राजनीति का जातिवादी संकट

शिवेंद्र सिंहप्रसिद्ध आंचलिक उपन्यासकार फणीश्वरनाथ रेणु  लिखते हैं, ‘जात क्या है ! जात दो ही हैं, एक गरीब और दूसरी अमीर.’  लेकिन भारतीय राजनीति में बहुत सी जाति पहले सामान्य, पिछड़ा और अनुसूचित जाति-जनजाति, फिर उसके भीतर ब्राह्मण, राजपूत, कायस्थ, यादव, कुर्मी, जाटव, धानुक आदि अनगिनत जातियाँ. संख्या इतनी ज्यादा कि धर्म ग्रन्थ और पुराण भी अपने आँकलन में अनभिज्ञ हैं.
लेकिन भारतीय राजनीतिज्ञ इसका सम्पूर्ण विवरण रखते हैं क्योंकि राजनीति में यह एक बीमा (इंश्योरेंस). आपके अंदर नेतृत्व की कोई योग्यता ना हो, कोई कार्यानुभव ना, अध्ययन के मामले में शून्य हों, राजनीतिक-सामाजिक समझ नदारद हो किन्तु यदि आपकी जाति की संख्या ठीकठाक हो तो आप नेता यानि पार्षद, विधायक, सांसद बनने की कल्पना कर सकते हैं. उस पर भी यदि आपके परिवार में से कोई यानि दादा-बाबा, पिता-चाचा सार्वजनिक जीवन में जातिगत गोलबंदी कर चुका हो और उसके बूते सक्रिय राजनीति का हिस्सा रहा हो तो सोने पर सुहागा. फिर तो आप निश्चिन्त रहिये कि विधानमंडल में आपको देर-सबेरे जगह मिल ही जायेगी. यकीन मानिये यदि ऐसा ना होता तो अखिलेश यादव, तेजस्वी यादव, अनुप्रिया पटेल, जयंत चौधरी, पंकज सिंह जैसे लोग कभी माननीय नहीं बन सकते थे. लेकिन दुर्भाग्य से वे हैं इसलिए इस तर्क को स्वीकार किया जा सकता है.
असल में जातिवादी राजनीति का सबसे बड़ा लाभ यह है कि अकर्मण्यता, अयोग्यता, स्तरहीनता जैसे निम्न श्रेणी के मानवीय व्यक्तित्वों को यह आसानी से अपने भीतर आश्रय दे देता है बदले में इसे कुछ नहीं चाहिए ना विकास, ना विजन, ना भविष्य की उम्मीद. केवल सम्बंधित जाति की अस्मिता का नारा बुलंद कीजिये और खुद को उसका स्वयंभू मसीहा सिद्ध कीजिये. फिर देखिये ये जाति का बीमा कैसे आपके राजनीतिक आजीविका (करियर) को सुरक्षित करता है. वैसे भी भारतीय राजनीति के विषय में यह एक सर्वप्रचलित उक्ति है कि यहाँ जनता चुनाव में अपना मत नहीं डालती बल्कि अपनी जाति चुनती है.
दिक्क़त ये है कि पिछले 75 वर्षों में राजनीति का ये कुष्ट रोग सीमित होने के बजाय व्यापित ही होता रहा है. नये समाज के निर्माण का वादा कर केन्द्र या राज्यों की सत्ता में आने वाली सरकारों ने अपनी चयनित या पसंदीदा जातियों को जो लाभ पहुँचाया हो किन्तु लोकतान्त्रिक मर्यादा के साथ घात ही किया है. अजीब स्थिति है कि जातिवाद से पत्रकारिता इतनी प्रभावित है कि विभिन्न मीडिया समूह आंकड़े प्रदर्शित कर बता रहे हैं कि विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा किस जाति के लोगों को कितने टिकट दिए गए. जबकि होना तो ये चाहिए था कि वो उम्मीदवारों की योग्यता और नेतृत्व क्षमता की विवेचना जनता के सामने रखती. जातिवादी का प्राबल्य राजनीति में सर्वत्र व्याप्त है. पिछले एक दशक से भाजपा ने प्रधानमंत्री को आगे कर पिछड़ावाद के प्रभाव का नारा बुलंद कर रखा है तो वही पिछले कई सालों से कांग्रेस से युवराज अपने जनेऊ दिखाते हुए अपना गोत्र बताते फिर रहे हैं.
 ऐसा नहीं है कि भारतीय राजनीति में जातिवाद 1947 के बाद आया है. यह उससे पहले भी था. इसका सबसे सटीक उदाहरण दलित राजनीति के वर्चस्व की है जहाँ 20वीं सदी में   दक्षिण की तरफ महार जाति से सम्बंधित डॉ. आंबेडकर के दलितों के मसीहा के रूप में स्थापना के समानांतर एवं बराबर प्रतिरोध के लिए कांग्रेस ने उत्तर भारत में चमार जाति से आने वाले बाबू जगजीवन राम को आगे किया. बाद में यह जातिगत विभाजन एवं नेतृत्व की प्रतिस्पर्धा बामसेफ आंदोलन के समय भी दिखी जहाँ कांशीराम भी चाहते थे कि उनकी जाति यानि ‘चमार’ ही बहुजन आंदोलन का नेतृत्व करे. बल्कि कई बार उन्होंने महार लोगों के आंदोलन के तौर-तरीके और उनकी नेतृत्व क्षमता का आलोचना एवं उपहास भी किया था. बाद में यही जातिगत वर्चस्व की जंग बहुजन आंदोलन के विघटन का कारण बनी. हालांकि स्वर्ण जातियों में नेतृत्व की की श्रेष्ठता की होड़ तो बड़ी प्राचीन काल से चली आ रही है जो अब भी निरंतर गतिशील है. ब्राह्मण, भूमिहार, राजपूत, जाट जैसी जातियाँ उत्तर भारत में राजनीतिक नेतृत्व को लेकर हमेशा से प्रतिस्पर्धा में बनी रहीं है. 
लेकिन वर्तमान भारतीय राजनीति में जाति आधारित नेतृत्व स्थापित करने का सबसे कटु संघर्ष पिछड़ी जातियों के मध्य चल रहा है. 90 के दशक में पिछड़ावाद के उफान में आई सत्ता की लहर पर यादवों ने कब्ज़ा कर लिया और उनका शिकंजा इतना मजबूत रहा कि अगले दो दशकों तक पिछड़ावाद की राजनीति यादववाद का पर्याय बन गईं. लेकिन पिछले एक दशक में कुर्मी, कोईरी, राजभर जैसी दूसरी संख्या बल में सशक्त जातियों ने इस यादववादी प्रभुत्व का विरोध करके अपने राजनीतिक वजूद को पुख्ता करने और सत्ता में उचित भागीदारी के लिए अपने अलग मोर्चे खोल दिये. चूंकि कांग्रेस राजनीति की कब्र पर भाजपा की सत्ता का नया महल खड़ा हो रहा तो इन पिछड़ी जातियों के अलावा बहुत सी दलित जातियाँ ने भाजपा के साथ सत्ता सुख में सहयोग किया. इसी सहयोग के परिणाम से भाजपा पिछले दस वर्षों में विभिन्न राज्य विधानसभाओं एवं केन्द्र की सत्ता पर काबिज है.
 जातिवादी राजनीति सत्ता संरक्षण में सहयोग तो देती है लेकिन दिक्क़त ये है कि समय के साथ ज़ब ये घनीभूत या स्वकेंद्रित होती जाती है तो इस स्वरुप में विघटनकारी होती जाती है. यानि ये एक दोधारी तलवार है जिसकी चोट देर सबेरे खुद पर भी पड़ती है.
वर्तमान में पिछड़ावाद की राजनीति से बुरी तरह आबद्ध भाजपा ने इसे इतना प्रश्रय दिया है कि यह अब दिनोदिन कटु रूप लेता जा रहा है. इससे भाजपा का कोर वोटर यानि सवर्ण समाज ना सिर्फ शंकित हैं बल्कि उनमें भारी मात्रा में नाराजगी भी है. उस पर से जातियों को लक्षित करके दिये जाने वाले भाजपा नेताओं के बयान कटु संघर्ष की स्थिति पैदा कर रहें है. पुरुषोत्तम रूपाला द्वारा राजपूत समाज पर की गईं अभद्र टिप्पणी मात्र नासमझी में दिया गया वक्तव्य नहीं है बल्कि यह सत्ताजनित अहमन्यता का परिणाम है. यदि यह असावधानीवश की गई बयानबाजी है तब स्थिति और भी बुरी है क्योंकि सार्वजनिक जीवन में एक संवैधानिक पद की जिम्मेदारी संभाल चुके व्यक्ति का ऐसा असंदीय व्यवहार उनके व्यक्तित्व पर सवाल खड़े करता है. ऊपर से लाख वाचिक दावों के बावजूद भाजपा का शीर्ष नेतृत्व इस अशोभनीय वाचाल प्रवृत्ति पर रोक लगाने में अक्षम सिद्ध हुआ है..
 निजी स्वार्थ में किसी भी विचार के अंतर्गत अतिवाद को प्रश्रय देने का दुष्परिणाम ये होता है कि उसकी चोट पलटकर स्वयं तक जरूर आती है. इसे बसपा के राजनीतिक यात्रा से समझिये. अपने शुरुआत में बामसेफ ने जाति मुक्त समाज के बजाय सशक्त जातिगत पहचान के आधार पर समाज के विभेदिकरण को बढ़ाया ताकि सत्ता तक सीधी पहुंच स्थापित की जा सके लेकिन दो दशक के भीतर ही इस विचार ने दोधारी तलवार की भांति बहुजन आंदोलन पर चोट की. कांशीराम के ढलते नेतृत्व एवं मायावती के सर्वाधिकरवाद के शुरुआत के साथ ही बसपा में जाटव-चमार जाति के अतिव्यापन से शुब्ध अन्य जाति जैसे निषाद, पटेल, राजभर, मल्लाह आदि जातियों के क्षत्रपों ने अपनी जाति आधारित पार्टियां गठित कर लीं.
भाजपा ने इतिहास से कुछ भी नहीं सीखा और ना ही अपने संकल्पों पर अडिग रह पाई. सत्ता में स्थापित होने के बाद पिछले एक दशक में उसने अपनी अधिकांश ऊर्जा राजनीति से लेकर प्रशासन तक जातीय समीकरण निर्धारित करने में खर्च की जबकि कहा तो उसे एक समरस समाज का निर्माण करना था. उस पर भी विडंबना देखिये की तिलक तराजू और तलवार को गरियाने वाली बसपा ने बीतते समय के साथ अपना सामाजिक आधार विस्तृत करते हुए हर जाति विशेषकर सवर्णों के प्रति अपनी कटुता कर कर उन्हें जोड़ने का प्रयास किया जबकि जाति विरोधी राजनीति की नैतिक अलम्बदार भाजपा स्वयं जातिवाद के दलदल में गहरे तक धाँसने को आमादा है.
भाजपा ने ज़ब पिछड़ा वर्ग के आरक्षण में न्यायिक वितरण का नारा देते हुए 2017 में रोहिणी आयोग का गठन किया तो यह जातिवादी राजनीति के बीच समानता स्थापित करने का उसका एक सकारात्मक कदम था लेकिन पिछले छः वर्षों में बारम्बार आयोग का कार्यकाल बढ़ाना समझ से परे है. राजनीतिक लाभ लेने की दृष्टि से सरकार हर विधानसभा और लोकसभा चुनाव के नफे नुकसान की गणना में कहीं ना कहीं गरीबों का हक मार रहीं है या पिछड़े वर्ग की यादव, कुर्मी, कोईरी जैसी लठैत जातियों को अतिपिछड़ों का संवैधानिक अधिकार मारने की छूट दे रही है.

हालांकि सत्ता में आने के बाद भाजपा ने जिस प्रकार जातिवाद को अपना ध्येय बनाया है उससे एक नया संकट उपस्थित हुआ है. सैद्धांतिक रूप से जातिविहीन समाज के निर्माण के दावों के परे सत्ता प्राप्ति के बाद पार्टी ने पिछड़ा, दलित. मोर्चा आदि विभिन्न माध्यमों से जातिवादी राजनीति को और मजबूत ही किया है. हो सकता है कि नये जातिगत समीकरण से भाजपा अभी फ़ौरी तौर पर लाभ की स्थिति में हो लेकिन निकट भविष्य में इसके नकारात्मक प्रभाव उसके लिए घातक हो सकते हैं. भाजपा ने योग्यता के बजाय शीर्ष नेतृत्व के प्रति वफ़ादारी और जातीय समीकरण साधने के नाम पर ऐसे-ऐसे लोगों को आगे किया है जिनपर स्वयं पार्टी संगठन में स्वीकार्यता नहीं है. मध्यप्रदेश, राजस्थान, हरियाणा के मुख्यमंत्री चुने गये लोग जनता से अधिक शीर्ष नेतृत्व के पसंदीदा थे. 

 खैर पूर्व में किसान आंदोलन और पहलवानों के धरने के मुद्दे पर जाट भाजपा से नाराज थे लेकिन चौधरी चरण सिंह को भारत रत्न देकर और रालोद को एनडीए में शामिल कर भाजपा सरकार ने बहुत हद तक अपने नुकसान की भरपाई कर ली. लेकिन चुनाव से पूर्व उत्तर भारत विशेषकर राजस्थान एवं उत्तर प्रदेश में राजपूतों की नाराजगी भाजपा को भारी पड़ सकती है. पहले टिकट वितरण में अन्य सवर्ण जातियों के मुकाबले राजपूतों को कम प्राथमिकता दी गईं. दूसरे जाट नेता संजीव बालियान की पश्चिमी उत्तर प्रदेश में राजपूतों के प्रति दुराव ढँका-छिपा नहीं है. उन पर सक्रियता से संगीत सोम को विधानसभा चुनाव हरवाने का आरोप है. सोम पश्चिमी यूपी में राजपूत समाज के सम्मानित नेता हैं. यह स्थिति भाजपा के लिए संकट पैदा कर रही है क्योंकि दोनों जातियों को एक साथ अपने पालेए रखना उसके लिए कठिन हो रहा है.
विपक्षी दलों में सपा और बसपा इससे पूरा लाभ उठाने की कोशिश कर रहें हैं. अखिलेश यादव तो राजपूतों को भाजपा की विरुद्ध उकसाते हुए उनके मान-सम्मान का प्रश्न उठा रहें हैं जबकि मायावती ने खुले दिल से राजपूतों को मुनासिब क्षेत्रों से टिकट दिया. बल्कि उन्हें से सवर्ण से लेकर पिछड़ी और दलित हर जाति के संतुलन से टिकट बंटवारा किया है. किन्तु सपा और राजद इस मामले में अपने परिवारवाद के चक्रव्यूह में नहीं निकल पाये हैं जो कि उनकी राजनीतिक डी.एन.ए. में पैठा रोग है. 
  भाजपा ने राजपूतों को मनाने की लिए राजनाथ सिंह एवं योगी आदित्यनाथ को मैदान में उतारा है. हालांकि योगी आदित्यनाथ की स्वीकार्यता तो अभी भी राजपूतों में बनी हुईं है. उन्हें स्वतंत्र भारत के राजपूत समाज का सर्वाधिक सम्मानित एवं सर्वस्वीकृत नेता कहा जाता है. लेकिन राजनाथ सिंह के विरुद्ध राजपूतों में नाराजगी बनी हुईं. उन्हें एक अवसरवादी नेता माना जाता है जिन्होंने सिर्फ जाति की नाम पर अपना स्वार्थ सिद्ध किया है. वास्तविकता तो यह है कि उत्तर भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में राजपूत समाज का बड़ा वर्ग राजनाथ सिंह के विरुद्ध घृणा का भाव रखता है. उधर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण समाज ने भी में अपने एक सम्मेलन में भाजपा के विरुद्ध अपनी नाराजगी जाहिर की है.
अब ये तो 4 जून तक पता चल ही जायेगा लेकिन इस चुनावी संग्राम से इस बात की तस्दीक हो गईं है कि भारतीय राजनीति पर से जातिवाद का  अभी निकट भविष्य में मिटने के कोई आसार नहीं है. अभी देश को इस अभिशाप के साथ लंबे समय तक जीना होगा.

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