर भविष्य की तरफ ले जा सकते हैं। और भविष्य में किसी से पीछे रहने की नहीं बल्कि उन्हें दिशा दिखाने में कामयाब करेगी।

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