केजरीवाल सरकार को पहली चेतावनी 

दिल्ली सेवा विधेयक को राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मु ने मंजूरी दे दी है। इससे यह कानून बन गया है। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार (संशोधन) अधिनियम 2023, से राजनीतिक बहस की दिशा बदल गई है। बहस इस अधिनियम के गुण-दोष पर न होकर इस पर हो रही है कि क्या दिल्ली के नागरिकों का लोकतांत्रिक अधिकार का हरण हुआ है? आजादी के समारोह में मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की जो टीस उभरी, वह यही बताती है। यह उनकी राजनीति का हिस्सा है। लेकिन दिल्ली विधानसभा में विपक्ष के नेता रामवीर सिंह विधूड़ी ने अपने एक असाधारण पत्र में वास्तविक मुद्दा उठाया है। वह पत्र उन्होंने विधानसभा अध्यक्ष रामनिवास गोयल को लिखा है। उसमें ही वास्तव में नए अधिनियम का रहस्य छिपा है। मूल प्रश्न है और इसे दिल्लीवासियों को जानना भी चाहिए कि इस अधिनियम की जरूरत क्यों पड़ी? 

 रामवीर सिंह बिधूड़ी के पत्र की पंक्तियों के बीच में छिपे संकेत को कोई पढ़ सके, तो उसे भविष्य की आहट तो साफ सुनाई पड़ेगी ही, यह भी वह जान सकेगा कि यह अधिनियम समय की जरूरत को पूरा करता है। वह जरूरत क्या है? इसे रामवीर सिंह विघूड़ी ने बहुत सीधी और सरल भाषा में अपने पत्र में बताया है। उन्होंने एक सीधी सी मांग की है कि विधानसभा के सत्र की समयावधि बढ़ाई जाए। इस पत्र की उपेक्षा कर पहले की ही तरह 16 और 17 अगस्त अर्थात दो दिनों का विधानसभा सत्र बुला लिया गया है। इस सत्र में वही होगा जो पहले होता रहा है। विपक्ष के नेता की मांग लोकतांत्रिक है और अरविंद केजरीवाल की सरकार का रवैया मनमानी का है। दिल्ली की सरकार ने विधानसभा को ऐसा मंच बना दिया है, जहां नियमों को ताक पर रखकर भारत सरकार के विरूद्ध राजनीतिक प्रलाप किया जाता है। इस बार भी नए अधिनियम पर वहां दुर्भावना प्रेरित प्रलाप किए जाएंगे। यह सच है कि इस अधिनियम से फिलहाल विधानसभा पर कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ेगा। लेकिन अरविंद केजरीवाल का गिरोह पहले जैसा ही व्यवहार करता रहेगा, तो विधानसभा के औचित्य का प्रश्न अवश्य पैदा होगा। 

अर्से से इस अधिनियम की जरूरत महसूस की जा रही थी, क्योंकि 1992 में संविधान में अनुच्छेद 239एए शामिल किया गया। इससे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र अर्थात दिल्ली को प्रतिनिधि सरकार प्राप्त हुई। इसका श्रेय भाजपा के अभियानी नेता मदन लाल खुराना को है। विधानसभा की मांग पुरानी थी। उसे वे पूरा करा सके। स्वाभाविक था कि चुनाव के बाद उनके नेतृत्व में एक सरकार बनी। वे मुख्यमंत्री बने। 1993 की यह बात है। पांच साल बाद हुए चुनाव में कांग्रेस को बहुमत मिला। शीला दीक्षित के नेतृत्व में सरकार बनी। वह सरकार 15 साल रही। उस दौरान उप राज्यपालों के साथ दिल्ली की सरकरों के संबंध सामंजस्यपूर्ण रहे। यह अधिनियम अरविंद केजरीवाल सरकार की मनमानी से पैदा हुई अव्यवस्था को ठीक करने के लिए लाया गया है। 

राजनीतिक विवशता के कारण कांग्रेस ने अरविंद केजरीवाल की शर्त मानी और संसद में विरोध किया। लेकिन कांग्रेस का राष्ट्रीय नेतृत्व दिल्ली प्रदेश के अपने नेताओं से बात करता, तो उसे अपने निर्णय में उलझन आती। कांग्रेस के कारण अरविंद केजरीवाल को 2013 में अवसर मिला और इस बार कांग्रेस ने ही उन्हें एक राजनीतिक मुद्दा थमा दिया है। लेकिन संसद में विधेयक पर बहस के दौरान गृहमंत्री अमित शाह ने जो कहा वह ध्रुव सत्य है। उन्होंने कहा कि इस अधिनियम से दिल्ली को भ्रष्टाचार मुक्त शासन मिलेगा। क्या इस कथन में किसी को संदेह है? अरविंद केजरीवाल की सरकार में दूसरे नंबर पर मनीष सिसौदिया रहे। ज्यादातर विभाग उनके पास थे। वे महीनों से भारी भ्रष्टाचार के आरोप में बंदी हैं। उन पर जो आरोप लगे हैं वे इतने संगीन हैं कि उनकी जमानत भी नहीं हो रही है। इसलिए नहीं हो रही है क्योंकि वे अपने भ्रष्टाचार को छिपाने का बंदोबस्त कर सकते हैं। जांच में बाधा डाल सकते हैं। भ्रष्टाचार का राजनीतिकीकरण करने में अरविंद केजरीवाल गिरोह माहिर है।

संसद में हंगामे के बीच बहस हुई। कांग्रेस और आप ने विरोध में हाथ मिलाया। फिर भी विधेयक पारित हुआ। वह अधिनियम बन गया है। उसका प्रभाव जल्दी ही दिखने लगेगा। क्या उप राज्यपाल ‘सुपर सीएम’ अर्थात मुख्यमंत्री के उपर हो जाएंगे? यही आरोप विपक्ष ने अधिनियम पर अपनी आशंंका में लगाया है। इसका समाधान सरल है। पहले आशंका के बारे में बात करें। क्या इस आशंका के लिए कोई आधार है? कह सकते हैं कि यह आशंका निराधार है। अवश्य, यह मान सकते हैं कि संविधान सम्मत शासन और प्रशासन के लिए यह अधिनियम उपयोगी होगा। प्रश्न है कि क्या इससे दिल्ली की हर समस्या हल हो जाएगी? ऐसा जो सोचते हैं, वे कुछ अधिक उम्मीद से भरे हुए हैं। 

इस अधिनियम से सिर्फ इतना होगा कि अरविंद केजरीवाल सरकार की मनमानी, लूट और अराजक गतिविधियों पर कुछ हद तक रोक लग सकेगी। यह अधिनियम अरविंद केजरीवाल को मुख्यमंत्री पद से हटाने के लिए नहीं है। उन्हें संविधान के दायरे में बनाए रखने के लिए है। अगर कोई खोजी पत्रकार हो और वह इस लक्ष्य से अध्ययन करें कि अरविंद केजरीवाल सरकार ने कैसे इस अधिनियम के लिए मैदान तैयार किया, तो वह पाएगा कि जो लोग अन्ना हजारे को धोखा दे सकते हैं, वे निरंतर दिल्ली के लोगों को भी छल रहे हैं। 

इसलिए जरूरी हो गया था कि अरविंद केजरीवल के हाथ-पांव बांधे जाए। इसका अर्थ यह होगा कि वे बोलेंगे, पर कुछ कह नहीं सकेंगे। उनकी मनमर्जी नहीं चलेगी। तो क्या उप राज्यपाल वीके सक्सेना की मनमर्जी चलेगी? यह बात उठेगी और इसे अरविंद केजरीवाल गिरोह उठाएगा। कोई यह न समझे कि अरविंद केजरीवाल ने एक राजनीतिक दल बनाया है। राजनीतिक दल की औपचारिक परिभाषा में उसे मान्यता अवश्य मिली है। लेकिन है वह एक गिरोह है, जो भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के साथ भ्रष्टाचार कर पैदा हुआ है। यह गिरोह भयादोहन और राजनीतिक शोषण का प्रतीक है।

इस अधिनियम के निहितार्थ बड़े हैं। यह संविधान के निर्माताओं की आषंका को पुनः आवाज लगाता है। वह क्या है? इस पर विचार करने से पहले हमें जानना चाहिए कि इस अधिनिमय से जो दो सवाल उठे हैं वे क्या हैं? पहला कि क्या दिल्ली को वैसी ही सरकार चाहिए जैसी देश के दूसरे राज्यों में है? यह सवाल पहली बार नहीं उठा है। यह समयसमय पर अनेक स्तरों पर विमर्श में रहा है। आजादी के बाद से ही यह सवाल एक एक रूप में बना हुआ है। जब 1989 में दिल्ली के प्रशासन में सुधार के लिए कमेटी बनी और उसने अपनी रिपोर्ट दी, तो बताया कि 1947 से 1950 तक दिल्ली भारत सरकार के अधीन थी। जिसका प्रशासक चीफ कमिश्नर होता था। 

इस अधिनियम ने पहले सवाल को फिर से जिंदा कर दिया है। अब निर्वाचित सरकार और उप राज्यपाल की व्यवस्था में दिल्ली चलेगी। संविधान सभा में दिल्ली के प्रशासनिक ढांचे पर विचार हुआ था। इसके लिए एक कमेटी बनी थी। पट्टाभि सीतारमैया उसके अध्यक्ष थे। उस कमेटी ने सुझाया कि दिल्ली को एक स्वायत लोकतांत्रिक प्रशासन दिया जाना चाहिए। इस अधिनियम ने पट्टाभि सीतारमैया के सुझावों को कार्यरूप दे दिया है। लेकिन इस अधिनियम पर दूसरा सवाल ज्यादा अहम है। वह यह है कि देश की राजधानी में क्या एक ऐसी समानांतर सरकार होनी चाहिए, जिसे न संविधान की परवाह है और न ही जिसे देश की अखंडता और एकता की चिंता है। इसी में यह बात भी छिपी हुई है कि राजनीतिक नारेबाजी से दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की कल्पना लोकलुभावन तो हो सकती है, लेकिन क्या वह लोकहित में है?   

यही प्रश्न पंडित जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल और चक्रवर्ती राजगोपालाचारी के सामने था। इसीलिए संविधान सभा में दिल्ली पर ज्यादा बहस नहीं हुई। यह तथ्य कुछ दिन पहले सामने आया है कि दिल्ली पर विचार संविधान सभा की दो कमेटियों में ज्यादा हुआ। एक कमेटी से लोग अवगत हैं। दूसरी कमेटी के बारे में तथ्य अब आए हैं। तथ्य यह है कि 25 जुलाई, 1949 को तीन बजे दिन में एक बैठक हुई। जिसमें तीन लोग थे, डा. अंबेडकर, पंडित नेहरू और सरदार पटेल। उस बैठक का निर्णय संविधान सभा में डा. भीमराव अंबेडकर ने सुनाया। वे दूरदृष्टि वाले थे। इसलिए उनका तर्क था कि दिल्ली भारत की राजधानी है। उसे एक ऐसा प्रशासन दिया जाना चाहिए जिसका केंद्र से टकराव हो। जो डा. भीमराव अंबेडकर चाहते थे उसका सार तत्व इस अधिनियम में गया है। लेकिन दिल्ली में लोकतांत्रिक शासन कैसा हो, यह प्रश्न बना हुआ है। यह संभव है कि जिस तरह जवाहरलाल नेहरू ने अपने कटु अनुभव से दिल्ली की विधानसभा को समाप्त कराया था और एक मर्यादित लोकतांत्रिक व्यवस्था  बनवाई थी, वैसा ही आज की जरूरतों के हिसाब से बनाई जाए। उसका स्वरूप क्या होगा? कैसा होगा? यह प्रश्न भी है और पहेली भी है।

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