चालीस का कमल, उनहत्तर का दीपक

राकेश सिंह

वैसे 40 की उम्र ज्यादा नहीं होती। 40 की उम्र में ही अगर खुद के होने के सवाल के ज्यादतर उत्तर देने के करीब आप पहुंच जाते हैं तो आपका जीवन सार्थक है। कम ज्यादा आना-जाना तो लगा रहता है। भाजपा भी आज 40 की हो गई। मै खुद 48 का। ऐसे में जिस विचार परिवार के हम सहयात्री है मुढ़कर देखना तो बनता है।कहने को तो भाजपा 40 की हुई है, लेकिन यह तो इसके दूसरे जन्म की कहानी है। इस कहानी के भीतर भी कई किस्से हैं। ऐसे में अपने अतीत को समझने की जरूरत है। अतीत को समझे बगैर वर्तमान का सार्थक निर्माण हम नहीं कर सकते। भाजपा कार्यकर्ता के नाते कई बार सोचता हूं क्या मै किसी नेता के कारण भाजपा से जुड़ा, तो पाता हूं कि नहीं। विचार के नाते। विचार की डोर ही मुझे संगठन से जोड़े हुए है। उतार चढ़ाव तो प्रकृति का नियम है। ज्यादातर कार्यकर्ता उसी विचार के वाहक हैं।

हमारे पुरखे जिस विचार को लेकर यात्रा पर निकले थे उस सपने को हम अपने जीते जी पूरा होते देख रहे हैं। जिस 370 हटाने के लिए हमारे वैचारिक पितृपुरूष श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने अपना जीवन होम कर दिया आज हमसब सौभाग्यशाली है कि अपने जीते जी 370 हटते हुए देखा। मुखर्जी जी भले ही हमारे बीच नही हैं लेकिन लाखों कार्यकर्तों की आंखों के जरिए वह जहां भी होंगे देख रहे होंगे। जिस समान नागरिक संहिता के लिए आदरणीय अटल जी संघर्षरत रहे, उस तरफ हमने कदम बढ़ा दिए। कुछ सफर भी पूरा कर लिया है। मुस्लिम मां-बहनों को तीन तलाक और हलाला से छुटकारा दिलाने के माध्यम बने। हम जैसे लाखों कार्यकर्ताओं की आंखों से अटल जी जहां होंगे देख रहे होंगे।

भारतीय स्वाभिमान के प्रतीक भगवान राम के जन्मस्थान पर भव्य मंदिर बनाने को लेकर एक लंबा संघर्ष हमने छेड़ा। हजारों ने जीवन की आहुति दे दी। उस संघर्ष सहयात्री के रूप में कई संगठनों ने हिस्सा लिया। संतों का आशीर्वाद जिस संघर्ष के साथ था। कोठारी बंधु आज भी जेहन को झकझोरते हैं। अशोक सिंहल, मोरोपंत पिंगले, रामचंद्रदास परमहंस,महंत अवैद्नाथ आज हमारे बीच नही हैं। उनके इस सपने को साकार होते सभी हमसबकी ही आंखों से देख रहे होंगे। पाकिस्तान में हिन्दू और सिक्खों की चिंता हमारे पुरखों को हमेशा से रही। उनकी दुर्दशा से तड़पते रहे। हमने उनके सपने को साकार होते देखा।

लंबे समय से इस विचार परिवार की यात्रा करते हुए कुछ राजनैतिक कार्यकर्ताओं के मन में आता होगा कि उन्हें क्या मिला। कुछ बाहर से आए हुए लोगों को जगह मिलने से निराशा का भाव स्वाभाविक है। खासकर राजनीति में। विरोधी भी हम पर आरोप लगाते हैं मुझमें आपमें क्या अंतर है। कई हमारे आपके साथ खड़े हैं। वही आपकी वैशाखी बने हैं। लेकिन इससे हमें निराश नहीं होना है। हम विचार के वाहक हैं। हम सब कोई पद पाने के लिए इस विचार के साथ नहीं चले। हम सब इस मंत्र के साथ यात्रा पर निकले “तेरा वैभव अमर रहे मां, हम दिन चार रहें न रहे” हम सब के हिस्से की राज्यसभा सदस्यता, लोकसभा सदस्यता और विधानसभा सदस्या जिसे चाहिए दे दीजिए, हमें तो अपने पुरखों के देखे गए सपने को साकार होते देखना है। हम अब इंतजार नहीं कर सकते। हमारा भारत नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व शिखर पर पहुंचने को आतुर है। नेतृत्व सबल है, समर्थ है। हमें निराश भी नहीं कर रहा। एक सबल और समृद्ध भारत की ओर हम सब अग्रसर हैं। अटल जी कविता को गुनगुनाइए, “…अंतरतम का नेह निचोड़े बुझी हुई बाती सुलगांए, आओ फिर से दिया जलाएं..।” यही विचार ही हमें औरों से अलग करता है। उसे समझने के लिए हमें पीछे मुड़ना पड़ेगा। अपने पूर्वजों को याद करना होगा।

अटल जी की इस कविता को गुनगुनाते हुए कल रात को दीपक जलाते समय उस दीपक की याद आ गई जो हमारे विचार परिवार के पूर्वजों ने जलाए थे। यह दीपक जला था 21 अक्टूबर 1951 को। गुरूजी के सानिध्य में इस दीपक को जलाया था पूरूषार्थी श्यामा प्रसाद मुखर्जी और एकात्ममानव दर्शन के प्रणेता पं.दीनदयाल उपाध्याय ने। उस समय की परिस्थितियों में यह जरूरी था। क्योंकि हमारे नीति नियंताओं ने मजहबी आधार पर देश का बंटवारा स्वीकार कर लिया था। पूरे बंगाल को पाकिस्तान को देने का मन बना लिया गया था। ऐसे में स्वाभिमान श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने आंदोलन तेज कर दिया। पूरा बंगाल तो नहीं कुछ हिस्सा पाकिस्तान को देकर मामला रफा दफा किया गया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी विभाजन का मुखर विरोधी था। बात आगे बढ़ी नेहरू का मंत्रिमंडल तैयार हुआ। गांधी जी के हस्तक्षेप से नेहरू मंत्रिमंडल में श्यामा प्रसाद मुखर्जी को जगह मिली। परिस्थितियां एक बार फिर बदली। 31 जनवरी 1948 को गांधी जी की हत्या कर दी गई। एक सोची समझी चाल के तहत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर आरोप मढ़ा गया।

गांधी और पटेल दोनों के ही नहीं रहने के बाद कांग्रेस पूरी तरह से ‘नेहरूवाद’ की चपेट में आ गई। अल्पसंख्यक तुष्टिकरण, लाइसेंस-परमिट-कोटा राज, राष्ट्रीय सुरक्षा पर लापरवाही, राष्ट्रीय मसलों जैसे कश्मीर आदि पर घुटनाटेक नीति, अंतर्राष्ट्रीय मामलों में भारतीय हितों की अनदेखी आदि अनेक विषय देश में राष्ट्रवादी नागरिकों को अंदर से बेचैन करने लगे। ‘नेहरूवाद’ तथा पाकिस्तान एवं बांग्लादेश में हिन्दू अल्पसंख्यकों पर हो रहे अत्याचार पर भारत के चुप रहने से क्षुब्ध होकर डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने नेहरु मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया।  इधर, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कुछ स्वयंसेवकों ने भी प्रतिबंध के दंश को झेलते हुए महसूस किया कि राजनैतिक दूरी के कारण उन्हें इस तरह की यातनाएं झेलनी पड़ी। ऐसी परिस्थिति में एक राष्ट्रवादी राजनीतिक दल की आवश्यकता देश में महसूस की जाने लगी। इसी हालात में भारतीय जनसंघ की स्थापना 21 अक्टूबर, 1951 को दिल्ली में हुई। डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की अध्यक्षता में। आयाताकार भगवा ध्वज झण्डे के रूप में स्वीकृत हुआ। उसी में अंकित दीपक को चुनाव चिन्ह स्वीकार किया गया। यहीं पहले आम चुनाव का घोषणा पत्र भी जारी किया गया।

पहले आम चुनाव में जनसंघ को 3.06 प्रतिशत वोट मिला। डा.मुखर्जी सहित तीन सांसद चुनकर संसद पहुंचे। संसद में मुखर्जी के नेतृत्व में नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट बना। अकाली दल, गणतंत्र परिषद, हिन्दू महासभा, तमिलनाडु टोइलर्स पार्टी, द्रविण कडगम्, लोकसेवक संघ और निर्दलीय मिलाकर 38 सासद इस फ्रंट में थे। 32 लोकसभा 6 राज्य सभा। डा. मुखर्जी अनौपचारिक रूप से पहले नेता प्रतिपक्ष थे।

29 जून 1952 को जम्मू कश्मीर की विधानसभा ने भारतीय संघ के अंतर्गत स्वायत्त गणराज्य का प्रस्ताव स्वीकार किया। 24 जुलाई को नेहरू अब्दुल्ला समझौता हुआ। यह जम्मू कश्मीर को पृथक करने का षडयंत्र था। इसके तहत वहां का अलग संविधान, अलग प्रधानमंत्री और अलग झंडे की व्यवस्था हुई। प्रजा परिषद ने इसके विरोध में आंदोलन किया। जनसंघ ने आंदोलन को समर्थन दिया। संसद में डा.मुखर्जी ने प्रखर भाषण दिए। जम्मू कश्मीर में आंदोलन तेज हो गया।29-31 दिसंबर 1952 क जनसंघ का पहला अधिवेशन कानपुर में हुआ। पं. दीनदयाल उपाध्याय महामंत्री बने। सांस्कृतिक पुनरूत्थान प्रस्ताव दीनदयाल जी ने प्रस्तुत किया। विचारधारा मूलक यह पहला प्रस्ताव था। राज्य पुनर्गठन आयोग की मांग की गई।

मार्च 1953 में कश्मीर पूर्ण विलय के लिए दिल्ली में सत्याग्रह शुरू हुआ। 11 मई को डा. मुखर्जी ने सत्याग्रहपूर्वक बिना परमिट के जम्मू में प्रवेश किया। उन्हें बंदी बनाकर श्रीनगर ले जाया गया। जम्मू कश्मीर में प्रवेश के लिए देशभर से 10750 सत्याग्रहीयों ने हिस्सा लिया। 23 जून को डा. मुखर्जी शहीद हो गए। सत्याग्रह स्थगित कर दिया गया। सत्याग्रह का परिणाम रहा कि 9 अगस्त को शेख अब्दुल्ला को जम्मू कश्मीर प्रधानमंत्री पद से हटा दिया गया। साथ ही बंदी भी बना लिया गया। परमिट सिस्टम भी समाप्त कर दिया गया।

स्वदेशी के संकल्प के साथ 22 से 25 जनवरी 1954 में जनसंघ का दूसरा अधिवेशन बंबई मे हुआ। रूस की नकल पर बनी पंचवर्षीय योजना का भी विरोध किया गया। अंग्रेज तो 1947 में चले गए लेकिन गोवा दमन दीव तथा पांडिचेरी भी पुर्तगालियों और फ्रेंच साम्राज्य के हिस्से थे। जनसंघ ने इनकी आजादी का आंदोलन छेड़ा। जनसंघ के कार्यकर्ता नरवने ने 22 जुलाई 1954 को दादरा को मुक्त कराया। 29 जुलाई को नरवने ने ही नारोली द्वीप की मुक्ति का नेतृत्व किया। जनसंघ के कार्यकर्ता हेमंत सोमन ने पणजी में पुर्तगाली सरकार के सचिवालय पर 15 अगस्त को तिरंगा फहरा दिया। देशभर में जनसंघ ने गोवा मुक्ति के लिए आंदोलन किया। जनसंघ के राष्ट्रीय मंत्री जगन्नाथ जोशी ने 101 सत्याग्रहियों के जत्थे के साथ गोवा में प्रवेश किया। उन्हें बंदी बना लिया गया। प्रताडित भी किया गया।

शिक्षा व्यवस्था बदलने के आह्वान के साथ जनसंघ का तीसरा अधिवेशन 28 दिसंबर से 2 जनवरी 1954 जोधपुर में हुआ। कश्मीर एकीकरण के जननायक प्रेमनाथ डोगरा अध्यक्ष बने। गणितज्ञ आचार्य देवाप्रसाद घोष की अध्यक्षता में पांचवा अधिवेशन दिल्ली में हुआ। इसमें जनपदों तक विकेन्द्रित एकात्म शासन की मांग की। यहीं सम्प्रदायवाद के खिलाफ भारतीयकरण का प्रस्ताव पारित हुआ।

10 सितंबर 1958 में नेहरू-नून समझौता हुआ। जिससे जलपाईगुड़ी का बेरूबाड़ी युनियन पाकिस्तान को सौंप दिया गया। बेरूबाड़ी बचाने के लिए जनसंघ ने पूरे देश में आंदोलन किया। 1959 में चीन की भारतीय सीमा में घुसपैठ के खिलाफ मुखर आवाज जनसंघ ने उठाई। तिब्बत की आजादी की मांग की। पूरे साल जन जागरण के कार्यक्रम हुए।

जनसंघ के इतिहास में 1964 का साल मील का पत्थर है। 10 से 15 अगस्त तक ग्वालियर में स्वाध्याय़ शिविर हुआ। यहीं एकात्म मानव दर्शन को स्वीकार किया गया।  26 से 30 दिसंबर 1967 को कालीकट में जनसंघ का चौदहवां राष्ट्रीय अधिवेशन हुआ। पं.दीनदयाल उपाध्याय को पार्टी ने अपना अध्यक्ष चुना। लेकिन दीनदयाल उपाध्याय 11 फरवरी 1968 को शहीद हो गए। उनकी जगह अटल विहारी वाजपेयी 13 फरवरी 1968 को जनसंघ के अध्यक्ष चुने गए। पंद्रहवें अधिवेशन में वाजपेयी फिर से अध्यक्ष चुने गए। यहीं पहली बार नारा लगा प्रधानमंत्री की अगली बारी, अटल विहारी अटल विहारी। 28-29 दिसंबर 1969 को जनसंघ का सोलहवां अधिवेशन पटना में हुआ। कांग्रेस-कम्युनिष्ट और मुस्लिम लीग के गठबंधन के खिलाफ नारा दिया। तीन तिलंगे करते दंगे। स्वदेशी प्लान और भारतीयकरण का नारा लगा।

सत्तर के दशक में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के नेतृत्व में निरंकुश होती जा रही कांग्रेस सरकार के विरूद्ध देश में जन-असंतोष उभरने लगा। गुजरात के नवनिर्माण आन्दोलन के साथ बिहार में छात्र आंदोलन शुरू हो गया। कांग्रेस ने इन आंदोलनों के दमन का रास्ता अपनाया। लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने आंदोलन का नेतृत्व स्वीकार किया तथा देशभर में कांग्रेस शासन के विरूद्ध जन-असंतोष मुखर हो उठा। 1971 में देश पर भारत-पाक युद्ध तथा बांग्लादेश में विद्रोह के परिप्रेक्ष्य में बाह्य आपातकाल लगाया गया था जो युद्ध समाप्ति के बाद भी लागू था। उसे हटाने की भी मांग तीव्र होने लगी।

जनान्दोलनों से घबराकर इंदिरा गांधी की कांग्रेस सरकार ने जनता की आवाज को दमनचक्र से कुचलने का प्रयास किया। परिणामत: 25 जून, 1975 को देश पर दूसरी बार आपातकाल भारतीय संविधान की धारा 352 के अंतर्गत ‘आंतरिक आपातकाल’ के रूप में थोप दिया गया। देश के सभी बड़े नेता या तो नजरबंद कर दिये गए अथवा जेलों में डाल दिए गये। समाचार पत्रों पर ‘सेंसर’ लगा दिया गया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सहित अनेक राष्ट्रवादी संगठनों पर प्रतिबंध लगा दिया गया। हजारों कार्यकर्ताओं को ‘मीसा’ के तहत गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया। देश में लोकतंत्र पर खतरा मंडराने लगा। जनसंघर्ष को तेज किया जाने लगा और भूमिगत गतिविधियां भी तेज हो गयीं। तेज होते जनान्दोलनों से घबराकर इंदिरा गांधी ने 18 जनवरी, 1977 को लोकसभा भंग कर दी तथा नये जनादेश प्राप्त करने की इच्छा व्यक्त की।

जयप्रकाश नारायण के आह्वान पर एक नये राष्ट्रीय दल ‘जनता पार्टी’ का गठन किया गया। विपक्षी दल एक मंच से चुनाव लड़े तथा चुनाव में कम समय होने के कारण ‘जनता पार्टी’ का गठन पूरी तरह से राजनीतिक दल के रूप में नहीं हो पाया। आम चुनावों में कांग्रेस की करारी हार हुई तथा ‘जनता पार्टी’ एवं अन्य विपक्षी पार्टियां भारी बहुमत के साथ सत्ता में आई। पूर्व घोषणा के अनुसार 1 मई, 1977 को भारतीय जनसंघ ने करीब 5000 प्रतिनिधियों के एक अधिवेशन में अपना विलय जनता पार्टी में कर दिया।

जनता पार्टी का प्रयोग अधिक दिनों तक नहीं चल पाया। दो-ढाई वर्षों में ही अंतर्विरोध सतह पर आने लगा। कांग्रेस ने भी जनता पार्टी को तोड़ने में राजनीतिक दांव-पेंच खेलने से परहेज नहीं किया। भारतीय जनसंघ से जनता पार्टी में आये सदस्यों को अलग-थलग करने के लिए ‘दोहरी-सदस्यता’ का मामला उठाया गया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से संबंध रखने पर आपत्तियां उठायी जानी लगीं। यह कहा गया कि जनता पार्टी के सदस्य राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सदस्य नहीं बन सकते। 4 अप्रैल, 1980 को जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यसमिति ने अपने सदस्यों के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सदस्य होने पर प्रतिबंध लगा दिया। पूर्व के भारतीय जनसंघ से संबद्ध सदस्यों ने इसका विरोध किया और जनता पार्टी से अलग होकर 6 अप्रैल, 1980 को एक नये संगठन ‘भारतीय जनता पार्टी’ की घोषणा की। इस प्रकार भारतीय जनता पार्टी की स्थापना हुई।

 

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