गीता में हम उस सत्य को ढूंढ़ते हैं जो सनातन है, शास्वत है

उमेश सिंह

गीता का विचार करते समय हम उस सत्य को ढूंढ़ते हैं, जो सनातन है। जिससे अन्य सभी सत्य पैदा होते हैं। इसी कारण वह परम-सत्य किसी एक पैने सूत्र के अंदर बंद नहीं किया जा सकता। प्रत्येक सद्ग्रंथ में दो तरह की बातें हुआ करती हैं-एक सामयिक और दूसरी शास्वत। ऐसे सद्ग्रंथ में संपूर्ण रूप से चिरंतन महत्व का विषय वही है जो अनुभव किया हुआ हो, जो अपने जीवन में आ गया हो और बुद्धि की अपेक्षा किसी परे की दृष्टि से देखा गया हो।

इसलिए गीता के विषय में हम यह कह सकते हैं कि इसके तत्वदर्शन से अलग जो प्रकृत जीते-जागते तथ्य हैं, उन्हें ढूंढ़ें। हम गीता से वह चीज लें जो हमें या संसार को सहायता पहुंचा सके और जहां तक हो सके उसे ऐसी स्वाभाविक और जीती जागती भाषा में प्रकट करें, जो वर्तमान मानव-जाति की मनोवृत्ति के अनुकूल हो और जिससे उसकी पारमार्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति में मदद मिले। इस प्रयास में हो सकता है कि हम बहुत सी ऐसी भूलों को मिला दें, जो हमारे व्यक्तित्व और समय के संस्कारों से उत्पन्न हुई हो।

परंतु यदि हम इस महत्त सद्ग्रंथ के भाव में अपने आपको तल्लीन कर दें तो इसमें संदेह नहीं कि हम इससे उतनी सदवस्तु तो ग्रहण कर ही सकेंगे, जितनी के हम पात्र हैं। साथ ही हमें इससे वह पारमार्थिक प्रभाव और वास्तविक सहायता भी प्राप्त हो सकेगी, जो व्यक्तिगत रूप से हम इससे प्राप्त करना चाहते थे। इसी को देने के लिए गीता की रचना हुई थी।

केवल ऐसे ही सद्ग्रंथ मनुष्य जाति के काम के बने रहते हैं, जो इस प्रकार नित्य नए होते रहे हों। जो पुनः पुनः जीवन में चरितार्थ किए जाते हैं। जिनका आधारभूत शास्वत तत्व निरंतर नया रूप लेता और विकसनशील मनुष्य जाति की अंतर-विचारधारा और आध्यात्मिक अनुभूति से विकसित होता हो।

गीता में ऐसे विषय बहुत ही कम हैं जो केवल एकदेशीय और सामयिक हों। और जो है भी, उसका आशय इतना उदार, गंभीर और व्यापक है कि उसे बिना किसी विशेष आयास के, और इसकी शिक्षा का जरा भी ह्रास या अतिक्रम किए बिना व्यापक रूप दिया जा सकता है। इतना ही नहीं, बल्कि ऐसा व्यापक रूप देने से उसकी गहराई, उसके सत्य और उसकी शक्ति में वृद्धि होती है।

स्वयं गीता में ही बारंबार उस व्यापक रूप का संकेत किया गया है जो इस प्रकार देशकाल-मर्यादित भावना या संस्कार-विशेष को दिया जा सकता है। उदाहरण के लिए ‘यज्ञ’ संबंधी प्राचीन भारतीय विधि और भावना को गीता ने देवताओं और मनुष्यों का पारस्परिक आदान-प्रदान कहा है। यज्ञ की यह विधि और भावना स्वयं भारतवर्ष में ही बहुत काल से लुप्तप्राय हो गई है। सर्वसाधारण मानव-मन को इसमें कुछ भी तथ्य नहीं प्रतीत होता।

परंतु गीता में यह ‘यज्ञ’ शब्द इतना आलंकारिक, सांकेतिक और सूक्ष्म तत्व का परिचायक है तथा देवता-विषयक भावना देशकाल-मर्यादा और किंवदंती से इतनी मुक्त और इतने पूर्ण रूप से सार्वभौम और दार्शनिक है कि हम यज्ञ और देवता दोनों को मनोविज्ञान और प्रकृति के साधारण विधान के व्यावहारिक तथ्य के रूप में सहज ही ग्रहण कर सकते हैं।

साथ ही इन्हें, प्राणियों में परस्पर होने वाले आदान-प्रदान, एक-दूसरे के हितार्थ होने वाले बलिदान और आत्मदान के विषय में जो आधुनिक विचार हैं, उनपरइस तरह घटा सकते हैं कि इनके अर्थ और भी उदार और गंभीर हो जाएं, ये अधिक सच्चे आध्यात्मिक और गंभीरतर अत्यधिक विस्तीर्ण सत्य के प्रकाश से प्रकाशित हो जाएं।

मालूम होता है कि शास्त्र शब्द से गीता में उस विधान से मतलब है जिसे मनुष्य जाति ने असंस्कृत प्राकृत मनुष्य के केवल अहंभाव से प्रेरित कर्म के स्थान पर अपने ऊपर लगाया है। इस विधान का हेतु अहंकार को हटाना है।

मनुष्य की जो स्वाभाविक प्रवृति है कि वह अपनी वासनाओं को तृप्ति को ही अपने जीवन का मानक और उद्देश्य बना लेना चाहता है, उस प्रवृति का नियमन करना है। इसलिए जब गीता में आये हुए स्थानिक और सामयिक उदाहरण इसी गंभीर और उदार भाव से प्रयुक्त हुए हैं तो हमारा इसी सिद्धांत का अनुसरण करना और उनमें छिपे गंभीरतर सामान्य सत्य को ढूंढ़ना समुचित ही होगा।

 

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