संशोधन प्रस्ताव वापस

रामबहादुर राय

बहस समापन की ओर बढ़ रही थी। साथ साथ् सहमति के स्वर एक होने लगे थे। संविधान सभा के सदस्य लक्ष्य संबंधी प्रस्ताव का महत्व समझ रहे थे। सवाल रास्ते का था। इस पर ही हर वक्ता बोले। वे संविधान सभा की प्राथमिकताओं को बताने, गिनाने और रेखांकित करने का प्रयास करते थे। ऐसे ही कुछ भाषण 21 जनवरी, 1947 को हुए। जिसमें एच.जे. खाण्डेकर का भाषण उस समय भी बहुत चर्चित हुआ और आज भी प्रासंगिक है। वे हिंदी में बोले। उनका आग्रह था कि संविधान हिंदी में बने। उनके शब्द हैं‘हि न्दुस्तान का जब संविधान बनने जा रहा है तो हमें उसे अपनी देशी भाषा में ही बनाना चाहिए। अपनी राष्ट्र भाषा में ही बनाना चाहिए।’ इस भूमिका के बाद उनका कहना था कि मैं इसीलिए अपना भाषण हिन्दुस्तानी में कर रहा हूं। वे अनुसूचित जाति से थे। उन्होंने दावा किया कि वे पूरी अनुसूचित जाति की ओर से बोल रहे हैं। इस दावे के आधार पर उन्होंने डॉ. भीमराव आंबेडकर की उस मांग को अनुचित ठहराया जिसमें वे अनुसूचित जाति के लिए अलग चुनाव क्षेत्र मांग रहे थे।

रघुनाथ विनायक धुलेकर ने एक लंबा भाषण किया जो सबसे अलग था। वे भी हिंदी में बोले। उन्होंने शुरुआत भी अलग तरह से की। संविधान सभा के लक्ष्य संबंधी प्रस्ताव पर उनसे पहले जो भी भाषण हुए थे उनमें ज्यादातर ने गांधीजी का उल्लेख चलते-चलाते कर दिया था। लेकिन धुलेकर ने यह जरूरी समझा कि वे महात्मा गांधी के जीवन दर्शन का सार पहले बता दें।

खाण्डेकर का यह कथन उस समय की वास्तविक चिंता को प्रकट करता है। उन्होंने कहा- ‘अनुसूचित जाति पर अत्याचार हुए हैं, और हो रहे हैं। फिर भी हमने अपना धैर्य नहीं खोया। हम हिन्दू हैं, हिन्दू ही रहेंगे और इसी रूप में अपने अधिकार के लिए लड़ेंगे। लेकिन यह नहीं कहेंगे कि हम हिन्दू नहीं हैं।’ उनके भाषण से यह सूचना मिलती है कि नोआखाली के नरसंहार में ‘नब्बे फीसदी अत्याचार अनुसूचित जाति’ के लोगों पर हुआ। उन्हें संविधान सभा की संरचना के आधार पर आपत्ति थी जिसे प्रकट किया। अंग्रेजों ने आबादी के एक हिस्से को अपराधी घोषित कर दिया था। उसके बारे में जवाहरलाल नेहरू का प्रस्ताव मौन था। इसे ही उन्होंने प्रस्ताव की कमी बताया। उनकी मांग थी कि ‘इस कानून को हटाने के लिए प्रस्ताव में प्रावधान होना चाहिए।’ उसी दिन रघुनाथ विनायक धुलेकर ने एक लंबा भाषण किया जो सबसे अलग था। वे भी हिंदी में बोले। उन्होंने शुरूआत भी अलग तरह से की। संविधान सभा के लक्ष्य संबंधी प्रस्ताव पर उनसे पहले जो भी भाषण हुए थे उनमें ज्यादातर ने गांधीजी का उल्लेख चलते-चलाते कर दिया था।

लेकिन धुलेकर ने यह जरूरी समझा कि वे महात्मा गांधी के जीवन दर्शन का सार पहले बता दें। इसलिए उन्होंने कहा कि ‘महात्मा गांधी ने मानव जीवन के तत्व को दो शब्दों में रख दिया है, सत्य और अहिंसा। जो न्याय है, जो उचित है, जो धारण करने योग्य है अर्थात धर्म है, वही सत्य है। जो दूसरों को हानि नहीं पहुंचाता है, दूसरों की सम्पत्ति और स्वतंत्रता का अपहरण नहीं करता, जो दूसरों के जीवन की, सामाजिक जीवन की रक्षा करता है, वही सत्य है, वही अहिंसा है।’ उनकी दृष्टि में लक्ष्य संबंधी प्रस्ताव का आधार यही है। उन्होंने प्रस्ताव का न केवल समर्थन किया बल्कि यह कहा कि ‘कोई भी विचारवान मनुष्य इस प्रस्ताव के किसी भी अंग पर आपत्ति नहीं उठा सकता।

इसमें समस्त भारतीयों को रक्षा का वचन दिया गया है। पिछड़ी हुई और पद दलित जातियों पर विदेशियों ने जो अन्याय किया है उसको पूरी तरह से हटाने और उनकी उन्नति के अवसरों को प्राप्त करा देने का वचन दिया गया है।’ उस समय अनेक वक्ताओं ने यह सवाल उठाया था कि देशी रियासतों के प्रतिनिधि संविधान सभा में नहीं है। इसका उन्होंने उचित उत्तर दिया। यह बताया कि कैबिनेट मिशन की घोषणा में जो प्रावधान है उसके कारण रियासतों के प्रतिनिधियों  को आखिर में आना है। उन्होंने भी मुस्लिम लीग की अनुपस्थिति को अनुचित ठहराया। लॉर्ड साइमन और चर्चिल के कथन की निंदा की। ब्रिटेन को उन्होंने चेतावनी भी दे दी। प्रस्ताव में अल्पसंख्यक समूहों और पिछड़ी जातियों के लिए जो प्रावधान थे उनके बारे में धुलेकर का दृष्टिकोण सबसे अलग था। हालांकि वे कांग्रेस के सदस्य थे। स्वाधीनता सेनानी थे।

लेकिन उनके भाषण का स्वर कुछ अलग ही था। जैसे वे कहते हैं कि ‘विशेष प्रावधान का प्रश्न तभी उठता है जब अन्याय का भय हो। वे अस्पृश्यता को ऐसा अपराध समझते हैं जो अक्षम्य है। इसे मिटाने का आश्वासन संविधान के लक्ष्य में वे पाते हैं। यह कहने के बाद जो बात उन्होंने रखी वह नई है। इस अर्थ में कि उसकी चर्चा संविधान सभा में किसी दूसरे ने नहीं की। उन्होंने कहा कि ‘विदेशियों ने यहां आकर अपनी राजसत्ता को कायम करने के लिए असमानताओं को बढ़ाया। द्वेष और दुर्भावानाओं को उत्पन्न किया। नयी-नयी गुत्थियां बना दी।’ वे इन शब्दों में उसे बताते हैं – ‘ब्राह्मण अब्राह्मण को, छूत-अछूत को, हिन्दू-मुसलमान को, हिन्दू-सिख को, आदिवासी और गैरआदिवासी आदि को अंग्रेजों ने अपनी कुटिल चालों से अलग-अलग कर दिया।’ उन्होंने पूछा कि ‘क्या उनका भी अपराध हम अपने सर पर ढ़ोना चाहते हैं?’ उनका कहना था कि ‘जिस सुरक्षा के विशेष अधिकारों की आड़ में अंग्रेज बहेलिया शिकार खेलता था, जिन विशेषाधिकार की सुगंध सुंघाकर अंगे्रज ने हमें महा निंद्रा में सुला दिया था। उसी सुगंधियुक्त विष को अब न सूंघिये। यह विधान आप स्वयं बना रहे हैं। अब भेदाभेद मिटा दिया जायेगा। न कोई बहकाने वाला है और न किसी को बहकाने की आवश्यकता है।

विशेषाधिकारों से असमानता नहीं मिट सकती। गड्ढों और टीलों को सुरक्षित रखकर समतल कैसे बनाया जा सकता है? आइये, हम सब मिलकर निर्भय होकर असमानता हटाएं, सबको समानाधिकार प्राप्त कराए।’ उन्होंने भारतीय इतिहास के 1000 साल का जैसा वर्णन किया वह सबसे अलग और प्रेरक कथन है। उनका कहना था कि भारत बीते 1000 साल से स्वाधीन होने के लिए संघर्षरत है। वह घड़ी आ गई है जब भारत स्वतंत्र हो जाए। जो संघर्ष चला वह अविराम था। उसमें साधु-संतों ने बड़ी भूमिका निभाई। स्वामी रामदास, गोस्वामी तुलसीदास, गुरूनानक, स्वामी दयानंद, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद और रामतीर्थ आदि इस परंपरा के प्रतिनिधि हैं। उन्होंने कहा कि दूसरी ओर शिवाजी, गुरुगोविंद सिंह, राणा प्रताप, झांसी की विरांगना रानी लक्ष्मीबाई, राजाराम मोहन राय, लोकमान्य तिलक, पंडित मोतीलाल नेहरू, नेताजी सुभाष चंद्र बोस आदि उस धारा के राजनीतिक व्यक्तित्व थे।

महात्मा गांधी और खान अब्दुल गμफार खां में संत और राजनीतिज्ञ का समन्वय है। उन्होंने कहा कि भारत में स्वतंत्रता की लड़ाई 200 सालों से जारी है। कांग्रेस का इतिहास भी बलिदानों का है। उन्होंने खुदीराम बोस, भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद के बलिदान की याद दिलाई। यह कहा कि कांग्रेस जन ने भी अदम्य साहस और धैर्य का परिचय दिया है। इस कारण ही ब्रिटेन को समयस मय पर भारत के लोगों की मांगे मजबूरन माननी पड़ी। विश्व युद्ध की समाप्ति पर ब्रिटेन मजबूर हो गया था। उसे भारत को संविधान सभा देनी पड़ी। जो स्वाधीनता की पहली सीढ़ी है। उन्होंने भरोसा जताया कि संविधान सभा का निर्णय ब्रिटेन की सरकार को मानना ही पड़ेगा। इसलिए उन्हें यह आवश्यक लगा कि ऐसे समय हर भारतीय परिस्थति को समझे।

वह निर्भय रहे। स्वतंत्र भारत सबके साथ न्याय करे। धुलेकर उत्तर प्रदेश में झांसी से थे। लक्ष्य संबंधी प्रस्ताव के इस चरण में प्रो. एनजी रंगा, केके सेन, जगत नारायण लाल, अलगू राय शास्त्री और विश्वनाथ दास के भी भाषण हुए। हर व्यक्ति के भाषण में स्वाधीनता संग्राम के सिद्धांत की जहां व्याख्या थी वहीं सुझाव थे कि नई परिस्थिति में भारत की प्राथमिकता क्या होनी चाहिए? हर वक्ता ने भाषण में जल्दबाजी नहीं की। लोकतांत्रिक प्रक्रिया को अपनाया, लेकिन उनके भाषण में समुदाय, वर्ग विशेष, जाति की जरूरतों को चिन्हित करने के प्रयास है। इस कड़ी में एस एच प्रेटर का नाम लिया जा सकता है। वे मद्रास से थे। जो आज चेन्नई है। प्रेटर ईसाई समुदाय का प्रतिनिधित्व करते थे। जैसे ही उन्होंने कहा कि ‘मेरे संप्रदाय के एक प्रतिनिधि ने लक्ष्य संबंधी प्रस्ताव पर विचार स्थगित करने का समर्थन किया था अब ऐसी बात करना अनुचित होगा तो सदन में वाह-वाह की आवाज उठी। उन्होंने उसके बाद यह जोड़ा और जोर देकर कहा कि प्रस्ताव को तुरंत स्वीकार कर लेना चाहिए।

संविधान सभा के इतिहास में 21 जनवरी, 1947 का दिन विशेष है। उसी दिन डॉ. मुकुंद रामराव जयकर ने अपना संशोधन वापस लिया। उससे पहले वे बोले कि मेरे संशोधन प्रस्ताव का उद्देश्य यह था कि मुस्लिम लीग व रियासतों के प्रतिनिधि संविधान सभा की कार्यवाही में सुगमता से शामिल हो सके। इसलिए संविधान सभा की कार्यवाही को स्थगित रखने का प्रस्ताव मैंने प्रस्तुत किया था। संविधान सभा ने 20 जनवरी तक अपनी कार्यवाही स्थगित की। फिर भी मुस्लिम लीग नहीं आई। इसलिए उन्होंने अपना यह इरादा जताया कि वे संशोधन वापस लेना चाहते हैं। उनके शब्द थे- ‘मैं अपने संशोधन को और आगे नहीं बढ़ाना चाहता।’ यह कहने के बाद वे कुछ और बोलना चाहते थे। तब संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने उनसे पूछा कि क्या वे कोई नया प्रस्ताव ला रहे हैं? इसका वे उत्तर देते इससे पहले ही पंडित गोविंद वल्लभ पंत सहित अनेक सदस्यों ने उनके बोलने पर आपत्ति की। जो लोग आपत्ति कर रहे थे उनका तर्क था कि जयकर ने अपना संशोधन वापस ले लिया है। इसलिए वे कोई नया प्रस्ताव नहीं ला सकते। अध्यक्ष ने भी उन्हें अनुमति नहीं दी। इस तरह डॉ. जयकर का संशोधन सदन की अनुमति से वापस हो गया।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Name *