स्वराज के लिए आवश्यक है निर्भयता

 

प्रज्ञा संस्थानजिन लड़कों का अभी आपसे परिचय करवाया गया, वे मेरे मित्र और साथी कार्यकर्त्ता, स्वर्गीय मोहम्मद  काछलिया के पौत्र हैं वे मेरे लिए सगे भाई के समान थे। इन लड़कों को देखकर मुझे सहज ही उनकी याद हो आई और मैं समझता हूं कि उनके बारे में मुझे आपको कुछ बताना चाहिए। सत्याग्रह के दिनों में दक्षिण अफ्रीका में जो हिन्दू और मुसलमान रहते थे, उनमें से एक भी भारतीय ऐसा नहीं था जो बहादुरी और ईमानदारी के मामले में काछलिया की बराबरी कर सके। उन्होंने अपने देश के सम्मान और प्रतिष्ठा की खातिर अपना सब-कुछ बलिदान कर दिया। उन्होंने न अपने व्यापार की चिंता की और अपनी संपदा की और न मित्रों की ही, और तन-मन से वे संघर्ष में कूद पड़े। उन दिनों भी हिन्दू-मुस्लिम तकरारें जब-जब होती थीं, लेकिन काछलिया ने दोनों को  तुला पर समान रूप से रखा। किसी ने उन पर अपने संप्रदाय के साथ पक्षपात करने का आरोप कभी नहीं लगाया।

और उन्होंने देशभक्ति और सहिष्णुता का यह महान गुण किसी स्कूल में या इंग्लैंड में नहीं, बल्कि अपने ही घर में सीखा था, क्योंकि वे गुजराती भी कठिनाई से लिख पाते थे। वकीलों के तर्कों का वे जिस प्रकार उत्तर देते थे उसे देखकर वे आश्चर्य करते थे, और उनकी सामान्य विवेक-बुद्धि अक्सर वकीलों के लिए काम की होती थी। उन्होंने ही सत्याग्रहियों का नेतृत्व किया, और काम करते हुए ही शरीर का  त्याग किया। उनमें अली नामक एक बेटा था, जिसे उन्होंने मेरी देख-रेख में सौंप दिया था। ग्यारह वर्षीय यह बालक अद्भुत संयत और निष्ठावान मुसलमान था। रमजान के पवित्र महीने में वह एक दिन का भी रोजा नहीं छोड़ता था और फिर भी, उसके मन में हिन्दू लड़कों के लिए कोई दुर्भाव नहीं था। आज तो दोनों समुदायों के लोगों की तथाकथित धार्मिक निष्ठावादित अन्य धर्मों के प्रति यदि घृणा नहीं तो कम-से-कम दुर्भाव का पर्याय बन गई है। अली के मन में ऐसा कोई दुर्भाव नहीं था, कोई घृणा नहीं थी। मेरे लिए पिता और पुत्र, दोनों आदर्ष व्यक्ति हैं, और ईश्वर करे कि आप उनके उदाहरण से अनुप्रेरित हों।

उन दिनों मैं, जब हिन्दू और मुसलमान एक प्रतीत होते थे, तथा एक-दूसरे के लिए और अपने देश के लिए, अपना खून बहाने को तैयार थे। मैंने छात्रों से सरकारी स्कूल और कालेज छोड़ने की अपील की थी। इतने वर्षों के बाद भी उन लड़कों से, उन शिक्षण-संस्थाओं से, निकल आने के लिए कहने का मुझे कोई दुःख नहीं है, और मेरा दृढ़ मत है कि जिन लड़कों ने मेरी अपील के जवाब में स्कूल-कालेज छोड़े, उन्होंने अपनी मातृभूमि की सेवा की, और मुझे विश्वास है कि भारत के भावी इतिहासकार उनके त्याग का सराहनापूर्वक उल्लेख करेंगे।

लेकिन दुःख की बात है कि आज ऐसे मुसलमान हैं जो मस्जिद में जाकर नमाज पढ़ते हैं और ऐसे हिन्दू हैं जो मंदिरों में जाते हैं और पूजा करते हैं, और फिर भी ये दोनों एक-दूसरे के प्रति घृणा से भरे हुए हैं। वे सोचने लगे हैं कि मस्जिद या मंदिर में जाने के मतलब हैं कि हमें एक-दूसरे से घृणा करनी चाहिए। लेकिन अली, बहुत ही धर्मात्मा व्यक्ति होते हुए भी, ऐसा कभी नहीं सोचता था। मैंने यह कहानी आपको सिर्फ इसलिए सुनाई है कि मैं चाहता हूं कि आप में से प्रत्येक व्यक्ति महान काछलिया और उनके प्यारे पुत्र अली की तरह सच्चा देशभक्त बने। मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूं कि  वह आपको उन दोनों के जैसा नेक दिल दे।

हकीमजी ने आपको उस स्मरणीय दिवस (11 अक्टूबर, 1920) की याद दिलाई है, जब हिन्दुओं और मुसलमानों ने अपने मतभेदों को भुला दिया था और हमेशा के लिए एक हो गए थे, जब सारे भारत में छात्रों को आमंत्रित किया गया था कि वे सरकारी या सरकारी सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थाओं को छोड़कर निकल आए। मैं जानता हूं कि यह निमंत्रण देने में मेरा बहुत हाथ था, लेकिन मैं साहस के साथ कहता हूं कि सात साल बाद भी मुझे उसका कोई दुःख नहीं है और न मैं सोचता हूं कि वैसा करके मैंने कोई बड़ी भूल की थी। मेरा विश्वास है कि जिन्होंने सरकारी स्कूलों में पढ़ाई छोड़ दी थी, उन्होंने देश की बड़ी सेवा की थी। मुझे निश्चय है कि जब भारत के उस काल का इतिहास लिखा जाएगा, तो निःसंदेह इतिहासकार को, लिखना पड़ेगा कि जिन लोगों ने सरकारी संस्थाओं का बहिष्कार किया था, उन्होंने अपना और अपने देश का बहुत भला किया था।

मुझे उन शानदार दिनों के कुछ चिन्ह यहां देखकर खुशी हो रही है, और मुझे बहुत हर्ष है कि आप झंडे को ऊंचा रखने का पूरा-पूरा प्रयत्न कर रहे हैं। आपकी संख्या थोड़ी है, लेकिन संसार में अच्छे और सच्चे व्यक्तियों की संख्या बहुत ज्यादा कभी नहीं रही है। मैं आपसे कहता हूं कि आप संख्या थोड़ी होने की चिंता न करें, बल्कि याद रखें कि आप कितने ही थोड़े हों, लेकिन देश की स्वतंत्रता आप पर निर्भर है। स्वतंत्रता का आपके किताबी ज्ञान प्राप्त करने या यंत्रवत तकली चलाने मात्र से भी कोई वास्ता नहीं है। अगर आप में वे सब चीजें नहीं हैं, जो भारत की स्वतंत्रता के लिए आवश्यक हैं तो मैं नहीं जानता कि और किसमें हैं। वे चीजें हैं-ईश्वर का भय मानना और किसी भी मनुष्य से या साम्राज्य कहलाने वाले बहुत से मनुष्यों के संगठन से न डरना। यदि इन दो चीजों की शिक्षा इस संस्था में नहीं प्राप्त की जा सकती तो मैं नहीं जानता कि और कहां की जा सकती है। लेकिन मैं आपके प्रोफेसरों को जानता हूं, मैं हकीम साहब को जानता हूं और मुझे विश्वास है कि यहां ये दो बुनियादी चीजें बहुत सावधानी के साथ दिखाई जा रही है।

आपकी संस्था की, असंतोषजनक आर्थिक स्थिति की, मैं परवाह नहीं करता। तथ्य तो यह है कि मुझे खुशी है कि हम कठिनाई के साथ गुजारा कर रहे हैं, क्योंकि तब हम अपने रचयिता को और सच्चे मन से याद करेंगे और उससे डरेंगे। यदि विश्वविद्यालय अच्छा काम कर रहा है तो आपको दृढ़ विश्वास होना चाहिए कि ईश्वर आपको धन दे देगा।

हकीमजी की यह बात बिल्कुल ठीक है कि मेरे लिए दिल्ली आना मुश्किल था। लेकिन आपके पास आना मेरे लिए बड़ी सांत्वना और राहत देने वाली चीज थी। मैं आपको खुश करने के लिए नहीं, खुद अपने को खुशी देने के लिए, यहां आया हूं। मैं यहां एक स्वार्थपूर्ण उद्देश्य से आया हूं, और वह है आपको यह बताना कि आपके मिलिया के बाहर जो घृणा और जहर का बवंडर चल रहा है, हिन्दू और मुसलमान जो एक-दूसरे के खून के प्यासे हो रहे हैं, उन सबके बावजूद, आप लड़के लोग यहां अपने दिमाग ठंडे रखेंगे, अपने रचियता से विमुख न होंगे, अपने दिलों में घृणा को कोई स्थान न देंगे, तथा अपने देश और देश के धर्मों को विनाश की राह पर जाते देखकर, मन में भी खुश न होंगे। यही एक आशा है जो मुझे आपके पास खींच लाई है।

आपने ध्यान दिया होगा कि मैंने खादी या तकली के बारे में कुछ नहीं कहा है। उसकी वजह यह है कि जिन दो बुनियादी गुणों के बारे में, मैंने आपसे बात की है, उनके सामने खादी और तकली भी कुछ नहीं हैं। आप तकली चला सकते हैं और खादी पहन सकते हैं, लेकिन मैंने आप से जो चीजें करने को कहा है, यदि आप उन्हें नहीं करते तो आपकी खादी और तकली व्यर्थ होंगी। लेकिन मुझे विश्वास है कि हकीम साहब ने आपसे खादी पहनने की आवश्यकता के बारे में जो कुछ बताया है, उसे आप भूलेंगे नहीं। आप यह बात ध्यान में रखेंगे कि खादी के जरिए ही हम आज सैकड़ों बुनकरों, धोबियों, बढ़इयों आदि के अलावा 50,000 कतैयों को रोजी दे रहे हैं। यह मत भूलिए कि इनमें बहुत से मुसलमान हैं। चरखे के बिना कई जगहों पर मुसलमान औरतें भूखों मर रही होतीं। खादी पहनने के सिवा कोई दूसरा तरीका नहीं है, जिसके जरिए आप गरीब हिन्दुओं और मुसलमानों के साथ अपना तादात्म्य स्थापित कर सकें।

देश में, अपने दौरों में, मैं हजारों छात्रों से मिलता हूं। मैं देखता हूं कि वे भद्दी और गंदी आदतों में फंसे हुए हैं। उनकी चर्चा करने की जरूरत नहीं है, क्योंकि आप सभी उन्हें जानते हैं। मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूं कि वह आपको उन गंदे कामों से बचाए। जब मनुष्य अपने हाथ, आंखों और अपने दिमाग से गंदा कर लेता है तो वह मनुष्य नहीं रह जाता, बल्कि पशु बन जाता है।

हाथ, दिमाग या आंखों से कोई बुरा काम करने से आपको हमेशा बचना चाहिए। यदि हम सच्चे वीर पुरूष बनना चाहते हैं तो हमें सभी स्त्रियों को, उनकी आयु के हिसाब से, अपनी मां, बहन या बेटी मानना चाहिए। किसी स्त्री पर बुरी नजर न डालिए। हमें स्त्रियों के सम्मान की रक्षा के लिए, मरने को तैयार रहना चाहिए। मैं जानता हूं कि लोग आजकल इस कर्त्तव्य को भूलते जा रहे  हैं। मैं ईश्वर से एक बार फिर प्रार्थना करता हूं कि वह आपको इस बुराई से बचाए। और सबसे बड़ी बात यह है कि आप अपने-आपको शुद्ध और स्वच्छ रखें, प्राणों की कीमत पर भी, अपने वचन को निभाना सीखें और मैंने जो दृष्टांत आपके सामने दिए हैं, उनकी याद अपने दिलों में हमेशा ताजा रखें। मैं छात्रों को चंदे की थैली के लिए धन्यवाद देता हूं और मेरी कामना है कि यह विश्वविद्यालय दीर्घजीवी हो और भारत की आजादी का केंद्र बने।

(अंग्रेजी से)

यंग इंडिया, 10.11.1927

हिन्दुस्तान टाइम्स, 4.11.1927

(जामिया मिलिया इस्लामिया )

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