चीन को भारत से शत्रुता क्यों है

बनवारी

पिछले 70 वर्ष से चीन हमें सामरिक रूप से घेरने की कोशिश कर रहा है। पर हमने कभी गंभीरता से यह समझने की कोशिश नहीं की कि वह ऐसा क्यों कर रहा है। चीन के साम्यवादी नेता शुरू से भारत के प्रति वैमनस्य और तिरस्कार से भरे रहे हैं। उन्होंने महात्मा गांधी के नेतृत्व में लड़े गए राष्ट्रीय आंदोलन का मजाक उड़ाया था। महात्मा गांधी की अहिंसा के बारे में माओत्से तुंग को विशेष रूप से चिढ़ थी। माओ का सशस्त्र क्रांति में विश्वास था और उसे लगता था कि अहिंसा भारत के लोगों की कमजोरी की निशानी है।

भारत के राष्ट्रीय नेताओं में चीन के कम्युनिस्ट नेताओं को लेकर अनेक आशंकाएं थीं। अनेक राष्ट्रीय नेताओं ने यह स्पष्ट चेतावनी दी थी कि कम्युनिस्ट चीन की सत्ता में पहुंचे तो वे भारत के लिए गंभीर चुनौती होंगे। राजनीति से बाहर श्री अरविंद ने भी यही चेतावनी दी थी।

पर देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू अपने वामपंथी रूझान के कारण चीन के प्रति मोहग्रस्त बने रहे। उन्होंने भारत के प्रति चीन की आक्रामकता को निरंतर नजरअंदाज किया। उनके हिन्दी-चीनी भाई-भाई नारे की कोई अनुगूज चीन में सुनाई नहीं दे रही थी। उसके बाद भी वे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर चीन की वकालत करते रहे। सुरक्षा परिषद में चीन का प्रतिनिधित्व कम्युनिस्ट चीन को सदस्य बनाने की वकालत करने वाले नेताओं में वे सबसे आगे थे। जवाहर लाल नेहरू ने अपने शासनकाल में सारे सत्ता प्रतिष्ठान को वामपंथी लोगों से भर दिया था। इसलिए उस समय हम चीन के बारे में कोई सही राय बनाने से चूक गए। 1962 में चीन के हाथों मिली पराजय हमें उसके बारे में पाले गए भ्रमों से बाहर निकाल सकती थी। लेकिन नेहरू के बाद भी सत्ता प्रतिष्ठान में वामपंथियों का वर्चस्व बना रहा। उनके कारण चीन के प्रति हम अपनी कोई स्वतंत्र धारणा नहीं बना सके।

आज भी हम चीन के बारे में अपनी कोई स्वतंत्र धारणा नहीं बना पाए हैं। हमारा बौद्धिक वर्ग चीन के बारे में पश्चिमी देशों की धारणाओं से प्रभावित होता रहा है। बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध तक अमेरिका भारत और चीन दोनों को समान दृष्टि से देख रहा था। वह मानता था कि दोनों ही प्राचीन सभ्यताएं हैं और विश्व के शक्ति संतुलन में दोनों की भूमिका महत्वपूर्ण होगी। दूसरे महायुद्ध में मित्र शक्तियों का सहयोगी होने के कारण चीन को सुरक्षा परिषद में जगह दे दी गई थी। अमेरिकी भारत को भी जल्दी स्वतंत्र करने के लिए ब्रिटेन पर दबाव डाल रहे थे। उन्हें लगता था कि स्वतंत्र होकर भारत विश्व के शक्ति संतुलन में सहायक हो सकेगा। लेकिन स्वतंत्र होने के बाद भारत ने जिस तरह व्यवहार किया, उससे पश्चिमी शक्तियों को काफी निराशा हुई और उनकी दृष्टि में चीन का महत्व बढ़ता गया।

उन्हें भारत से पहली बार निराशा तब हुई, जब भारत ने रणनीतिक नासमझी दिखाते हुए कम्युनिस्ट चीन को सिक्यांग और तिब्बत पर अधिकार करने दिया। यह दोनों क्षेत्र राजनैतिक और सांस्कृतिक रूप से भारत के अधिक निकट रहे थे। उस समय भारत इस स्थिति में था कि वह चीन को ऐसा करने से रोक सकता था। लेकिन भारत ने बड़ी आसानी से इन दोनों क्षेत्रों पर चीन का अधिकार स्वीकार कर लिया। इससे अमेरिका समेत पश्चिमी शक्तियों की भारत के बारे में धारणाएं बदल गईं। उन्हें भारत से दूसरी बार तब निराशा हुई, जब भारत ने एक स्वतंत्र शक्ति के रूप में अपनी विदेश नीति बनाने के बजाय गुटनिरपेक्ष आंदोलन खड़ा करने की कोशिश की। इससे स्पष्ट हो गया कि भारत ने न विश्व की परिस्थितियों को ठीक समझा है और न उसमें एक स्वतंत्र महाशक्ति के रूप में उभरने की आकांक्षा है। उसके बाद से पश्चिमी राजनैतिक और बौद्धिक जगत चीन को एशिया की अग्रणी शक्ति के रूप में देखता और प्रचारित करता रहा है। हम उसके इस प्रचार से प्रभावित रहे हैं और हमने चीन का स्वतंत्र आकलन करने की कभी कोशिश नहीं की।

चीन के स्वतंत्र आकलन के लिए हमें उसके इतिहास पर एक सरसरी निगाह डाल लेनी चाहिए। पिछली एक शताब्दी में यूरोप-अमेरिकी विद्वानों ने विश्व का जो इतिहास लिखा है, उससे भारत और चीन के बारे में अनेक भ्रामक धारणाएं बन गई हैं। एक भ्रामक धारणा यह है कि भारत लगभग 15वीं शताब्दी तक तो दुनिया की सबसे समृद्ध अर्थव्यवस्था था, लेकिन उसके पराधीन हो जाने के बाद चीन भारत से आगे निकल गया। चीन ने अपना इतिहास जिस तरह लिखवाया है, उससे यह बात छिप जाती है कि वह हमसे भी पहले दसवीं शताब्दी के शुरू में ही पराधीन हो गया था। चीन का मुख्य उत्तरी भाग तुर्क और मांचू राजवंशों के हाथ में चला गया था। 1270 में कुबलई खान के नेतृत्व में मंगोल चीन पर चढ़ आए। मंगोल 1368 तक चीन पर दमन पूर्वक शासन करते रहे। 1368 से 1644 तक चीन पर अपने मिंग राजवंश का शासन रहा। लेकिन उसके बाद चीन उत्तर पूर्व से आए मांचू राजवंशों की पराधीनता में चला गया और 1912 में ही उनकी पराधीनता से स्वतंत्र हुआ।

मांचू शासन के अंतिम 70 वर्ष चीन के लिए काफी ग्लानि के वर्ष रहे थे। इस अवधि में चीन के मांचू शासकों को तीन बार यूरोपीय सेनाओं से पराजित होकर उनके साथ अत्यंत लज्जाजनक संधियां करनी पड़ी थीं। चीन के समुद्री तटों पर 19वीं शताब्दी के आरंभ में ही यूरोपीय देशों के सशस्त्र व्यापारिक जहाज पहुंचने लगे थे। वे चीन से व्यापार करने के अधिकार चाहते थे। यूरोप की व्यापारिक कंपनियों के पास चीन को बेचने के लिए कुछ खास नहीं था। वे चीन को हथियार, शराब और अफीम बेचने की कोशिश कर रहे थे। चीन के आम लोगों के साथ-साथ शासक वर्ग भी अफीम की लत का शिकार होता चला जा रहा था। इसलिए चीन उन्हें इन वस्तुओं के व्यापार की अनुमति देने के लिए तैयार नहीं था। इसी कारण पहले 1842 में और फिर 1860 में चीन के यूरोपीय फौजों के साथ दो युद्ध हुए, जिन्हें अफीम युद्ध कहा जाता है। दोनों बार चीन हारा और अपमानजनक शर्तें मानने के लिए बाध्य हुआ।

चीन की इस पराजय से ईसाई मिशनरियों को चीन में घुसने की छूट मिल गई थी। उस समय चीनी समाज जिस दुर्दशा में था, उसके कारण चीनी शहरों की लगभग आधी आबादी ईसाई प्रभाव में चली गई थी। अनेक ग्रामीण इलाकों में भी ईसाई मिशनरियों ने अपनी पैठ बना ली थी। 1850 से 1864 के बीच चीन में ताइपेई विद्रोह फूट पड़ा था। उसका नेतृत्व जिस व्यक्ति के हाथ में था, वह अपने आपको ईसा मसीह का पूर्व काल का चचेरा भाई घोषित कर रहा था। मांचू शासकों को यह विद्रोह दबाने में यूरोपीय सेनाओं की मदद लेनी पड़ी थी। इस विद्रोह के समय युद्ध और भुखमरी के कारण चीन के लगभग एक से तीन करोड़ लोग मारे गए थे। इस युद्ध में दोनों तरफ से लगभग एक करोड़ योद्धा शामिल हुए थे। 1894 में जापान ने चीन पर हमला करके उसके कुछ हिस्सों को अपने कब्जे में ले लिया। निरंतर मिली इन अपमानजनक पराजयों से एक बार फिर चीन में विद्रोह फूट पड़ा। इसे बॉक्सर युद्ध के नाम से जाना जाता है।

यह विद्रोह ईसाइयों और विदेशी शक्तियों के खिलाफ था। आरंभिक हिचकिचाहट के बाद मांचू शासक भी उनके समर्थन में लड़ाई में शामिल हो गए थे। लेकिन यूरोपीय सेनाओं ने अंततः चीनी सेनाओं को पराजित करके इस विद्रोह को दबा दिया। इस विद्रोह के दौरान 32 हजार चीनी ईसाई और 200 यूरोपीय ईसाई मिशनरी मार डाले गए थे। 1899 से 1901 तक चले इस युद्ध में लगभग एक लाख लोग मारे गए थे। इस युद्ध ने चीनी शासकों को काफी कमजोर कर दिया था। उसके बाद मांचू शासन से चीन की आजादी का संघर्ष शुरू हुआ। 1912 में राजतंत्र समाप्त करके चीन को गणराज्य घोषित कर दिया गया। 1927 में चीन में राष्ट्रवादी और कम्युनिस्ट शक्तियों के बीच गृह युद्ध शुरू हो गया। 1937 में जापान ने दूसरी बार चीन पर आक्रमण किया और उसके काफी बड़े क्षेत्र पर अपना अधिकार जमा लिया। अगर दूसरे महायुद्ध में अमेरिका द्वारा हिरोशिमा और नागासाकी पर नाभिकीय बम गिराए जाने के बाद जापान ने पराजय न स्वीकार कर ली होती तो चीन का जापान के नियंत्रण से मुक्त होना आसान नहीं था। उसके बाद फिर गृह युद्ध शुरू हुआ। सोवियत संघ आरंभ में चीन की राष्ट्रवादी शक्तियों की मदद कर रहा था। बाद में उसने कम्युनिस्टों की मदद करके उन्हें विजय दिलवा दी। इस तरह कम्युनिस्टों को सत्ता में पहुंचाने का काफी श्रेय सोवियत संघ को है।

भारत के प्रति चीन के शत्रु भाव को समझने के लिए चीन के इस इतिहास को याद रखना आवश्यक है। 1842 से 1949 तक चीन पांच बार विदेशी शक्तियों से बुरी तरह पराजित हुआ था। तीन बार यूरोपीय शक्तियों से और दो बार जापान से। बीसवीं सदी के आरंभ में चीन के बौद्धिक जगत में और विश्व विद्यालय में शिक्षा पा रहे युवा लोगों में इन पराजयों की काफी ग्लानि थी। परंपरागत चीन ने भारत की शास्त्रीय परंपरा से काफी कुछ ग्रहण किया था। राज धर्म और सामाजिक जीवन के नैतिक  आदर्शों के लिए चीन में कन्फ्यूशियस की सर्वमान्यता थी। इन पराजयों से उपजी ग्लानि ने चीनियों में अपनी इन सब परंपरागत मान्यताओं के बारे में अनास्था पैदा की। उस समय चीन में एक वर्ग जापान के मेजी काल में हुए परिवर्तनों का अनुकरण करना चाहता था। दूसरा और बड़ा वर्ग यूरोप का अनुकरण करना चाहता था। इस तरह बीसवीं सदी चीन के मानसिक विस्थापन की सदी बन गई। इसमें वह अपनी सभ्यता को छोड़कर यूरोपीय सभ्यता की ओर मुड़ गया। बौद्धिक वर्ग के बीच पैदा हुई हीनता की भावना उसे आत्मनिषेध की ओर ले गई। माक्र्सवादी विचारों ने इस आत्मनिषेध को पुष्ट किया। सत्ता में पहुंचते ही कम्युनिस्टों ने चीन की पुरानी सभ्यतागत मान्यताओं को सामंती घोषित करके उन्हें त्याग देने का नारा लगाया। इस आत्मनिषेध की प्रक्रिया में ही चीन ने भारत को हेय दृष्टि से देखना शुरू किया।

चीन की सत्ता में पहुंचते समय माओत्से तुंग के सामने सोवियत संघ का आदर्श था। माओ की महत्वाकांक्षा चीन को सोवियत रूस जैसे साम्राज्य में बदलने की थी। इस दिशा में पहला कदम उठाते हुए उसने मंचूरिया, आंतरिक मंगोलिया, सिक्यांग और तिब्बत पर कब्जा कर लिया। सोवियत रूस ने उसके इस विस्तार पर अधिक आपत्ति नहीं की। उस समय सोवियत संघ की निगाह में चीन की अधिक अहमियत नहीं थी। सोवियत संघ की अपनी एकमात्र विदेश यात्रा के समय माओ को सोवियत नेताओं से मिलने के लिए एक मामूली अतिथि गृह में छह दिन तक इंतजार करना पड़ा था। सोवियत संघ के नेता चीनी नेताओं को जिस हेय दृष्टि से देखते थे, उसके कारण ही चीनी नेताओं में सोवियत संघ से खिंचाव पैदा हुआ था। स्टालिन की मृत्यु के बाद माओ ने इसे एक सैद्धांतिक लड़ाई का रूप दे दिया।

माओ ने अपने आपको अधिक क्रांतिकारी दिखाते हुए दुनिया की कम्युनिस्ट बिरादरी का नेतृत्व सोवियत रूस से छीनने की कोशिश की थी। लेकिन उसे कोई सफलता नहीं मिली। उसके पड़ोसी उत्तर कोरिया और वियतनाम भी चीन के बजाय रूस के अधिक निकट रहे हैं। 1969 में रूस के एक शह पर दावा करते हुए चीन ने उस पर कब्जा करने की कोशिश की थी। इस पर खु्रश्चेव इतने कुपित हुए थे कि वे पेइचिंग पर नाभिकीय बम गिराकर माओ का खेल खत्म करने पर उतारू हो गए थे। सोवियत रूस की धमकी से डरकर माओ समेत सभी चीनी नेता बंकरों में जा छिपे थे। उन्हें सोवियत रूस के कोप से अमेरिका ने बचाया था। अमेरिका सोवियत खेमे से चीन को अलग करके माक्र्सवादियों की शक्ति कम करना चाहता था। उसके बाद चीन अमेरिका बनने के सपने देखने लगा। चीन में कम्युनिस्ट शासन बना रहा, लेकिन उसकी अर्थव्यवस्था पूंजीवादी होती चली गई।

पिछले चार दशक में चीन ने जो प्रगति की है, वह अमेरिका के सहयोग के कारण ही की है। अमेरिका 1970 तक अपनी समृद्धि के शिखर पर पहुंच चुका था। उसे अपने कल-कारखाने दो कारणों से अखरने लगे थे। एक तो वे प्रदूषण फैला रहे थे, दूसरे मजदूर यूनियनें कंपनियों के मुनाफों में अधिक हिस्सेदारी चाहती थीं। अमेरिका ने इन कल-कारखानों को चीन स्थानांतरित करने का फैसला किया। चीन बड़ी आसानी से अमेरिकी समाज के लिए स्लेव लेबर उपलब्ध करने को राजी हो गया। आज चीन में डेढ़ लाख विदेशी कंपनियां फैक्टरियां खोले बैठी हैं। उनकी शाखाओं आदि को जोड़ दें तो लगभग छह लाख विदेशी साझेदारी वाली कंपनियां चीन में पंजीकृत हैं। इन कंपनियों के माध्यम से पिछले वित्तीय वर्ष में ही चीन में  डेढ़ सौ अरब डॉलर का निवेश हुआ था। यूरोप-अमेरिकी पूंजी और प्रौद्योगिकी के बल पर चीन दुनिया की दूसरी आर्थिक शक्ति हो गए होने का दावा कर रहा है। लेकिन चीन यूरोप-अमेरिकी बाजार के लिए सस्ता और कम गुणवत्ता वाला सामान ही पैदा कर रहा है। इस सस्ते सामान के आधार पर यूरोप-अमेरिका कल तक चीन को विश्व अर्थव्यवस्था का इंजन घोषित कर रहे थे। इसके बदले वे चीन को एशिया की अग्रणी शक्ति मानने के लिए तैयार थे। लेकिन शी के चीन का राष्ट्रपति बनने के बाद चीन में माओकालीन स्वप्नजीविता फिर पैदा हुई और शी ने 2049 तक चीन को अमेरिका के बराबर पहुंचा देने का लक्ष्य घोषित कर दिया।

अमेरिका तीन दशक पहले जब चीन को पूंजीवाद का पाठ पढ़ा रहा था तब उसने भारत के नेताओं को भी पश्चिम की पूंजी और प्रौद्योगिकी के आधार पर अपनी आर्थिक प्रगति की रफ्तार बढ़ाने का न्योता दिया था। उस समय के प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने साइंस कांग्रेस में भाषण देते हुए कहा था कि विकसित देश प्रौद्योगिकी में हमसे इतने आगे निकल गए हैं कि हम उनसे होड़ नहीं कर सकते। हमें उनकी प्रौद्योगिकी का प्रयोग करने की कुशलता सीख लेनी चाहिए। लेकिन राजीव गांधी भारत को इस रास्ते पर नहीं मोड़ सके, क्योंकि उस रास्ते पर जाने का अर्थ होता भारतीय अर्थव्यवस्था को यूरोप-अमेरिकी अर्थव्यवस्था से नत्थी करना और अपनी अर्थव्यवस्था को विश्व व्यापार पर निर्भर बना देना। चीन इसके लिए तैयार हो गया ाा और आज चीन अमेरिकी समृद्धि का सपना देख रहा है। पर अपनी उतावली और बेवकूफी में उसने यह घोषित करना शुरू कर दिया कि वह जल्दी ही अमेरिका की जगह लेने वाला है और उसके बाद वह विश्व की मुख्य शक्ति हो जाएगा।

उसकी इस महत्वाकांक्षा ने उसे पश्चिमी देशों की दृष्टि में अविश्वसनीय बना दिया है। इसलिए वे अपनी पूंजी और प्रौद्योगिकी को चीन से हटाने में लग गए हैं। इसका कारण यह नहीं है कि पश्चिमी देशों में चीन को लेकर कोई डर पैदा हो गया है। उसका कारण सिर्फ यह है कि वे अब चीन को भरोसे लायक नहीं मानते। पश्चिम में कम ही लोग चीन की समृद्धि के दावे पर विश्वास करते हैं। चीन के कई प्रांत स्वयं कह चुके हैं कि उनके जीडीपी के आंकड़े बीस प्रतिशत बढ़ाकर दिखाए गए। पश्चिम के अनेक प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री मानते हैं कि चीन अपना जीडीपी 20-50 प्रतिशत तक बढ़ाकर दिखा रहा हो सकता है। पश्चिमी कंपनियों को चीन से अपना कारोबार समेटने में चार से पांच साल लग सकते हैं, उसके बाद चीन की अर्थव्यवस्था की क्या दशा होगी, कहना कठिन है। सामरिक प्रौद्योगिकी के मामले में चीन अमेरिका की छाया भी नहीं है। इलेक्ट्रॉनिक्स और आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के क्षेत्र में वह आगे निकले होने का दावा करता है पर प्रौद्योगिकी के नाते इन क्षेत्रों का अधिक महत्व नहीं है। चीन उनका उपयोग अपनी जनसंख्या पर नियंत्रण बढ़ाने के लिए ही कर रहा है।

भारत के वामपंथी बुद्धिजीवियों का मानना है कि चीन अमेरिकी साम्राज्य को चुनौती दे रहा है, इसलिए भारत को उससे नहीं उलझना चाहिए। यह ऐसा विचित्र तर्क है जिसे कोई मतांध व्यक्ति ही दे सकता है। चीन न अमेरिका को सामरिक चुनौती देने में सक्षम है, न वह उसे चुनौती दे रहा है। ताइवान अमेरिका के बल पर चीन को चुनौती देता रहता है। चीन उस पर दावा जताता रहता है। पर उसे चीन में मिलाने की उसने कभी कोशिश नहीं की। पचास वर्ष पहले चीन अमेरिका का आर्थिक बैक्यार्ड बन गया था और उसे इसमें कोई संकोच महसूस नहीं हुआ। हमें याद रखना चाहिए कि आज चीन में जो भी थोड़ी-बहुत शक्ति और समृद्धि है वह उसे अमेरिकी सहयोग से ही मिली है, अपने पुरुषार्थ से नहीं। दूसरी तरफ वह भारत को शुरू से घेरने में लगा है। उसने सत्ता में पहुंचने के कुछ दिन बाद ही भारत की भूमि को हड़पना शुरू कर दिया था। उसने 1962 में भारत पर हमला करने के बाद पाकिस्तान को सामरिक रूप से मजबूत करना शुरू कर दिया। वह पाकिस्तान को नाभिकीय शक्ति बनाने में पूरी बेशर्मी से लगा रहा है। वह भारत के सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनने की सबसे बड़ी बाधा है। वह पाकिस्तान में सक्रिय भारत विरोधी आतंकवादी संगठनों का समर्थन करता रहता है। उसने पूर्वाेत्तर राज्यों में सक्रिय अलगाववादी संगठनों को लंबे समय तक युद्ध का प्रशिक्षण दिया था। इस सबका यही मतलब है कि वह अपने उत्थान के लिए भारत का पराभव आवश्यक मानता है और अपने आपको विष्व की एक बड़ी महाशक्ति सिद्ध करने के लिए भारत से युद्ध छेड़ेगा। हम उसकी इस चुनौती के प्रति जितनी जल्दी सावधान हो जाए अच्छा है।

 

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