शहादत का रास्ता

मैं नहीं जानता, मैं कहां हूं। कांग्रेस से निकल गया हूं, सरकार में हूूं नहीं। सोशलिस्ट मुझे गांधीवाला कहकर दूर भागते हैं, बाहर के लोग मुझे गांधीवाला समझते हैं, लेकिन यहां के बड़े-बड़े गांधीभक्तों में मैं नहीं हूं। मेरी खादी पर जाजूजी के सामने पानी फिर जाता है। मुझे पता नहीं मेरी जगह कहां है? मैं कहीं का भी नहीं हूं।

कपड़ा बदला या दिल?

गुजरात विद्यापीठ में बापू की जयंती के समय महादेवभाई का भाषण हुआ। गांधी जी के सम्पर्क में आने से महादेवभाई के जीवन में क्या-क्या परिवर्तन हुआ यह उन्होंने बतलाया। मैं भी सोचने लगा कि क्या मुझमें भी कुछ अदलबदल हुआ है। अपने भीतर झांक कर देखा तो मालूूम हुआ कि सिर्फ कपड़ा बदला है, और कुछ नहीं बदला। मिल के कपड़े की जगह खादी आई। मैं अर्थ का अनर्थ नहीं करना चाहता। जो बात कह रहा हूं उसे समझा देता हूं।

बापू की नकल उतारने का खब्त

एक बार बिहार में हम लोग काम करते थे तो मेरे विद्यार्थी भी मेरे साथ थे। एक दिन देखा तो कुछ विद्यार्थियों के बदन पर कुर्ता नहीं था, सिर्फ छोटी-सी धोती और चादर थी। मैंने कारण पूछा। उन्होंने कहा, ‘‘बापू आजकल कुर्ता नहीं पहनते, इसलिए हम भी नहीं पहनते।’’ मैंने उनसे कहा, ‘‘भूूखे और रंगे आदमियों को देखकर कुर्ते से बापू के शरीर में जलन होती थी, आग-सी लग जाती थी, उससे बचने के लिए उन्होंने कुर्ता उतार कर फेंक दिया। तुम्हारे शरीर में वैसी जलन तो नहीं होती। तुम्हें कुर्ता फेंकने की जरूरत!’’ साबरमती में आश्रम की प्रार्थना की जगह बालू थी। दूसरी जगह आश्रम बना। वहां पास में नदी नहीं थी। दूर-दूर से बालू लाकर डाली गई। क्योंकि बालू पर बैठे बिना प्रार्थना में दिल नहीं लगता। साबरमती में बदसूरत बर्तन थे। दूूसरी जगह आश्रम बना। वहां गुजरात नहीं था, लेकिन वैसे ही बदसूरत बर्तन लाए गए। कई आश्रमवासी ठीक बापू की तरह उसी जगह घड़ी लगाते हैं। मुझे डर यह है कि बापू के नाम पर जो संस्था बन रही है उसमें कहीं ऐसा ही न हो।

गांधीवृत्ति का कोई पैमाना नहीं

जब तक बापू थे, जिससे पूछो वही कहता कि ‘गांधीजी से पूछकर किया है। सरकार भी कहती कि गांधीजी से पूछकर किया है।’ गांधीजी की अहिंसा को कोई नहीं समझता। फलां आदमी गांधीजी की अहिंसा को मानता है, इसका क्या थर्मामीटर! बहुत से गुस्सावर लोग हृदय से कोमल होते हैं। शाकाहारी आदमी लोगों का इतना खून चूसता है कि मांसाहारी भी नहीं चूसता। मैं कहना यह चाहता हूं कि हमें गांधी की स्पिरिट में काम करना है, किसी बाहरी चीज का अनुकरण नहीं करना है।

यह रास्ता शहीद होने का है

सत्य और अहिंसा के रास्ते पर चलने वाले को समझ लेना चाहिए कि यह रास्ता शहीद होने का रास्ता है। सत्य और अहिंसा के रास्ते पर जो कोई ‘इफेक्टिव’ (परिणामकारक), काम करेगा वह एक न एक दिन मारा जाएगा। सत्य और अहिंसा का रास्ता दुनिया सह नहीं सकती। बापू जी की जीवनी को देखिए, उन्हें जब दूसरा कोई मारने के लिए तैयार नहीं होता था तो वे अपनी आत्माहूति देने पर तुल जाते थे। अपने मारे जाने के मौके पैदा कर देते थे। अभी मानवता की इतनी प्रगति नहीं हुई है कि सत्य और अहिंसा के रास्ते पर मजबूूती से चलने वाला भी मारा न जाए। आपको अपनी आहुति देने के मौके पैदा करने होंगे। आपकी किस्मत अच्छी होगी तो नहीं मारे जाएंगे। लेकिन शायद मारे जाने पर ही आपकी दैवीशक्ति सफल होगी। अगर कांग्रेस ने कुर्बानी का रास्ता छोड़ दिया तो उसका काम न चलेगा। कुर्बानी का रास्ता गांधीजी दिखा गए हैं। उस हुतात्मा के रास्ते पर हमको चलना है। अगर हममें दम है तो गांधीजी के नाम पर नहीं बिकेंगे। उनकी जो चीज हमको जंचेगी उसे लेंगे, जो नहीं जंचेगी उसे छोड़ देंगे। लेकिन सत्य और अहिंसा की राह हरगिज न छोड़ेंगे। यही बापू का सच्चा रास्ता है।

पवित्रता का प्रदर्शन

बापू का मार्ग चलाने का मतलब यह नहीं है कि हम उनकी नकल उतारें। कुछ लोग तो बापू की नकल उतारने में अपने को बापू से भी चढ़ा-बढ़ा दिखलाने की कोशिश करते हैं। एक तरह से दुनिया पर जाहिर करना चाहते हैं कि गुरु गुड़ रह गए, चेला चीनी बन गया। बापू ने अपनी उम्र में इस तरह पवित्रता का प्रदर्शन कभी नहीं किया। हम खबरदार रहें। अपने को ऊंचा और पवित्र समझने वालों की एक जमात न बना लें।

रचनात्मक कार्यकर्ता सम्मेलन (खुला अधिवेशन) में14 मार्च 1948 को दिया गया भाषण

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