युगानुकूल और भारत केन्द्रित है नई शिक्षा नीति

 

सच्चिदानंद जोशीतत्कर्म यन्न बन्धाय सा विद्या या विमुक्तये।
आयासायापरं कर्म विद्यऽन्या शिल्पनैपुणम्॥ 

अर्थात कर्म वही है जो बंधनों से मुक्त करे और विद्या वही है जो मुक्ति का मार्ग दिखाये।
इसके अतिरिक्त जो भी काम है वे सब निपुणता देने वाले मात्र हैं।

शिक्षा के इस संकल्प को भारतीय परंपरा में वर्षों से अंगीकृत किया जाता रहा और तद्नुरूप ही विश्वविद्यालयों और गुरुकुलों में शिक्षा दी जाती रही। शिक्षा के साथ, संस्कार भी दिये जाते रहे और एक संपूर्ण मनुष्य बनाने की प्रक्रिया निरंतर जारी रही। यह भारतीय शिक्षा व्यवस्था की मजबूती का ही प्रभाव था कि कई विदेशी आततायियों के आक्रमण और भारत के एक बड़े भूभाग पर उनके द्वारा राज करने के बावजूद भारत का नैतिक और सांस्कृतिक आधार मजबूत बना रहा। आक्रमणकारी मंदिर और प्रतिमायें तो तोड़ पाये लेकिन भारतवासियों के मन में स्थित संस्कारों के मजबूत दुर्ग को नहीं भेद पाये। विश्वविद्यालय के पुस्तकालय जलाने से ग्रंथ सम्पदा तो नष्ट हो गई लेकिन ज्ञान सम्पदा शास्वत बनी रही।

सन 2020 की 29 जुलाई को भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी की अध्यक्षता में राष्ट्रीय शिक्षा नीति लागू करने का प्रस्ताव पारित हुआ तो दरअसल ये 34 वर्ष बाद किया जाने वाला परिवर्तन नहीं है। यह परिवर्तन वस्तुत: भारत के इतिहास में 185 वर्ष बाद आया है। जैसे हम आजादी के बाद से औपनिवेशिक मानसिकता से उबरने के लिये संघर्षरत थे और भौतिक रूप से स्वतंत्र होने के बाद भी मानसिक गुलामी से मुक्त होने के लिये छटपटा रहे थे। वैसे ही हम विगत 185 वर्षों से हमें गुलाम और जर्जर बनाने वाली शिक्षा व्यवस्था से मुक्त होने के लिये छटपटा रहे थे।

संभवत: भारतीय शिक्षा व्यवस्था का यही मजबूत आधार अंग्रेजी हुकूमत को बुरी तरह खटकने लगा था, क्योंकि भारत पर व्यापारिक सत्ता प्राप्त करने के बावजूद अंग्रेज न तो भारत की राजनैतिक सत्ता को प्राप्त कर सके थे और न ही सांस्कृतिक सत्ता को छिन्न विछिन्न कर पाये थे। सन 1835 में लाये गये इंग्लिश एज्युकेशन एक्ट के माध्यम से ब्रिटिश सरकार ने भारतीय भाषाओं, विशेषकर संस्कृत और अरबी में होने वाली शिक्षा पर गहरी चोट की। अंग्रेजी में शिक्षा को प्रोत्साहन दिया।

मंत्रालय के नाम का परिवर्तन तो एक प्रतीकात्मक परिवर्तन है। इसके साथ ही परिवर्तन के कई ऐसे सूत्र हैं जिनका समावेश शिक्षा नीति में है। ये परिवर्तन युगानुकूल है तथा भारत केन्द्रित है। इन परिवर्तनों के माध्यम से हम एक ऐसे आत्मनिर्भर भारत को बनता देख सकते हैं, जहां नौकरी पाने के बजाय नौकरी देने की लालसा ज्यादा प्रबल है।

उस समय भारत के गवर्नर जनरल लार्ड विलियम बैटिंक थे, लेकिन इस पूरे शिक्षा तंत्र को आमूलाग्र बदलने का कार्य किया था लार्ड थामस बेबिंगटन मैकाले ने। मैकाले का मानना था कि भारत की सांस्कृतिक जड़ों को खोखला करने के लिये शिक्षा व्यवस्था पर पकड़ बनाना जरूरी है। वह संस्कृत और अरबी में दी गई शिक्षा एवं ज्ञान को दोयम दर्जे का मानता था। मैकाले द्वारा भारतीय शिक्षा व्यवस्था में इसी दुर्भावना से किये गये परिवर्तनों के परिणाम को भारत अपनी आजादी के बहत्तर साल बाद भी भुगत रहा है। सन 2020 की 29 जुलाई को भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी की अध्यक्षता में राष्ट्रीय शिक्षा नीति लागू करने का प्रस्ताव पारित हुआ तो दरअसल ये 34 वर्ष बाद किया जाने वाला परिवर्तन नहीं है। यह परिवर्तन वस्तुत: भारत के इतिहास में 185 वर्ष बाद आया है।

जैसे हम आजादी के बाद से औपनिवेशिक मानसिकता से उबरने के लिये संघर्षरत थे और भौतिक रूप से स्वतंत्र होने के बाद भी मानसिक गुलामी से मुक्त होने के लिये छटपटा रहे थे। वैसे ही हम विगत 185 वर्षों से हमें गुलाम और जर्जर बनाने वाली शिक्षा व्यवस्था से मुक्त होने के लिये छटपटा रहे थे। राष्ट्रीय शिक्षा नीति भारत के लिये सही मायनों में ‘‘सा विद्या या विमुक्तये’’ का संदेश लेकर आई है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति की प्रमुख विशेषताओं की चर्चा के पूर्व 29 सितम्बर, 2018 के ऐतिहासिक दिन का स्मरण करना भी अप्रासंगिक नहीं होगा, जब दिल्ली में देश की शीर्ष शैक्षणिक संस्थाओं ने रिसर्च फॉर रिसर्जेन्स की अगुवाई में तथा भारतीय मनीषा के प्रखर चिंतक श्री रामबहादुर राय की अध्यक्षता में ‘‘एज्युकेशन फॉर रिसर्जेन्स’’ सम्मेलन आयोजित किया था।

वर्तमान में अध्यापक बनना सबसे अंतिम विकल्प के रूप में देखा जाता है। शिक्षा नीति में कहा है कि दो वर्ष के पाठ्यक्रम को त्वरित बंद किया जाए और केवल चार वर्ष का एकीकृत पाठ्यक्रम चलाया जाए, जिससे बारहवीं के बाद संकल्पबद्ध छात्र ही अध्यापन शिक्षा में प्रवेश लें। वर्तमान में शिक्षाकर्मी, गुरुजी के नाम से दिहाड़ी शिक्षक हैं, वे काम तो शिक्षक का करते हैं किंतु वेतन बहुत कम मिलता है।

इस सम्मेलन के आयोजकों में यूजीसी, एआईसीटीई, आईसीएसएसआर, आईजीएनसी, इग्नू, जेएनयू तथा एसजीटी विश्वविद्यालय जैसी संस्थायें शामिल थीं और देश के 400 कुलपतियों सहित एक हजार वरिष्ठ शिक्षाविदों ने इसमें भाग लिया था। भारत के यशस्वी प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने इसका शुभारंभ किया तथा तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री श्री प्रकाश जावड़ेकर और तत्कालीन राज्यमंत्री श्री सत्यपाल सिंह उसमें पूरे समय उपस्थित थे। श्री रामबहादुर राय ने इसे शिक्षा पर आयोजित ‘‘उपनिषद’’ की संज्ञा दी और वहीं उद्घोष किया कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय का नाम बदलकर पुन: शिक्षा मंत्रालय किया जाना चाहिये।

400 कुलपतियों सहित पूरे सभागृह ने ‘ओम’ की ध्वनि के साथ उनके इस उद्घोष का समर्थन किया। पिछले कुछ वर्षों में शिक्षा पर चिंतन के लिये आयोजित यह सबसे बड़ा सम्मेलन था। आज जब हम राष्ट्रीय शिक्षा नीति के प्रस्ताव में मानव संसाधन विकास मंत्रालय का नाम बदल कर शिक्षा मंत्रालय किये जाने का समावेश देखते हैं तो 2018 की उस उपनिषद् की याद बरबस आ ही जाती है। मंत्रालय के नाम का परिवर्तन तो एक प्रतीकात्मक परिवर्तन है। इसके साथ ही परिवर्तन के कई ऐसे सूत्र हैं जिनका समावेश शिक्षा नीति में है। ये परिवर्तन युगानुकूल है तथा भारत केन्द्रित है। इन परिवर्तनों के माध्यम से हम एक ऐसे आत्मनिर्भर भारत को बनता देख सकते हैं, जहां नौकरी पाने के बजाय नौकरी देने की लालसा ज्यादा प्रबल है। हम एक ऐसा भारत बनता देख सकते हैं, जिसकी युवा शक्ति भारत ही नहीं, समूचे विश्व को दिशा और ऊर्जा दोनों प्रदान करेगी। राष्ट्रीय शिक्षा नीति की कुछ विशेषताओं का उल्लेख करना यहां समीचीन होगा।

लचीलापन: शिक्षा की संरचना में लचीलापन अत्यंत महत्वपूर्ण है। शिक्षा नीति में 5-3-3-4 की रचना प्रस्तुत की है। पूर्व प्राथमिक शिक्षा को भी जोड़ा गया है। 9-12 को एकत्र सोचा गया है। इस स्तर पर विषय चुनाव में लचीले विकल्प प्रदान किए गए हैं। विज्ञान, वाणिज्य, कला शखाओं में भेद को मिटा कर मिश्रित विषय चयन का विकल्प भी रखा गया है। इससे ज्ञान के मुक्त प्रवाह की संभावना बढ़ेगी और रचनात्मकता भी प्रेरित होगी।

भारतीय भाषा: शिक्षा नीति में भारतीय भाषाओं के महत्व को अधोरेखित अवश्य किया है। उच्च शिक्षा भी भारतीय भाषाओं में उपलब्ध हो, ऐसी अनुशंसा नीति करती है। यह क्रांतिकारी है। अभियांत्रिकी, चिकित्सा जैसे व्यावसायिक पाठ्यक्रमों सहित सभी पाठ्यक्रमों में भारतीय भाषाओं का विकल्प उपलब्ध कराना आवश्यक है। इससे प्राथमिक कक्षाओं में भारतीय भाषाओं का महत्व बढ़ जाएगा। भाषा नीति में शास्त्रीय भाषा का उल्लेख तो है किंतु उसकी परिभाषा स्पष्ट नहीं है। संस्कृत केवल अनेक भाषाओं में से एक न होकर सभी भाषाओं के शुद्ध अध्ययन में उसका महत्व सर्वविदित है। इसे भविष्य में भी ध्यान रखा जाना चाहिये।

नेशनल रिसर्च फाउंडेशन: राष्ट्रीय अनुसंधान संगठन एक क्रांतिकारी संकल्पना है जिसके अंतर्गत उच्च शिक्षा में अनुसंधान को नई गति मिलेगी। इससे समाजोपयोगी, उद्देश्यपूर्ण और परिणामकारी अनुसंधान होगा। इससे भारत केन्द्रित अनुसंधान तथा मौलिक शोध, दोनों को प्रोत्साहन मिलेगा।

शिक्षक की अस्मिता: शिक्षक का सम्मान भारत में हमेशा से रहा है। गत कुछ वर्षों में कुछ प्रमाण में सम्मान कम होता प्रतीत हो रहा है। शिक्षकत्व समाज में पुन: प्रतिष्ठित होगा तो समाज समर्थ बनेगा। इस हेतु शिक्षा नीति में दो उपाय सुझाये हैं – अध्यापक शिक्षा का व्यावसायिक स्वरूप तथा अनुबंध नियुक्ति पूर्ण प्रतिबंध। वर्तमान में अध्यापक बनना सबसे अंतिम विकल्प के रूप में देखा जाता है। शिक्षा नीति में कहा है कि दो वर्ष के पाठ्यक्रम को त्वरित बंद किया जाए और केवल चार वर्ष का एकीकृत पाठ्यक्रम चलाया जाए, जिससे बारहवीं के बाद संकल्पबद्ध छात्र ही अध्यापन शिक्षा में प्रवेश लें। वर्तमान में शिक्षाकर्मी, गुरुजी के नाम से दिहाड़ी शिक्षक हैं, वे काम तो शिक्षक का करते हैं किंतु वेतन बहुत कम मिलता है। अत: इस प्रावधान को बंद करना भी स्वागतयोग्य है। शिक्षक की प्रतिष्ठा बढ़ाने में यह एक प्रभावी उपाय है।

व्यावसायिक शिक्षा एवं कौशल विकास: कौशल शिक्षा के नाम पर पूरे देश में बहुत बड़ा प्रपंच खड़ा हुआ है किंतु औपचारिक शिक्षा में उसे पर्याप्त स्थान नहीं है। शिक्षा नीति में शालेय शिक्षा में ही व्यावसायिक शिक्षा भी जोड़ा गया है। 9वीं से 12वीं के स्तर पर व्यावसायिक शिक्षा को मुख्य शिक्षा का भाग बनाया गया है। इससे आत्मनिर्भर भारत की संकल्पना को भी बल मिलेगा। इससे श्रम की महत्ता स्थापित होगी और कौशल को सामाजिक प्रतिष्ठा भी मिलेगी।

शिक्षण विधि: वर्तमान में अध्येता केंद्रित, शिक्षा की चर्चा होती है। इस हेतु अनेक उपाय पूर्व में किए गए हैं। लेकिन उसमें आशातीत सफलता नहीं मिली है। हमारी शिक्षा अभी भी उसी रूढ़िवादी ढांचे से जकड़ी है। भारत का आदर्श अध्ययन केंद्रित तथा शिक्षक आधारित शिक्षा है। इस राष्ट्रीय शिक्षा नीति में इन दोनों बातों को महत्व दिया गया है। अध्ययन का दायित्व विद्यार्थी का है। शिक्षक तो मार्गदर्शक की भूमिका में होता है। पाठ्यक्रम निर्धारण की जिम्मेवारी शिक्षकों पर दी गई है। यदि विद्यार्थी, शिक्षक और अभिभावक सभी अपनी भूमिकाओं का सही निर्वाह करेंगे तो गुरुकुल जैसी आदर्श शिक्षा संभव हो सकेगी।

समाज पोषण: भारत में सदैव शासन मुक्त शिक्षा व्यवस्था की बात की गई है किंतु इसका अर्थ वर्तमान में निजीकरण से नहीं रहा है। शिक्षा सदा ही समाज का दायित्व रहा है। अत: शिक्षा व्यवस्था समाज पोषित हो, ऐसी अपेक्षा की जाती रही है। शिक्षा नीति में प्रशासन में समाज के सहभाग की व्यवस्था की गई है।

वित्त विपुलता: अनेक वर्षों से विभिन्न संगठन यह मांग करते रहे हैं कि शिक्षा मद में सरकार के व्यय को जीडीपी के 6 प्रतिशत तक बढ़ाया जाना चाहिये। इस बात का संज्ञान लेते हुए नीति में समुचित आर्थिक व्यवस्था की बात की है। व्यापारिक संस्थानों को भी सीएसआर कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी के माध्यम से शिक्षा में योगदान करने का प्रावधान विधि में सुधार द्वारा करने की बात नीति में की गई है। यदि उचित राजनीतिक इच्छाशक्ति के साथ नीति को क्रियान्वित किया जाता है तो शिक्षा के क्षेत्र में विपुल मात्रा में वित्त की उपलब्धता हो सकेगी और सभी शिक्षकों को नियमित करने जैसे क्रांतिकारी उपायों को लागू किया जा सकेगा।

वैश्विकता: भारत में ज्ञान के क्षेत्र में कभी सीमाओं का निर्धारण नहीं किया गया। हमारे शिक्षक सारे विश्व में शिक्षा प्रदान करते रहे हैं और सारे विश्व के जिज्ञासु भारतीय विश्वविद्यालयों में आकर ज्ञान प्राप्त करते रहे हैं। विदेशी शासन के बाद इस स्थिति में परिवर्तन हुआ और हम अपने राजनैतिक सीमाओं में सिमट गए। वर्तमान में भारतीय विश्वविद्यालयों को विदेशों में शिक्षा देने का अधिकार नहीं है। विदेशी छात्रों के प्रवेश की भी अत्यंत सीमित संभावना अभी भारत के विश्वविद्यालयों में है। शिक्षा नीति सीमाओं को खोलती है। विदेशी विश्वविद्यालयों का भारत में स्वागत करने के साथ ही भारतीय विश्वविद्यालयों के विदेशों में परिसर खोलने की बात शिक्षा नीति ने की है।

राष्ट्रीय पाठ्यक्रम: शालेय स्तर पर राष्ट्रीय पाठ्यक्रम की अनुशंसा स्वागतयोग्य है। इसके लिये राष्ट्रीय पाठ्य सामग्री का निर्माण भी होगा। उच्च शिक्षा तक सभी वर्ष विशेष विषयों के साथ आधार पाठ्यक्रम (फाउंडेशन कोर्स) शिक्षा की समग्रता के लिए आवश्यक है। चाहे जिस भी विषय के विशेषज्ञ हमें बनाने हों, कुछ मूलभूत बातें सभी के लिए अनिवार्य होती हैं। देश का इतिहास, भूगोल, उसकी परंपराओं का ज्ञान, साथ ही सामान्य नागरिक नियम-पर्यावरण, स्वच्छता के नियम आदि का भी शिक्षा के औपचारिक रूप में प्रावधान होना आवश्यक है। समय का मूल्य, समय का नियोजन, कठोर समय पालन जैसे विषय भी इस आधार पाठ्यक्रम का अंग बनने चाहिए।

भारत केन्द्रित पाठ्यक्रम: इसी के अंतर्गत देश के सांस्कृतिक आध्यात्मिक ज्ञान के बारे में पाठ्यक्रम की बात भी शिक्षा नीति में की गई है। वर्तमान में उत्तर प्रदेश में ‘राष्ट्र गौरव’ नाम से इस प्रकार की पुस्तक शालेय स्तर पर पाठ्यक्रम का अंग है। शिक्षा नीति में भारत की ज्ञान परंपरा, गौरव बिंदु, ज्ञानिक परंपरा आदि को सम्मिलित कर एक ‘भारत बोध’ जैसे पाठ्यक्रम हर स्तर पर समाविष्ट किया जा सकता है। पारदर्शी गुणवत्तापूर्ण व्यवस्थापन: व्यावसायिक पाठ्यक्रमों (Professional courses) के नियमन हेतु बने – MCI, ICAR, BCI, NCTE जैसी संस्थाएं वर्तमान शिक्षा क्षेत्र के व्यापार और भ्रष्टाचार का केंद्र बन गई हैं। शिक्षा नीति में इन संस्थाओं की भूमिका में पूर्ण परिवर्तन सुझाया है। ये संस्थाएं व्यावसायिक मानक निर्धारण संस्था (professional standards setting body – PSSB) बनें, नियंत्रक नहीं, इसका ध्यान रखा जाना आवश्यक है।

उद्योग का सहभाग: वित्त विपुलता हेतु आर्थिक योगदान के साथ ही शैक्षिक रूप से भी उद्योग जगत का सहभाग शिक्षा में हो, ऐसी मंशा नीति में है। पाठ्यक्रम निर्धारण, अनुसंधान तथा शिक्षकों को कायार्नुभव जैसे उपायों से उद्योग जगत को शैक्षिक गतिविधि में भागीदार बनाकर उच्च शिक्षा को अधिक व्यावहारिक बनाया जा सकता है।

रचनात्मकता: इस शिक्षा नीति में विद्यार्थी की रचनात्मकता को प्रोत्साहन देने के लिये विशेष प्रावधान किये गये हैं। इसमें शिक्षा व्यवस्था में आ रही जड़ता और एकरसता को तोड़ते हुये रचनात्मक मेधा और प्रतिभा को प्रोत्साहन मिलने की संभावना बनती है। इसे मूर्त रूप तभी मिल सकेगा जब इसका क्रियान्वयन अच्छी तरह से हो तथा विगत डेढ़ सौ वर्षों से रूढ़िवादी सोच को बदला जाये।

कला और संस्कृति को महत्व: वैसे तो मंत्रालय का नाम बदलने की प्रक्रिया को पूर्णता मिल जाती, यदि मंत्रालय का नाम बदलकर ‘‘शिक्षा और संस्कृति मंत्रालय’’ किया जाता। विगत वर्षों में शिक्षा का संस्कृति से संबंध दूर होता चला जा रहा था। संस्कृति मात्र औपचारिकता के लिये ही या अतिरिक्त कार्य के रूप में ही शिक्षा के साथ बची थी। अति व्यावसायिकता तथा व्यावहारिकता मूलक शिक्षा, संस्कृति और संस्कार की समझ विकसित करने में अक्षम साबित हो रही थी। इस शिक्षा नीति में संस्कृति के मर्म को समझते हुये शिक्षा के साथ संस्कृति का समन्वय स्थापित करने की कोशिश की गई है। आशा की जानी चाहिये कि संस्कार और मूल्य बोध देने वाली शिक्षा का उद्भव होगा और इससे भारतीय समाज में हम सकारात्मक परिवर्तन देख पायेंगे। होलिस्टिक आर्ट्स जैसी विधा को प्राथमिकता से उभारा गया है। साथ ही सॉμट स्किल्स पर भी खासा जोर है। ये शब्द लुभाने वाले ही बन कर रह जायेंगे यदि उनके मर्म तक जाकर सचमुच उस भावना से क्रियान्वयन नहीं हुआ तो। इसलिये आवश्यक होगा कि सरकारों और समाज का शिक्षा की ओर देखने का नजरिया बदले।

स्वायत्तता: इस नीति में शिक्षा व्यवस्था को स्वायत्त बनाने पर जोर दिया गया है। अब तक जिन प्राधिकरणों के माध्यम से काम हो रहा था, उन्हें सशक्त और स्वायत्त बनाकर ही इस नीति का प्रभावी क्रियान्वयन हो सकता है। स्कूल एवं उच्च शिक्षा, दोनों स्तरों पर अधिकाधिक स्वायत्तता मिले और वह स्वच्छंदता में न बदले, ये दोनों ही बातें आवश्यक हैं। शिक्षा एक संवेदनशील विषय है और इसमें स्वतंत्र वैचारिक प्रवाह आवश्यक है। साथ ही यह भी आवश्यक है कि यह प्रवाह द्वंद्व में न बदले। इसलिये इस नीति के क्रियान्वयन में जितनी स्वायत्तता प्राप्त होगी, उतनी ही यह नीति प्रभावकारी होगी।

कला और सामाजिक विषय के राष्ट्रीय महत्व के संस्थान: कला, साहित्य में रुचि होते हुए भी केवल सामाजिक प्रतिष्ठा के कारण अनेक छात्र आईआईटी में प्रवेश लेते हैं। मौलिक विज्ञान के प्रति छात्रों का रुझान बढ़ाने हेतु 10-15 वर्ष ISER, NISER जैसी संस्थाओं का प्रारंभ किया गया। इस शिक्षा नीति में कला क्षेत्र में इस प्रकार के राष्ट्रीय महत्व के संस्थान स्थापित करने का निर्णय लिया गया है।Indian Institute of liberal Arts – IILA तथा अनुवाद के लिए ´Indian Institute of Translation & Interpretation – IITI का उल्लेख नीति में है। इस शिक्षा नीति की विशेषता है कि इसमें सभी स्तरों पर भारत को केंद्र में रखा गया है। भारत की परिस्थितियों के अनुसार नीति बनाई गई हैं। वैश्विक स्तर तथा प्रतिस्पर्धा की चर्चा तो है किंतु विश्व में स्थान प्राप्त करने के लिए अंधानुकरण की बात नहीं की गई है। वैश्विक बातों को देशानुकूल कर स्वीकार करने की संभावना इस नीति में है। यह नीति एक युगांतरकारी कदम है जो भारत को उत्कर्ष और उन्नति की ओर ले जायेगा। आशा की जानी चाहिये कि इसका क्रियान्वयन उसी भावना से हो जिस भावना से यह नीति बनी है। यदि ऐसा होता है तो हम निश्चित ही एक दैदीप्यमान भारत का सपना साकार होते देख पायेंगे।

(शिक्षाविद् और साहित्यकार डॉ. सच्चिदानंद जोशी पूर्व कुलपति और
सम्प्रति इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के सदस्य सचिव हैं)

 

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