ऐसे हैं, हमारे कौल साब

राकेश सिंह

वरिष्ट पत्रकार जवाहरलाल कौल को जनसत्ता से रिटायर हुए करीब एक दशक हो चुकें हैं, लेकिन उनकी कलम अभी रिटायर नही हुई। बल्कि सामाजिक सरोकारों के साथ उनकी कलम की कदमताल और तेज हो गई है। उनकी पत्रकारीय यात्रा आज भी अनवरत जारी है। बिना थमे, बिना थके।

जम्मू एंड कश्मीर की कुंडली में ही दोष है। प्रकृति की तरफ से जिसे कई वरदान मिले हैं, पर वे अभिषापित हैं। लेकिन अभिषापित धरती के इस स्वर्ग के बाशिंदों में विपरीत परिस्थितियों से दो-दो हाथ करने का हौसला है। उन्हें नकारात्मक परिस्थितियों से भी सकारात्मक दोहन करने का हुनर आता है। वरिष्ठ पत्रकार जवाहरलाल कौल इसके जीते जागते प्रमाण हैं। उन्हें रिटायर हुए एक दशक हो चुका है, लेकिन उनकी कलम रिटायर नहीं हुई है, बल्कि सामाजिक सरोकारों के साथ उसकी कदमताल और तेज हो गई है। श्री नगर में 26 अगस्त 1937 में जन्में जवाहरलाल कौल ने जम्मू एंड कश्मीर विश्वविद्याल से अंग्रेजी और हिन्दी में एम.ए. किया। एम.ए. करने के बाद श्रीनगर के एक स्कूल में ही पढाना शुरू किया। लेकिन यह रास्ता उन्हें रास नही आ रहा था। इस काम को वह शटल ट्रेन की तरह देखते थे, जो हर बार एक ही ढर्रे पर चलती है, सिर्फ सवारियां बदलती हैं। इसी दौरान उनकी मुलाकात बलराज मधोक से होती है, और उनके मनमाफिक राह निकलती है। बलराज मधोक ने जवाहरलाल कौल को पत्रकारिता की दिशा में आगे बढने के लिए प्रेरित किया। श्री मधोक ने जवाहर लाल कौल को हिन्दुस्तान समाचार के संपादक बालेश्वर अग्रवाल से मिलाया। यह बात 1963 की है। इसी साल जवाहरलाल कौल हिन्दुस्तान समाचार के साथ बतौर ट्रेनी रिपोर्टर जुडे। जवाहरलाल कौल के अंदर के हुनर को बालेश्वर अग्रवाल ने पहली ही नजर में परख लिया, तभी तो, हिन्दुस्तान समाचार से जुडते ही उनको देश की सबसे बडी पंचायत ‘संसद’ को कवर करने का जिम्मा दे दिया, जिसे उन्होंने बकौखूबी निभाया। यह राह उन्हें अपने मिजाज के अनुकूल दिखी। जब यह राह मिली तो सब कुछ छोड जवाहरलाल ल इस राह के राही ही बन गए, हमेशा के लिए। 77 साल की उम्र में भी वह यात्रा जारी है, बिना थमे, बिना रुके।

प्रेरणास्पद यह है कि सत्ता के केन्द्र दिल्ली में लंबा वक्त गुजारने के बाद भी अपनी जन्मभूमि जम्मू एंड कश्मीर को नही भूले। जम्मू कश्मीर जब भयावह प्राकृतिक आपदा से जूझ रहा था तो सन्यास पहर में एक कर्मयोगी की तरह अपनी टीम के साथ मोर्चा संभाला। कइयों को उनके अपनों से मिलाया, कइयों को उनके घर तक पहुंचाया। वरिष्ठ पत्रकार जवाहरलाल कोल ऐसे ही शिखर के आरोही है। वह जम्मू कश्मीर अध्ययन केन्द्र और प्रज्ञा संस्थान के अध्यक्ष हैं, धुन के पक्के हैं, पत्रकारिता और जीवन में संतुलन बनाए रखना भी उन्हें बेहतर आता है। यह इतने यकीन से इसलिए कहा जा सकता है, क्योंकि जिसकी पत्रकारिता की शुरूआत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जनसंघ से करीब का वास्ता रखने वाले बालेश्वर अग्रवाल के साथ हुई हो, जिसे पत्रकारिता की राह बलराज मधोक ने दिखाई हो, हिन्दुस्तान समाचार में काम करते हुए साल भर भी नही बीता, उसे अज्ञेय, दिनमान के लिए बुला रहे हों। यकीनन यह जवाहरलाल कौल की मेधा का प्रमाण है।

दिनमान पत्रिका के साथ जुडने के बाद जवाहरलाल कौल ने देश के कई हिस्सों में आना जाना शुरू किया। दिनमान टाइम्स आफ इंडिया समूह की पत्रिका थी। दिनमान से पहले न्यूज वीकली का चलन नही था। दिनमान की प्लानिंग टाइम मैगजीन की तर्ज पर की गई थी। इस पत्रिका में रिपोर्टर और सब एडिटर में फर्क नही था। जवाहरलाल कौल भी दिनमान के साथ बतौर रिपोर्टर कम सब एडिटर जुडे। दिनमान से जुडने के बाद जवाहरलाल कौल ने देश के अन्य हिस्सों से भी रिपोर्टिंग शुरू की। अहमदाबाद के दंगों से लेकर चासनाला धनबाद खान दुर्घटना तक को कवर किया। इस दुर्घटना में 250 मजदूर खान में दब गए थे। इसी दौरान जवाहरलाल कौल की सीबू सोरेन से पहली बार मुलाकात हुई। उस समय सीबू सोरेन का नाम सरकारी फाइलों में कुख्यात अपराधी के रूप में दर्ज था। टुंडी थाने के आस-पास करीब 100 किलोमीटर के क्षेत्र पर सीबू सोरेन की समानांतर सरकार चलती थी। जवाहरलाल कौल ने सीबू सोरेन से मिलने के लिए संदेश भिजवाया। सोरेन ने जवाब भेजा सरकारी अधिकारी को वापस भेजो मुलाकात में कोई हर्ज नही। जवाहरलाल कौल ने इलाके के एसडीएम को वापस भेज दिया और जंगल की ओर सीबू सोरेन से मिलने निकल पडे। इस मुलाकात ने आदिवासी इलाके के लोगों की नब्ज टटोलने का एक अवसर जवाहरलाल कौल को उपलब्ध कराया। जिसका आंकलन दिल्ली में बैठकर नही हो सकता है।

दिनमान में ही रहते हुए जवाहरलाल कौल ने आपातकाल को देखा। इंदिरा गांधी की हार को भी देखा, रायबरेली जा के। जवाहरलाल कौल दिनमान के उस दौर की एक घटना को याद करते हुए कहते हैं “1977 में मै रायबरेली चुनाव कवर करने गया था। यहां से इंदिरा गांधी चुनाव लड रही थी। इंदिरा गांधी के सामने जनता पार्टी के राजनारायण थे। वहां से लौटने के बाद मैने रिपोर्ट फाइल की। उस रिपोर्ट का निष्कर्ष था कि इंदिरा गांधी चुनाव हार रही हैं। उस समय दिनमान के संपादक रघुवीर सहाय को मेरी रिपोर्ट पर यकीन नही हुआ। उसके कई कारण हो सकते थे, किसी पार्टी या व्यक्ति के पक्ष में झुकाव भी हो सकता था। जैसा कि हम सब में होता है। रिपोर्ट पर विश्वास न होने के बावजूद संपादक ने मेरी रिपोर्ट रोकी नही, बल्कि छापी। ऐसे हुआ करते थे उस दौर के संपादक। हांलाकि एक और रिपोर्टर को रायबरेली भेजा गया, मेरी रिपोर्ट की हकीकत जानने के लिए। उस रिपोर्टर ने लौटकर रिपोर्ट लिखने की बजाय बीमारी का बहाना बना छुट्टी ले ली। क्योंकि उस रिपोर्टर को पता था कि रायबरेली चुनाव की यह हकीकत संपादक को रास नही आएगी”

जवाहरलाल कौल उस दौर के संपादक नाम की संस्था के तेवर को समझाने के लिए एक और घटना की याद दिलाते हैं। बिहार के कुछ समाजवादी नेताओं की बातचीत का सिलसिला चल रहा था। एक समाजवादी नेता से पहले बातचीत हुई थी। उनके इंटरव्यू की जब बारा आई तब तक संविद सरकार बनाने की तैयारी भी शुरू हो गई। इंटव्यू में कई दलों और नेताओं पर उन्होने टिप्पणी की थी, जो आज की परिस्थितियों के साथ फिट नही था। उस समाजवादी नेता ने नाराज होकर इस इंटरव्यू के खिलाफ संपादक को पत्र लिखा। दिनमान में वह पत्र छपा और साथ ही नीचे लिखा गया दिनमान अपने रिपोर्टर के इंटरव्यू पर कायम है।

दिनमान में एक सफल पारी खेलने के बाद अब बारी थी जनसत्ता की। यह वह दौर था जब जनसत्ता की खबरें समाज और सत्ता दोनो में हलचल पैदा कर रहीं थी तो उसका संपादकीय पृष्ठ लोगों को झकझोर रहा था। इसी दौर में प्रभाष जोशी ने जवाहरलाल कौल को जनसत्ता से जुडने का आग्रह किया। तब इंदिरा गांधी की हत्या नही हुई थी। जवाहरलाल कौल ने जनसत्ता से जुडना तय किया और प्रभाष जोशी ने संपादकीय पृष्ठ की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी उन्हें सौंप दी। जनसत्ता से जुडने के साथ ही जवाहरलाल कौल, कौल साब के उपनाम से पहचाने जाने लगे। उन्होने जनसत्ता के पाठकों को विज्ञान से विदेश नीति तक और कृषि से उद्दोग तक के विषय को समझाया। जवाहरलाल कौल तथ्य को पवित्र मानते हैं, तथ्यों से छेडछाड उनकी नजर में अपराध हैं। आज जब रिपोर्टर तथ्यों से छेडछाड या फिर तथ्यों को छिपातें है तो उन्हें दर्द होता। यह उस पत्रकार का दर्द है निष्पक्षता जिसकी पूंजी है। वह यह भी मानतें है कि विचार हरेक के अलग-अलग हो सकते हैं, होने भी चाहिए।

कौल साब ने एक किताब भी लिखी। इस किताब का नाम है “पत्रकारिता का बाजार भाव” यह किताब कई पत्रकारिता सिखाने वाले संस्थानों में शामिल है। कौल साब पत्रकारिता के बाजार को कुछ इस तरह समझाते हैं “अंग्रेजी बडे व्यापार की भाषा है, इसलिए मीडिया घराने चाहते हैं कि अंग्रेजी ही फैले। इसे टाइम्स आफ इंडिया और नवभारत टाइम्स की घटना से समझ सकते हैं। एक दौर था जब नवभारत टाइम्स का सर्कुलेशन टाइम्स आफ इंडिया से ज्यादा था। लेकिन फ्लैगशिप टाइम्स आफ इंडिया के हाथ रहे इसलिए नवभारत टाइम्स को सीमित किया गया। इस ग्रुप के ज्यादातर अखबार टाइम्स आफ इंडिया की रक्षा के लिए है।उसकी रक्षा करते हुए वह मरते है तो मर जाएं” कौल साब मानते हैं बाजार का एक अंग है अखबार। कोई अखबार अब किसी खास पाठक या वर्ग के लिए नही है। जबकि पहले अलग-अलग अखबारों के अलग-अलग पाठक होते हैं। इसलिए अब बाजार में जो बिकता है वह अखबार छापता है। कौल साब की नजर में यह है आज की पत्रकारिता का बाजार भाव।

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