जन-सेवा की ओट में अनैतिकता

जर्मन दार्शनिक शोपेनहावर ने इच्छाशक्ति द्वारा दुःखों से मुक्ति की कल्पना की है. वे चाहते हैं कि मानव, मानव का सहभोक्ता हो, दूसरे के दुखों क़ो वही स्वयं जिये तथा इस प्रकार जीवन में निर्वाण की स्थिति पा जाए. लेकिन अपनी परिकल्पना में संभवतः शोपेनहावर पूर्ण नहीं है. उन्होंने उस आधुनिक परिस्थिति की परिकल्पना नहीं की जिसमें इन सबके दिखावटी आवरण में मनुष्य निर्वाण नहीं बल्कि भौतिक सुविधाएं, पद एवं सम्मान तलाशेगा, चाहे इसके लिए उसे राष्ट्रीय-सामाजिक हितों की तिलांजलि ही क्यों न देनी पड़े. इससे भी जरुरी बात की उसे स्वयं को विरुद्ध ना कोई जाँच चाहिए और ना ही कोई न्यायिक प्रक्रिया, कानूनी दंड तो भूल ही जाइये.

पिछले छः दशकों से अनवरत चल रही कांग्रेसी सत्ता का ज़ब पतन हुआ तो देश को सत्ता पोषित ‘मजाज़ी (कृत्रिम) खुदा’ बने जमात की असलियत प्रत्यक्ष नजर आने लगी. ‘नेशनल हेराल्ड’ के आवरण में नेहरू परिवार द्वारा कथित भ्रष्टाचार की जाँच-प्रक्रिया शुरू है. उधर गुजरात दंगा मामले (2002) में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद तीस्ता सीतलवाड को गिरफ्तार कर लिया गया. न्यायालय ने उनके एनजीओ की भूमिका पर जांच की जरूरत बताई. आरोप है कि उन्होंने दंगा पीड़ितों की मदद के नाम पर देश-विदेश से जमा धन का इस्तेमाल स्वयं के लिए किया. इसी प्रकार मेधा पाटकर और उनके एनजीओ पर करोड़ों रुपयों के गबन का मामला दर्ज हुआ है. आरोप है कि उनके एनजीओ ने सामाजिक कार्यों और आदिवासी बच्चों की शिक्षा पर खर्च की जाने वाली राशि का इस्तेमाल विरोध-प्रदर्शनों एवं निजी खर्चोँ में किया.
ऐसा ही उदाहरण छत्तीसगढ़ के बस्तर में लंबे समय से सक्रिय रहे सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार का है, जिन्होंने 2009 में सुकमा मुठभेड़ में 16 नक्सलियों के मारे जाने को फर्जी बताते हुए उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर कर जाँच की माँग की. 13 साल तक चली सुनवाई के बाद न्यायालय नें सभी आरोपों को झूठा एवं आपराधिक साजिश मानते हुए कुमार पर पांच लाख रुपयों का जुर्माना लगाया. साथ ही जांच करने को कहा है कि नक्सलियों को बचाने के लिए कहीं न्यायालय का इस्तेमाल तो नहीं हो रहा. ध्यातव्य है कि वनवासी चेतना आश्रम नाम से एनजीओ चलाने वाले हिमांशु कुमार को नक्सल समर्थक माना जाता है.
 जाँच एवं न्यायालय के दायरे में आने के बाद आजकल वामपंथी खेमे की तरफ से निरंतर यह प्रश्न उठाया जा रहा है कि वर्तमान सरकार वैचारिक विरोधियों को आर्थिक एवं आपराधिक मामलों में फंसा रही है. न्यायिक जाँच से घबराया ये वर्ग आम जनता से समर्थन की भावुक अपीलें एवं अपने साथ खड़े होने की गुहार लगा रहा है.
 इनकी यह समस्या भी दोतरफा है. एक ओर तो ये लोग उस बहुसंख्यक पक्ष से समर्थन की मूर्खतापूर्ण उम्मीद कर रहे हैं जिनके हितों के विरुद्ध निरंतर सक्रिय रहे. जिन्होंने अपने सत्तानुकूल काल में तुष्टिकरण की नीति से प्रेरित होकर बहुसंख्यक आबादी के धार्मिक-सांस्कृतिक पीड़ा एवं दमन का उपहास ही नहीं बल्कि उसे भी अपमानित भी करते रहे. जिनके साथ ये लोग कभी खड़े नहीं हुए, उनसे आज अपने साथ खड़े होने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं? यह सही है कि जनता की स्मृति बहुत तीव्र नहीं होती है लेकिन वह इतनी भी धीमी नहीं होती है कि अपने साथ हुए दुर्व्यवहार को आसानी से भूल जाए. दूसरा वह पक्ष जिसके तुष्टिकरण के हितार्थ अब तक ये चीखते-चिल्लाते और जन-आंदोलन करते रहे. संभवत: उस वर्ग ने इन्हें सम्मान का अधिकारी ही नहीं समझा या इनके कार्यों के प्रति कृतज्ञता का भाव ही नहीं था, तभी वह इनके पक्ष में समर्थन के लिए तैयार नहीं है.
 
आज तीस्ता सीतलवाड़ अपने जिस संघर्ष की दुहाई दे रही हैं वह एक चुनिंदा वर्ग के लिए सीमित था. ये संघर्ष यात्रा तब पूर्ण होती ज़ब वे अहमदाबाद विशेषकर गुलबर्गा सोसाइटी के साथ ही गोधरा मे जिंदा जला दिये गये कारसेवकों के खिलाफ हुए अत्याचार के विरुद्ध भी खड़ी होतीं. जब भी समस्याओं का विश्लेषण पूर्वाग्रहयुक्त मानक खाचों में बांटकर किया जाता है तो निश्चित रूप से उनका संदर्श बिगड़ जाता है.
 
सबसे जरुरी प्रश्न है कि तीस्ता या मेधा पाटकर जैसे लोगों को न्यायिक प्रक्रिया से इतनी दिक्कत क्यों है? अगर आरोप हैं तो उनका समुचित निराकरण भी होना चाहिए ताकि ज़ब ये न्यायालय के माध्यम से आरोपमुक्त घोषित हों तो उनका किरदार समाज में और मजबूत होकर उभरे. लेकिन जिस तरह से ये लोग सरकार के विरुद्ध आपातकाल जैसी दुहाई दे रहे हैं उससे लगता है कि इन्हें कानूनी प्रक्रिया का डर है, जो कि इनके कार्यों में खोट की ओर संकेत करता है.
अजीब है कि आज सोनिया गाँधी के विरुद्ध ईडी की जाँच पर आस्तीनें चढ़ाने वाली कांग्रेस संप्रग सरकार के कार्यकाल (2004-2014) में अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ जाँच एजेंसियों के कुटिल प्रयोग को शायद भूल गई है. अगर जाँच एजेंसियों के दुरूपयोग का ही प्रश्न है तो मनमोहन सरकार के कार्यकाल में तत्कालीन गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को पूछताछ के नाम पर जाँच एजेंसियों के दफ़्तर में घंटों बैठाया जाता था एवं गृहमंत्री अमित शाह को जेल तक भेजा गया. क्या तब भी सत्ता का दुरूपयोग ही कारण था? इस सवाल का जवाब ही विपक्ष के प्रश्नों के उत्तर तय करेगा.
 ऐसे लोगों को अपने कार्य-व्यवहार और सिद्धांतों के प्रति आत्मावलोकन की जरूरत है. सार्वजनिक जीवन में आरोप और जाँच के नाम हंगामा खड़ा करने वालों को श्री लालकृष्ण आडवाणी से सीखना चाहिए, जिन्होंने हवाला कांड में नाम आने पर इस्तीफ़ा देकर सक्रिय राजनीति जीवन त्याग दिया और जाँच के बाद बेदाग़ निकलने के पश्चात् ही राजनीतिक जीवन में वापस लौटे.
 
मुख्य मुद्दे पर लौटें तो ‘गैर-सरकारी संगठन’ (NGO), कभी सेवा का ध्येय रहे होंगे लेकिन वर्तमान दौर में इनके पीछे आर्थिक लाभ के ध्येय से जुड़े तथाकथित प्रबुद्ध सफ़ेदपोश ठगों की जमात ख़डी हो गई है. शुद्ध लक्ष्यों से प्रेरित कार्यों के पीछे अपना स्वार्थ तलाशने वाले ऐसे लोग हमेशा से समाज में मौजूद रहे हैं. क्रांतिकारी शचीन्द्र नाथ सान्याल अपनी आत्मकथा ‘बंदी जीवन’ में लिखते हैं, “सभी बड़े बड़े आंदोलनों में देखा गया है कि साधु और महान चरित्रवान पुरुषों के साथ कुछ नर-पिशाच भी दल में आ मिलते हैं. यह आंदोलनों का दोष नहीं है, यह तो हमारे मनुष्य-चरित्र का ऐब है. शायद लेनिन ने भी कहा था कि प्रत्येक सच्चे बोल्शेविक के साथ कम से कम उन्तालीस बदमाश और साठ मूर्ख उनके दल में मिल गए थे. और मैंने श्रद्धेय शरतचंद्र चट्टोपाध्याय जी से सुना है कि देशबंधु दास ने भी कदाचित् कहा था कि वकालत करते-करते हम बुड्ढे हो गए थे और इस बीच हमको बड़े-बड़े धोखेबाजों से भी साबिका पड़ा, किंतु असहयोग आंदोलन में हमने जितने धोखेबाज आदमी देखे वैसे जिंदगी भर में नहीं देखे थे.”
   
इन गैर-सरकारी संगठनों की पृष्ठभूमि में एक विशेष वैचारिकी पर आधारित आंदोलनों का प्रभाव है. सत्तर के दशक में भारत में ऐसे आंदोलनों की श्रृंखला चल पड़ी जिन्हें ‘नया आंदोलन’ कहा गया. ये आंदोलन उन मुद्दों पर आधारित थे जो पुराने वक्त में किसान-मजदूरों के संघर्ष में पीछे छूट गये थे. इनकी विशेषता थीं कि ये वामपंथ के वैचारिकी से पोषित थे. इन आंदोलनों के समर्थन में बुद्धिजीवियों, विशेषकर पत्रकारों की एक नई पीढ़ी पैदा हुई. जिन्होंने इन गैर-सरकारी संगठनों एवं इनसे जुड़े लोगों का महिमामंडन किया. जनता में त्याग, जन-सेवा की एक कृत्रिम छवि निर्मित कर ऐसे लोगों ने सत्ता प्रतिष्ठानों तक अपनी पहुंच स्थापित की.
इन आंदोलनों में अकसर अनाम स्रोतों से मिलने वाले धन का इस्तेमाल विकास विरोधी कार्यों में होता रहा है. रूस की सहायता से तमिलनाडु के तिरुनेलवेली ज़िले में क़रीब 13 हज़ार करोड़ की लागत से बनाये जा रहे कुडनकुलम परमाणु ऊर्जा संयंत्र परियोजना को ऐसे ही विदेशी पैसों से पोषित एन.जी.ओ. ने विरोध प्रदर्शनों के माध्यम से लंबे समय तक लटकाये रखा.
 
ऐसे आंदोलनों में लिप्त संगठन लोकतांत्रिक सरकारों को अस्थिर करने में शामिल रहे हैं. पीएफआई जैसे इस्लामिक कट्टरपंथी संगठन के लिए खाड़ी देशों से मोटी रकम भेजी जाती रही है. जिसका इस्तेमाल देश में सांप्रदायिक और जातीय हिंसा फैलाने के उद्देश्य से किया जाता है. कनाडा एवं अमेरिका में कुछ महीने पहले हुए व्यापक सरकार विरोधी प्रदर्शनों में ऐसे ही विदेशी धन से पोषित ‘क्यूनोन’ (Qanon) जैसे षड़यंत्री संगठन का हाथ था.
एनडीए सरकार ने NGO को विदेशी फंडिंग का मामले में नये एवं कड़े प्रावधान लागू किये, जिन्हें सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती भी दी गई थी. सरकार ने अपना पक्ष रखते हुए कहा कि विदेशी योगदान अगर अनियंत्रित हुआ तो राष्ट्र की संप्रभुता के लिए विनाशकारी परिणाम हो सकते हैं. विदेशी फंड को रेगुलेट करने की जरूरत है. जिस पर न्यायालय ने केंद्र सरकार को राहत देते हुए FCRA के 2020 संशोधन की वैधता बरकरार रखी.
 
एनजीओ संचालकों पर वैदेशिक ताकतों की सरपरस्ती का आक्षेप लगता रहा हैं. तीस्ता एवं उनके साथियों की गिरफ्तारी पर संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार कार्यालय ने चिंता जताई एवं गुजरात दंगों के पीड़ितों का साथ देने के कारण उनका उत्पीड़न रोककर उन्हें तुरंत रिहा किये जाने को कहा. आश्चर्य है कि जो ओएचसीएचआर हिन्दुओं के नरसंहार एवं उत्पीड़न पर सांस भी नहीं लेता वह तीस्ता जैसों के गिरफ़्तारी मात्र से जागृत हो जाता है.
 आम आदमी के सरोकारों-हितों हेतु संघर्ष का दावा करने वाले इस वर्ग में स्वयं के कानूनी-प्रक्रिया से ऊपर समझने का भ्रम पैदा हो गया है. इस देश में समीक्षा के अधिकार से परे तो राष्ट्रपिता गाँधी भी नहीं हैं, फिर गाँधीवाद के नाम पर अपनी दुकान चलाने वाले इन लोगों को संवैधानिक नियमों से ऊपर होने की गलतफहमी नहीं पालनी चाहिए. इन धन-गबन एवं धोखाधड़ी के आरोपों की सत्यता का पता तो न्यायपालिका कर ही लेगी. किंतु ऐसे आरोपों का सामना कर रहे लोग देश में इस प्रकार का माहौल बनाने के प्रयास में हैं मानों उन्हें जाँच के दायरे में लाकर कोई गैर-संवैधानिक कृत्य किया गया हो.
 
हरिशंकर परसाई लिखते हैं, “हमारे कई नशे हैं-भ्रम का नशा, संप्रदाय का, जाति का और सबसे बड़ा नशा अपने को पवित्र मानने का.” अब इस वर्ग को सचेत हो जाना चाहिए क्योंकि निज़ाम बदलने से शासन का ढंग भी बदलता हैं. किंतु सबसे जरुरी यह है कि सामाजिक जीवन में संदेह उत्पन्न होने पर उसका निराकरण आवश्यक है ताकि समाज में शुचिता बनी रहे.
                       

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