कांग्रेस से एक राजनीतिक देवदूत का जाना

रामबहादुर राय

गुलाम नबी आजाद कांग्रेस में एक राजनीतिक देवदूत थे। कांग्रेस से एक राजनीतिक देवदूत का जाना कांग्रेस के लिए शुभ संकेत नहीं है। कांग्रेस से नाता तोड़कर उनका नई राह लेना इस बात की सूचना है कि कांग्रेस को फिलहाल सुधारा नहीं जा सकता।

पूरा नाम है, गुलाम नबी आजाद। बहुत कीमती नाम है। उसी तरह का यह नाम है, जैसा कभी राजीव गांधी के समय में विश्वनाथ प्रताप सिंह का होता था। जैसे ही विश्वनाथ प्रताप सिंह ने राजीव गांधी को छोड़ा, वैसे ही राजीव गांधी की चमक चली गई। उन्हें मिस्टर क्लीन कहा जाता था। थे या नहीं, इस पर विवाद है। लेकिन जिन्होंने भी राजीव गांधी से बात की है, वे जानते हैं कि वे थे दिल के साफ। राजनीति के दांव-पेंच से दूर एक पारिवारिक व्यक्ति थे। उनकी ही संतान हैं, राहुल गांधी। जब विरोधी कहते हैं कि राहुल गांधी राजनीति के लिए नहीं बने हैं तो इसे कटाक्ष माना जाता। वही बात जब गुलाम नबी आजाद कहते हैं तो वह ईशवचन है। उन्होंने कांग्रेस पार्टी की सदस्यता छोड़ने से पहले जो बयान दिया है, जानना चाहिए कि उसका मर्म क्या है? कौन सा वह शब्द या वाक्यांश है जो अपने आप में पूरी कहानी कहता है? इसे जब खोजेंगे तो पाएंगे कि उनके बयान में जहां वे कहते हैं कि कांग्रेस की दुर्दशा के लिए राहुल गांधी जिम्मेदार हैं और इसे वे तमाम उदाहरणों से पुष्ट करते हैं, यही वह बात है जो कांग्रेसियों के लिए कीमती होनी चाहिए।

अनेक तरह के कयास लगाए जा रहे हैं। उनके विवरण में जाने की जरूरत नहीं है। राजनीति में जब कोई निर्णायक मोड़ लेने का फैसला करता है तो कयास लगाए ही जाते हैं। कोई नई बात नहीं है। इसमें भी कोई नयापन नहीं है कि क्यों उन्होंने कांग्रेस छोड़ी! इसका एक सिलसिला चल ही रहा था। जिन मजे हुए कांग्रेसियों ने एक समूह बनाकर खंदक से कांग्रेस को राजमार्ग पर लाने का प्रयास किया, उनमें एक और सबसे महत्वपूर्ण नेता गुलाम नबी आजाद थे। जिसे मीडिया ने ‘गु्रप-23’ कहना शुरू किया। वैसे ही जैसे कभी मीडिया ने कांग्रेस के एक सुधारवादी समूह को ‘युवा तुर्क जमात’ बताया था। उसके नायक चंद्रशेखर थे। चंद्रशेखर और गुलाम नबी आजाद का संबंध पड़ोसी का भी था। चंद्रशेखर के निवास से जो स्वतंत्रचेता की बयार बहती थी वह ऐसा कैसे हो सकता है कि पड़ोसी की कोठी में न पहुंचे। बात उस समय की है जब विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री पद पर आसीन हो गए थे। उन्हीं दिनों की यह ऐसी घटना है जिसे गुलाम नबी आजाद के अलावा थोड़े लोग ही जानते हैं।

डॉ. राममनोहर लोहिया अस्पताल के एक कमरे में भर्ती थे, गुलाम नबी आजाद। किसी को इसकी भनक तक नहीं थी। लेकिन पड़ोसी चंद्रशेखर यह जानते थे। इससे यह समझा जा सकता है कि चंद्रशेखर उन नेताओं में से नहीं थे जो अपनी चारदीवारी में बंद रहता हो। पड़ोस का ख्याल न करता हो। उन्हें जैसे ही गुलाम नबी आजाद के बारे में मालूम हुआ कि वे अस्पताल में दाखिल हैं तो चंद्रशेखर पहले राजनेता थे जो उन्हें देखने गए। देर तक वहां रहे। इस घटना को शायद राहुल गांधी नहीं जानते। राहुल गांधी को उसी दिन सचेत और अपने प्रति ईमानदार होने का प्रयास करना चाहिए था, जिस दिन गुलाम नबी आजाद का राज्यसभा में कार्यकाल समाप्त हुआ। उन्हें विदाई दी गई। वह रस्मी विदाई नहीं थी।

लेकिन राजनीतिक विदाई भी नहीं थी। उसी दिन नई राजनीति के संकेत हवा में तैरने लगे। क्यों? इसलिए कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गुलाम नबी आजाद के गुणों का वर्णन करते हुए इतने भाव-विभोर हो गए कि करुणा उनके स्वर में व्यक्त होने लगी। वह उनके आंखों में पहुंची और आंसुओं में प्रकट हुई। इसे मीडिया ने पूरी दुनिया को बताया। प्रसंग क्या था? भुज में प्रकृति ने जो महाविनाश का कहर ढाया था उसका ही प्रसंग था। बात पुरानी है। लेकिन उस अवसर पर जब नरेंद्र मोदी उजड़े और आफत के मारे लोगों को राहत देने में लगे थे तब एक सुदूर बैठा राजनेता दलीय दायरे को दरकिनार कर पूछ रहा था कि किस तरह की मदद जरूरी है।

वह प्रसंग कितना मार्मिक रहा होगा! इसी से पता चलता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उसे भूल नहीं पाए। यह उनकी महानता है। लेकिन इसका दूसरा पहलू भी है कि गुलाम नबी आजाद किस प्रकार के इंसान हैं। कांग्रेस से नाता तोड़ना वास्तव में उनके लिए उस इंसानियत का फर्ज अदा करना भी था जिसके लिए महात्मा गांधी ने तपस्या की थी। कांग्रेस को स्वराज का उपकरण बनाया था। मीडिया में जो खबरें आई हैं वे गुलाम नबी आजाद की सही समझ से वंचित है। इस तरह अखबारों ने अपने पाठकों को आधी-अधूरी सूचना दी है। उन सूचनाओं में आजाद पर जोर है। मानो वे गुलाम थे। अब आजाद हुए हैं।

यह सही है और इससे कोई इंकार भी नहीं कर सकता। स्वयं गुलाम नबी आजाद भी इसे स्वीकार करेंगे कि उनके नाम में शुरू में गुलाम है और अंत में आजाद है। जिन्हें नबी की समझ नहीं है वे गुलाम और आजाद के शब्दों को साधारण अर्थों में समझेंगे और समझाएंगे। जो जानते हैं वे ऐसी भूल नहीं करेंगे। जिस व्यक्ति के नाम के मध्य में नबी हो वह उसका गुलाम है और संसार से आजाद है। किसी मनुष्य की सबसे बड़ी साधना यही होती है कि वह नबी का गुलाम हो और दुनियादारी से आजाद हो। राजनीति एक प्रकार की दुनियादारी है। जब वह पटरी से उतर जाए और उसे दुरुस्त करने की कोई दूर तक संभावना न दिखें तब जो फैसला गुलाम नबी आजाद ने किया वह वे ही कर सकते हैं। यहां समझ लें कि नबी अर्थात क्या? नबी का अर्थ है-ईश्वर का दूत। तो समझ लीजिए कि गुलाम नबी आजाद कांग्रेस में ईश्वर के दूत की तरह थे और अब कांग्रेस से नाता तोड़कर उनका नई राह लेना इस बात की सूचना है कि कांग्रेस को फिलहाल सुधारा नहीं जा सकता।

जो लोग कयास लगा रहे हैं वे उनके इस फैसले में राजनीति खोज रहे हैं। यह बहुत स्वाभाविक है। गुलाम नबी आजाद संन्यास लेने के लिए उन्होंने कांग्रेस को अलविदा नहीं कहा है। वे राजनीति की अपनी राह बनाएंगे। उन्हें मालूम है कि मंजिल कहां है? उन्‍हें यह भी मालूम है कि चलने से ही मंजिल मिलती है, बैठने, सोचने और तमस में पड़े रहने से नहीं। इसका दूसरा अर्थ यह भी है कि कांग्रेस तमस में पड़ी हुई है। तमस वह बांध है जो नदी के प्रवाह को रोक देता है। बांध बड़ा हो और मजबूत हो तो नदी वहीं रुक जाती हैं और उसके आगे वह सूखती चली जाती है। कांग्रेस के लिए राहुल गांधी तमस के ऐसे मजबूत बांध बन गए हैं जो उसके प्रवाह को रोके हुए हैं। इस नतीजे पर पहुंचकर गुलाम नबी आजाद ने कांग्रेस से नाता तोड़ा।

तात्कालिक कारण क्या था जिससे उन्हें फटाफट फैसला लेना पड़ा? यह जो जानेगा वह भविष्य की उनकी राजनीति को समझ सकेगा। इसे अंग्रेजी के एक साप्ताहिक अखबार ने बताया है। वह अखबार है-‘दी संडे गार्जियन।’ बदर बशीर ने अपनी विश्लेषणात्मक रिपोर्ट में बताया है कि जम्मू और कश्मीर कांग्रेस का जिस दिन पुनर्गठन हुआ और विकार रसूल वानी अध्यक्ष बनाए गए उस दिन ही गुलाम नबी आजाद हाशिए पर पहुंचा दिए गए। जिस जम्मू-कश्मीर कांग्रेस के कद्दावर नेता गुलाम नबी आजाद हैं उन्हें हाशिए पर पहुंचाने का निर्णय किसने किया? यह निर्णय राहुल गांधी का था। इस निर्णय से राहुल गांधी की राजनीतिक नासमझी प्रकट होती है। क्या इस प्रक्रिया में राहुल गांधी ने गुलाम नबी आजाद से कोई बातचीत की? अपनी योजना के बारे में परामर्श किया? ऐसे प्रश्नों के उत्तर नकारात्मक हैं। इससे दो बातें स्पष्ट हैं।

पहली, राहुल गांधी मनमानी करने की अपनी आदत से बाज नहीं आएंगे। इसका सवाल नहीं है कि वे अध्यक्ष रहते हैं या नहीं। वे कांग्रेस पार्टी की डोर अपने हाथ में रखना चाहते हैं। कठपुतली की तरह कांग्रेस को चलाना चाहते हैं। दूसरी, जो कांग्रेस को सुधारना चाहते हैं, उन्हें भी यह अनुभव हो गया है कि सुधार संभव नहीं है। कांग्रेस का नवनिर्माण ही संभव है। यह तभी होगा जब पहले कांग्रेस के हर तल पर उसी तरह का विस्फोटक लगा दिया जाए जैसा नोएडा के दो टावरों में किया गया है। वहां जो टावर थे अब मैदान हैं। नियम और कानून का पालन करते हुए वहां नवनिर्माण संभव है। गुलाम नबी आजाद का फैसला उसी तरह का है जैसा उन टावरों के लिए सुप्रीम कोर्ट ने सुनाया था। देर लगेगी, लेकिन कांग्रेस को अपनी नियति का सामना करना ही होगा। आखिर एक राजनीतिक देवदूत ने अपना निर्णय सुना दिया है। वह व्यर्थ नहीं जाएगा!

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