किसान संघ जब किसानों के माल के उचित मूल्य की मांग करता है तब राष्ट्रवादी होने के नाते उपभोक्ताओं के प्रति अपनी जिम्मेदारी को भी अनुभव करता है। ‘उपभोक्ताओं का जो कुछ भी हो, हमें हमारा पैसा मिलना चाहिए’-यह वृत्ति हमारी नहीं। हम यह जानते हैं कि किसान और उपभोक्ताओं के हितों में मूलतः विरोध नहीं, वरन् ‘फूट डालो और शासन चलाओ’ की नीति के अनुसार सरकार ही जानबूझकर इस तरह का कृत्रिम, अवास्तविक भेद निर्माण करती और इसका प्रचार करती है। किसानों के हितों की रक्षा करने की मांग करते समय उपभोक्ताओं पर कीमतों का विशेष भार न बढ़ाते हुए किसानों की मांग किस तरह पूरी हो सकती है, भारतीय किसान संघ पूरी जिम्मेदारी के साथ यह योजना सरकार के सामने रख चुका है। यह हमारा निश्चित मत है कि प्रारंभ से भारत के नियोजन ने गलत दिशा ली है और उसी के कारण ऊपर से दिखने वाला यह भेद निर्माण हुआ। इसके लिए संपूर्ण नियोजन की दिशा, आधार और आग्रह को बदलने की आवश्यकता है।
पहली बात यह कि हमारी योजनाओं में कृषि को प्राथमिकता नहीं दी गई। रूस का अनुकरण करते हुए भारी उद्योगों को प्राथमिकता दी गई। भारी उद्योगों के लिए आम जनता का शोषण पिछले 37 साल से चल रहाहै। इन उद्योगों को जो सुविधाएं मिलती हैं और उनके लिए जो धन निश्चित होता है यदि उसका आधा हिस्सा कृषि कार्य के लिए दिया जाए तो देश का चित्र बदल सकता है।
कृषि के लिए प्राथमिकता के आधार पर धन नहीं दिया जाता यह बात तो है ही, किंतु जो धन ग्रामीण विकास के लिए दिया जाता है वह भी उन गरीबों के पास नहीं पहुंचता जिनके लिए भेजा जाता है। गांवों में रहने वाले अति स्वार्थी तत्व और अफसरशाही की सांठगांठ से यह पैसा बीच में ही हड़प लिया जाता है। विकास खंड योजना, पंचायती राज्य, सहकारी आंदोलन, हरित क्रांति आदि का अनुभव यही है।
सबसे महत्वपूर्ण बात निर्धारित धनराशि के विनियोग की है। किसान संघ की मांग है कि एक तो कृषि में प्रयुक्त होने वाली सभी चीजों में भारी छूट दी जाय और दूसरी बात यह कि ब्याजमुक्त या नाममात्र ब्याज के साथ गांव वालों को ऋण प्रदान करने की व्यवस्था होनी चाहिए। इन दोनों उपायों का संयुक्त परिणाम यह होगा कि किसान का उत्पादन खर्च घटेगा और फिर उपभोक्ताओं पर ज्यादा बोझ न बढ़ाते हुए किसानों को उनके उत्पादन का उचित मूल्य देना संभवनीय होगा। यह प्रक्रिया केवल छह साल तक प्रयोग के रूप में चलानी चाहिए। इससे भारतीय अर्थनीति का दुष्टचक्र बदल जाएगा। किसान को उचित मूल्य मिलेगा तो उसकी जेब में पैसा आएगा। इसका उपयोग गांव में ही होगा और गांव में माल तैयारकरने वाले तथा अन्य छोटे उद्योग भी प्रारंभ होंगे। इनमें बेरोजगार और अर्द्ध-बेरोजगार लोगों को रोजगार मिलेगा। इसके फलस्वरूप उनकी जेब में पैसा अधिक जाएगा जिसका उपयोग गांव में ही करेंगे जिससे ग्रामीण औद्योगीकरण को बढ़ावा मिलेगा, जमीन पर बोझ कम होगा। उचित मूल्य, उसके फलस्वरूप बढ़ती हुई क्रयशक्ति आदि के फलस्वरूप गांवों से औद्योगीकरण, इसके फलस्वरूप गांवों में बढ़ती हुई संपत्ति, इसके फलस्वरूप आर्थिक औद्योगीकरण होगा। इस तरह से एक नया चक्र प्रारंभ होगा जिससे भारत के आर्थिक ढांचे को बल प्राप्त होगा। यह बात नहीं है कि इसमें भारत सरकार को भारी अर्थानुदान अर्थात् सब्सिडी आरंभ के छह साल तक देना पड़ेगा। इस तरह की आर्थिक सहायतादेना सरकार का कर्तव्य है।
पिछले37 सालतक इस तरह की सहायता सरकार ने पूंजीपतियों को दी भी है। हम तो ग्रामीण क्षेत्र में केवल छह साल के लिए इस प्रयोग की मांग कर रहे हैं। हमारी योजना के अंतर्गत उपभोक्ता पर बिल्कुल थोड़ा सुसह्य बोझ ही पड़ेगा। वास्तव में इससे कई गुना बोझ पूंजीपतियों का लाभ बढ़ाने के लिए पिछले 37 साल से सरकार उपभोक्ताओं पर डालती आ रही है, अब केवल छह साल तक प्रयोग के नाते सरकार हमारी योजना को क्रियान्वित करे। हम विश्वासपूर्वक कह सकते हैं कि इसके परिणामस्वरूप अर्थव्यवस्था का चक्र बदलेगा। यह ध्यान में रखते हुए अपने करोड़ों भाइयों को राहत पहुंचाने के लिए तथा देश की अर्थव्यवस्था मजबूत बनाने के लिए थोड़ा-सा बोझ छह साल तक बर्दाश्त करना उन उपभोक्ताओं के लिए कठिन नहीं है जिनको मुट्ठी भर पूंजीपतियों का लाभ बढ़ाने के लिए पिछले 37 साल से कीमतों का अखंड बढ़ते जाने वाला असह्य बोझ बर्दाश्त करना पड़ रहा है।
कल्याणकारी राज्य के अंतर्गत सरकार का यह कर्तव्य हो जाता है कि जनता के सहयोग के आधार पर बहु ग्रामीण ढांचा सर्वत्र निर्माण करे। इस कार्य के लिए जनता में स्वयं प्रेरणा का निर्माण करना सरकार का ही कर्तव्य है। इन सब बातों को अब तक आंखों से ओझल किया गया है। अपना यह कर्तव्य सरकार निभाती है तो उसके फलस्वरूप किसान के उत्पादन खर्चे में पर्याप्त कमी होगी।
ग्रामीण औद्योगीकरण के विषय में सरकारी प्रवक्ताओं के द्वारा अब तक जो कुछ कहा गया है उसको क्रियान्वित करने से जमीन का बोझ भी कम होगा और किसान को भी राहत मिलेगी।
देश की आयात-निर्यात नीतियां विदेशी आर्थिक हितों के लिए अनुकूल तथा किसानों के लिए प्रतिकूल रहती हैं। इनमें किसानों के अनुकूल उचित और व्यावहारिक परिवर्तन करने से भी इस संबंध में बड़ी सहायता मिलेगी।
मतलब यह कि यदि एक बार यह तय हुआ कि किसानों को उनके उत्पादन का खर्च निकालते हुए उसमें कुछ लाभांश जोड़कर उचितमूल्य देना ही चाहिए तो इस निश्चय को प्रत्यक्ष में लाने की दृष्टि से समय विचार करते हुए उपाय सुझाने की अपनी जिम्मेदारी किसान संघ स्वीकार करता है। यह कहना गलत है कि इस मांग की पूर्ति हो ही नहीं सकती। किन्हीं कारणों से सरकार किसान को उचित मूल्य देना नहीं चाहती। सरकार की अनिच्छा ही इस कार्य में प्रमुख बाधा है।
“ध्येय-पथ पर किसान”
दत्तोपन्त ठेंगड़ी
अध्याय 3 भाग-1
किसान और सरकार