एक रहस्य जो उजागर हुआ

लक्ष्य संबंधी प्रस्ताव पर संविधान सभा ने डा. भीमराव अंबेडकर का भाषण दत्तचित्त होकर सुना। इसकी पुष्टि अध्यक्ष डा. राजेंद्र प्रसाद की एक टिप्पणी से होती है। जो संविधान सभा की कार्यवाही में दर्ज है। इससे यह समझ सकते हैं कि पूरी सभा डा. अंबेडकर के एक-एक शब्द को बड़ी आतुरता से सुन रही थी। ऐसी उत्कंठा का एक ही कारण हो सकता है। वे उस समय मुस्लिम लीग के समर्थन से संविधान सभा में पहुंच सके थे। इसके बावजूद कि मुस्लिम लीग ने संविधान सभा का बहिष्कार कर रखा था वे पहले दिन से ही उपस्थित थे।

अध्यक्ष ने उन्हें पूरा समय दिया। एक बार भी टोका नहीं। उनके बाद सिख समुदाय के प्रतिनिधि के रूप में सरदार उज्जवल सिंह को बोलने के लिए पुकारा। वे प्रस्ताव के समर्थन में बोले। यह कहा कि इस प्रस्ताव से देश के करोड़ों दलित और वे लोग जिनकी आवाज सुनी नहीं जा रही थी उनमें आशा का संचार होगा। उन्हें केबिनेट मिशन की योजना में एक कमी दिखी। वह यह कि उसमें सिखों के संरक्षण की कोई व्यवस्था नहीं की गई है। इससे सिखों में जो असंतोष और क्षोभ था उसे उन्होंने प्रकट किया। इस बात पर संतोश जताया कि सरदार पटेल ने सिखों का ख्याल रखा और कांग्रेस के मंच पर सिख हितों की वकालत की।

अगले वक्ता सेठ गोविंद दास थे। वे उन लोगों में से एक थे जो हिन्दी में बोले। उनका वाक्य है-‘मैं राष्ट्र भाषा में ही बोलना पसंद करूंगा।’ सबसे पहले उन्होंने डा. अंबेडकर को ‘उनकी सुंदर वक्तृता के लिए’ बाधाई दी। लेकिन अपने पुराने मित्र मुकुंद राव जयकर की दलीलों पर आश्चर्य जताया। सेठ गोविंद दास और मुकुंद राव जयकर स्वराज्य पार्टी के दिनों से ही साथी थे। वह पार्टी 1922 में बनी थी। इसलिए बनी थी कि छोटी-बड़ी काउंसिल में कांग्रेस के नेता जा सके।

महात्मा गांधी ने कांग्रेस पार्टी को काउंसिलों में न जाने के लिए मना लिया था। इतना पुराना संबंध होने के कारण ही डा. जयकर का जवाब सेठ गोविंद दास ही दे सकते थे। उन्होंने पूछा कि क्या लक्ष्य संबंधी प्रस्ताव पर विचार स्थगित कर देने से मुस्लिम लीग संविधान सभा में आ जाएगी? इसके उत्तर में वे स्वयं बोले कि ‘पंडित जवाहरलाल नेहरू पहले व्यक्ति होते जो यह कहते कि यदि हमारे मुसलमान भाई यहां आने को तैयार हैं तो इस प्रस्ताव पर विचार स्थगित रखा जाए।’

प्रारंभिक भाषणों के बाद संविधान सभा में वह राजनीति शुरू हो गई जिसे आज भी दलीय चरित्र में देखा जा सकता है। वह वर्गीय हितों के प्रतिनिधित्व पर दावेदारी की राजनीति है। संविधान सभा के अध्यक्ष डा. राजेंद्र प्रसाद ने इसे ही ध्यान में रखकर वक्ताओं का क्रम बनाया। उन्होंने जे.जे.एम. निकोल्स राय का नाम पुकारा। वे असम से सदस्य थे। तब मेधालय के अंचल का वे प्रतिनिधित्व कर रहे थे।

पंडित जवाहरलाल नेहरू के लक्ष्य संबंधी प्रस्ताव का समर्थन तो उन्होंने किया ही। इसके अलावा सरदार पटेल के इस कथन पर अपनी प्रसन्नता प्रकट की कि कांग्रेस ने ब्रिटिश सम्राट की उस व्याख्या को स्वीकार नहीं किया है जिसका संबंध केबिनेट मिशन की घोशणा से है। उन्हीं दिनों ब्रिटेन की संसद के दोनों सदनों में केबिनेट मिशन की घोषणा पर बहस भी हो रही थी। जहां संविधान सभा को ‘हिन्दुओं की सभा’ बताया जा रहा था। निकोल्स राय ने ऐसे भाषणों पर आश्चर्य प्रकट किया। उनका बोला हुआ यह अंश स्थाई महत्व का है। ‘उन (ब्रिटेन और अमेरिका) देशों में कुछ लोगों का यह विचार था कि हिन्दु वर्ण व्यवस्था से जकड़ा हुआ है। यह बिल्कुल गलत है।’ लेकिन ‘अगर हिन्दु शब्द से आशय हिन्दुस्तान के लोगों से है तो यह संविधान सभा हिन्दुस्तान का प्रतिनिधित्व करती है।’

संविधान सभा में लक्ष्य संबंधी प्रस्ताव पर बहस का वह छठा दिन था। तारीख थी, 18 दिसंबर, 1946। वक्ताओं में आर.के. सिधवा भी एक थे। वे पारसी समुदाय से थे। उन्होंने संविधान सभा के माध्यम से पूरी दुनिया को बताया कि भारत में पारसी इरान से आए। वहां से उन्हें निकाला गया। भारत ने शरण दी।

पारसी उसके लिए कृतज्ञ रहे। अपनी पहचान बनाए रखकर देश की उन्नति और आजादी की लड़ाई में कंधे से कंधे मिलाकर चलने का स्वभाव बनाया। जिन लोगों ने कांग्रेस की नींव डाली उनमें दादा भाई नौरोजी भी थे। वही थे जिन्होंने 1906 में कांग्रेस अध्यक्ष पद से बोलते हुए ‘स्वराज’ (सेल्फ गवर्नमेंट) शब्द को खोजा। उसे कांग्रेस के ध्येय से जोड़ा।

आर.के. सिधवा का भाषण इस कारण भी अत्यंत महत्वपूर्ण बना रहेगा क्योंकि उन्होंने अंग्रेजों की कुटिल चाल का पर्दाफास किया। अंग्रेज भारत के लोगों को पंथ, भाषा, क्षेत्र और अन्य ऐसे ही पहचानों में बाटने के लिए अवसर ढूढ़ते रहते थे। पारसी समुदाय को भी वे मुख्य धारा से काटने के इरादे से ललचाते रहते थे। एक चारा जो उस समय अंग्रेज डालते थे वह अलग निर्वाचन समूह का था। पारसियों ने उनकी चाल समझी और इंकार कर दिया। वे ‘जनरल केटेगरी’ (साधारण निर्वाचन समूह) में अपना हित सुरक्षित समझते थे। उन्होंने इस सवाल को भी उठाया कि मुस्लिम लीग संविधान सभा में क्यों नहीं शामिल हो रही है? इसका जवाब उनके भाषण में है। ‘वे चाहते हैं कि अंग्रेज यह कहें कि भारत का संविधान बन भी गया तो लागू नहीं होगा।’ इसे उन्होंने असंभव बताया। उनका स्वर संविधान सभा की भावना को प्रकट कर रहा था।

उस दिन तीन महत्वपूर्ण व्यक्तियों के भाषण हुए, विश्वनाथ दास, पंडित हृदयनाथ कुंजरू और एन. गोपालस्वामी आयंगर। विश्वनाथ दास ने आर.के. सिधवा के रूख को सराहा। उनके भाषण को पढ़ते हुए अनुभव होता है कि संविधान सभा पर लंदन में हो रही बहस का बड़ा प्रभाव पड़ा था। इसीलिए विश्वनाथ दास को भी यह कहना पड़ा कि ‘इस महान संविधान सभा में केवल बहुसंख्यक हिन्दुओं के ही प्रतिनिधि नहीं हैं, बल्कि वहां से भी हिन्दु प्रतिनिधि हैं, जो ऐसे प्रांतों में रहते हैं जहां मुसलमानों का बहुमत है। यहां जनजातियों, ईसाइयों, सिखों, पारसियों, ऐंग्लो-इंडियनों और कबाइली और अंषतः पृथक क्षेत्रों के भी प्रतिनिधि हैं। हमारे बीच में महान मुस्लिम जाति के भी प्रतिनिधि हैं, सिवाय इसके कि यहां मुस्लिम लीग के नेता नहीं हैं। इस दशा में यह बहुत ही अनुचित है और बड़े दुर्भाग्य की बात है कि इस संविधान सभा को सवर्ण हिन्दुओं की सभा कही जाए।’

पंडित हृदयनाथ कुंजरू ने डा. जयकर के प्रस्ताव पर दूसरे नेताओं से भिन्न दृष्टिकोण अपनाया। उन्होंने कहा कि डा. जयकर का ‘उद्देश्य इस सभा के काम में बाधा डालना नहीं है, बल्कि उसमें सहूलियत पैदा करना है। ऐसा वातावरण बनाना है जिससे हम अपने उस लक्ष्य को समझ सकें और पा सकें।’ उन्होंने यह कह कर संविधान सभा में सनसनी पैदा कर दी कि ‘इस सभा के हर भाग में ऐसे लोग हैं जिन्हें डा. जयकर के संशोधन से सहानुभूति है।’ पंडित कुंजरू के लंबे भाषण का यह शुरूआती अंश है। इससे संविधान सभा का वातावरण बदला।

नेतृत्व की मानसिकता में परिवर्तन आया। उनके भाषण से एक रहस्य भी सामने आता है। ऐसा लगता है कि मुस्लिम लीग को ढाल बनाकर अंग्रेज सरकार चाहती थी कि संविधान सभा का गठन न हो। उसे बुलाया न जाए। इसे कांग्रेस के नेताओं ने भांप लिया था। इसीलिए संविधान सभा को बुलाने की योजना बनाई। 9 दिसंबर को संविधान सभा का उद्घाटन हो गया। पंडित हृदयनाथ कुंजरू ने कहा कि संविधान सभा को बुलाकर ‘हमने एक मंजिल तय कर ली है। अगर संविधान सभा का उद्घाटन न होता तो उसका भविष्य अधिकारियों की स्वेच्छा पर निर्भर रहता। अब वह वायसराय या ब्रिटिश सरकार की स्वेच्छा पर निर्भर नहीं है। अब इस सभा पर ही सब कुछ निर्भर है।

एन. गोपालस्वामी आयंगर मद्रास (चैनई) से थे। वे चाहते थे कि लक्ष्य संबंधी प्रस्ताव पर बहस जल्दी पूरी कर ली जाए। इसलिए वे डा. जयकर और पंडित कुंजरू के विचार से न केवल असहमत थे बल्कि यह भी मानते थे कि उनमें ‘कल्पना का अभाव है।’ उन्होंने अपने भाषण का फोकस रियासतों संबंधी समस्या पर ही रखा। उस समय तक रियासतों के प्रतिनिधि नहीं आए थे। इसका कारण यह था कि केबिनेट मिशन ने जो कार्यक्रम बनाया था उसमें रियासतों के प्रतिनिधि तभी आ सकते थे जब संविधान सभा का आखिरी चरण प्रारंभ हो। इसलिए गोपालस्वामी आयंगर का तर्क था कि संविधान सभा को मुस्लिम लीग और रियासतों के प्रतिनिधियों का इंतजार किए वगैर काम शुरू कर देना चाहिए।

लक्ष्य संबंधी प्रस्ताव तो संविधान सभा के उद्देश्य पर था। इसका उल्लेख कर उन्होंने कहा कि लक्ष्य की स्पष्टता आवश्यक है। उससे ही कार्य की दिशा निर्धारित होती है। रियासतों का प्रश्न उस समय बहुत उलझा हुआ था। इसके दो उदाहरण देकर उन्होंने सवाल पूछा कि ‘देशी रियासतों में सर्वाभौम सत्ता कहां स्थित है?’ उन्होंने कहा कि ‘इस संबंध में दो विचारधाराएं एक समान हैं। राजा में सार्वभौम सत्ता होती है।’ केबिनेट मिशन ने यह कहा था कि अंग्रेजी सत्ता के हटने पर रियासतें स्वतंत्र हो जाएंगी। इसका सरल भाष्य करते हुए एन. गोपालस्वामी आयंगर ने कहा कि तब सत्ता रियासतों के लोगों को सौंप दी जाएगी। इसी का निर्धारण जब तक नहीं हुआ तब तक रियासतों का प्रश्न उलझा रहा।

लक्ष्य संबंधी प्रस्ताव के साथ-साथ संविधान सभा की नियम समिति भी काम कर रही थी। तब यह विवाद बना हुआ था कि क्या संविधान सभा शनिवार और रविवार को भी बैठेगी? जिससे काम पूरा किया जा सके। इस पर अलग-अलग मत था। सदस्य अपनी-अपनी बात कह रहे थे। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने हस्तक्षेप किया। वे बोले-‘मैं आप लोगों की सूचना के लिए यह बताना चाहता हूं कि यूनाइटेड नेशन्स जनरल एसेंबली की कमेटियों और जनरल एसेंबली दोनों कार्य को शीघ्र पूरा करने के लिए रविवार को भी बैठी।’

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