अपने-अपने दिग्भ्रम

 

बनवारी

चुनाव आयोग की पांच राज्यों में चुनाव की घोषणा के बाद सभी दलों ने अपनी रणनीति घोषित कर दी है। लेकिन इन चुनावों में जितनी दिग्भ्रमित कांग्रेस दिखती है, उतना कोई और दूसरा दल नहीं दिखता। उसे नहीं मालूम कि उसका वास्तविक लक्ष्य क्या है। कांग्रेस अब एक परिवार की पार्टी होकर रह गई है। इसलिए कर्नाटक चुनाव के समय उसके लक्ष्य स्पष्ट थे। उसे राज्य की पार्टी, राज्यस्तरीय नेताओं और राज्य में पार्टी के भविष्य की उतनी चिंता नहीं थी, जितनी 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव की थी। इसलिए उसने राज्य में विधानसभा में संख्याबल के हिसाब से तीसरे जनता दल (सेक्यूलर) की सरकार बनवा दी और उसकी सभी शर्तें मान गई।

37 विधायकों के बल पर कुमारस्वामी सरकार बनी और 80 विधायकों वाली कांग्रेस दूसरे दर्जे की होकर सरकार में शामिल हुई। इस सबका कारण यही था कि कर्नाटक उन गिने-चुने राज्यों में से है, जहां अब भी कांग्रेस की कुछ उम्मीद बची हुई है। वह 2019 के लोकसभा चुनाव तक कुमारस्वामी सरकार को टिकाए रखने का फैसला ले चुकी थी ताकि लोकसभा चुनाव के समय उसे सरकार का और जनता दल से गठबंधन का अधिक से अधिक फायदा मिल सके। कुमारस्वामी सरकार बनाने के बाद जिस तरह से व्यवहार कर रहे हैं अब उससे यह निश्चित नहीं रह गया है कि वे अगले आम चुनाव में कांग्रेस के साथ गठबंधन करके चुनाव में उतरेंगे। अगर उतरे भी तो वे उसकी पूरी कीमत वसूलकर ही उतरेंगे। अपनी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं के लिए कांग्रेस के शिखर नेता किस तरह राज्य पार्टी की अवमानना कर सकते थे, यह इसका उत्तम उदाहरण था। इसका परिणाम यह भी हो सकता है कि कांग्रेस के कुछ बड़े और महत्वाकांक्षी नेता तब तक अपनी राह पकड़ लें।

पांच राज्यों में चुनाव को लेकर सभी दलों की अपनी रणनीति और दावे हैं। लेकिन इन चुनावों में जितनी दिग्भ्रमित कांग्रेस दिखती है, उतनी कोई और पार्टी नहीं।

कर्नाटक चुनाव के समय भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ एक महागठबंधन की भी घोषणा हुई थी। लेकिन यह संकल्प कुछ दिन भी नहीं टिका। कांग्रेस ने घोषित किया कि विपक्ष जीता तो वह राहुल गांधी को अगला प्रधानमंत्री देखना चाहेगी। लेकिन राहुल गांधी का नाम सामने आते ही विपक्ष के अनेक दलों में असमंजस दिखाई देने लगी। कर्नाटक के देवगौड़ा को छोड़कर किसी ने उनके नाम पर मोहर लगाने का उत्साह नहीं दिखाया। यहां तक कि अखिलेश यादव और तेजस्वी यादव भी राहुल गांधी की दावेदारी को लेकर आश्वस्त नहीं दिखे। हवा का रुख भांपकर कांग्रेस ने कहा कि कौन प्रधानमंत्री होगा, यह चुनाव परिणामों के बाद तय होगा।

यह घोषणा इस विश्वास से की गई थी कि कांग्रेस चुनाव के बाद विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभर आएगी और तब वह राहुल गांधी की दावेदारी अधिक विश्वास के साथ आगे कर सकेगी। लेकिन जब कर्नाटक में ही ऐसा नहीं हुआ तो 2019 के आम चुनाव के बाद ऐसा हो जाएगा, इसकी क्या गारंटी है। अब लगता है कि कांग्रेस के नेताओं की भी विपक्ष के किसी महागठबंधन के स्वरूप लेने में दिलचस्पी नहीं रही। इसलिए अगले महीने से होने वाले पांच विधानसभा चुनावों में वह किसी विपक्षी तालमेल की कोशिश ही नहीं कर रही। तेलंगाना में अवश्य उसने कल तक भाजपा का हाथ थामे घूमने वाले चंद्रबाबू नायडू से गठबंधन किया है। पर उसका फायदा शायद भारतीय जनता पार्टी को अधिक हो। तेलंगाना में मुख्य मुकाबला चंद्रशेखर राव की तेलंगाना राष्ट्र समिति और भारतीय जनता पार्टी के बीच हो सकता है। तेलुगूदेशम, भाकपा, तेलंगाना जनसमिति पार्टी और कांग्रेस को जोड़-बटोरकर जो महाकुटुंब बनाया गया है, वह कुटुंब कम भानुमती का पिटारा अधिक है।

कर्नाटक चुनाव की तरह कांग्रेस 2019 के आम चुनाव को लक्ष्य बनाकर पांच विधानसभा चुनावों की रणनीति बना रही होती तो उसे सबसे अधिक छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में कोई विश्वसनीय गठबंधन बनाने पर ध्यान देना चाहिए था। इन राज्यों में भाजपा लंबे अर्से से सत्ता में है और उसकी सरकारों के खिलाफ असंतोष बढ़ा है, यह पिछले उपचुनावों में दिख गया था। लेकिन कांग्रेस को यह गलतफहमी हो गई लगती है कि प्रायोजित चुनाव सर्वेक्षणों ने जो कांग्रेस समर्थक चुनाव माहौल बनाया है, उसके बाद उसे राहुल गांधी को मैदान में उतारने के अलावा और कुछ करने की जरूरत नहीं है। फैसला हो चुका है और कांग्रेस तीनों राज्यों में चुनाव जीत रही है। कांग्रेस की इस आत्मरति का सबसे पहला परिणाम यह हुआ कि मायावती ने छत्तीसगढ़ में अजित जोगी की पार्टी से गठजोड़ करके कांग्रेस को एक बड़ा झटका दे दिया। छत्तीसगढ़ में अब मुकाबला तिकोना हो गया है और भारतीय जनता पार्टी अब अधिक विश्वास से चुनाव के मैदान में उतर सकती है। मायावती अपने वोट बैंक के भरोसे काफी कड़ा लेनदेन करती है और कांग्रेस किसी को कुछ देने के लिए उत्सुक नहीं है। कुछ कांग्रेस नेताओं ने कहा कि मायावती न सही, अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी से तालमेल हो जाएगा, लेकिन लगता है कि पार्टी में अब चुनावी रणनीतिकार बचे नहीं है और राहुल गांधी खुद अपने भाषणों से अभिभूत हैं। अखिलेश को भी कहना पड़ा कि वे किसी से सीटों की भीख नहीं मांगेंगे। कांग्रेस का रास्ता ताकने के बजाय वे मैदान में अकेले उतरेंगे। मध्य प्रदेश में यादव-मुसलमान वोटों पर उनकी निगाह है और वे कांग्रेस को नुकसान पहुंचा सकते हैं।

सबसे दिलचस्प बात यह है कि इन चुनावों में कांग्रेस का सेक्यूलरिज्म हवा हो गया है। चार साल पहले तक भारतीय जनता पार्टी के नेता भी कांग्रेस को स्यूडो सेक्यूलर और अपने आपको असली सेक्यूलर कहते थे। स्यूडो सेक्यूलर शब्द का सबसे अधिक प्रचार लालकृष्ण आडवाणी ने किया था। आज कांग्रेस सेक्यूलरिज्म भूलकर राहुल गांधी को हिन्दू साबित करने पर तुली हुई है। गुजरात के चुनाव में सोमनाथ मंदिर की यात्रा करने के बाद राहुल गांधी इतने शिवभक्त हुए कि कैलाश मानसरोवर की यात्रा भी कर आए। इन चुनावों में उनके पोस्टरों में राहुल गांधी को शिवभक्त, रामभक्त से लगाकर नर्मदाभक्त तक बताया जा रहा है। बेचारे अपनी इस नई छवि को विश्वसनीय बनाने के लिए जबलपुर में दोपहर बाद नर्मदा आरती उतारने गए तो उसका बड़ा उपहास हुआ और कहा गया कि यह नर्मदा आरती का समय नहीं है। नर्मदा आरती प्रात: होती है या सायं, जब राहुल गांधी पहुंचे तब उसका मुहूर्त नहीं निकलता। मध्य प्रदेश में कांग्रेस चुनाव प्रचार का तो कुछ कायाकल्प हो गया है। पिछले चुनावों में दिग्विजय सिंह सेक्यूलरिज्म का झंडा मजबूती से थामे हुए भाजपा को चिढ़ाने के लिए हबीब तनवीर के पोंगा पंडित नाटक का मंचन करवा रहे थे। अब वे नर्मदा की परिक्रमा करते घूम रहे हैं। पार्टी की विचारधारा की जगह अब राहुल गांधी का जनेऊ कांग्रेस की शोभा हो गया है।

इस बार इन तीनों राज्यों के चुनाव एकतरफा नहीं होने वाले, यह बात सभी मान रहे हैं। लेकिन कांग्रेस कुछ राज्यों में जीत भी गई तो क्या वह 2019 के चुनावों में जहां वह कमजोर है, अन्य दलों को विश्वास में ले पाएगी? उत्तर प्रदेश और बिहार के चुनाव में उसे सपा, बसपा और लालू यादव की पार्टी की वैसाखी चाहिए होगी। लेकिन अखिलेश, मायावती या लालू यादव परिवार का रुख देखते हुए लगता नहीं कि कोई कांग्रेस को गंभीरता से लेने वाला है। हाल ही में मार्क्सवादी पार्टी की केंद्रीय समिति की बैठक हुई, उसका दिग्भ्रम कांग्रेस से भी इक्कीस है। उसका लक्ष्य 2019 में केंद्र में भाजपा सरकार न बनने देना है। लेकिन इस लक्ष्य को पाने का रास्ता क्या हो, इस पर पार्टी में घमासान मचा हुआ है। येचूरी पश्चिम बंगाल को ध्यान में रखकर कांग्रेस से तालमेल करना चाहते हैं और करात को केरल की चिंता है, जहां कांग्रेस से कोई भी तालमेल की बात माकपा के गले की फांस हो सकती है। इसलिए केंद्रीय समिति की बैठक में कोई फैसला नहीं हो पाया और यह कहकर पल्ला झाड़ लिया गया कि चुनाव के परिणामों को देखकर फैसला करेंगे। मार्क्सवादी अब क्रांति या संघर्ष की बात नहीं करते, टेक्टिकल लाइन की बात करते हैं। व्यवहार में अक्सर वह उसकी विचारधारा का निषेध करती दिखाई देती है। कभी नम्बूदिरी पाद ने कांग्रेस को सत्ता से हटाने के लिए टेक्टिकल लाइन की टेक दोहराते हुए जनसंघ से तालमेल को हरी झंडी दी थी।

आज येचूरी भाजपा को हटाने के लिए कांग्रेस से तालमेल को हरी झंडी दिलवाना चाहते हैं। लेकिन माकपा राष्ट्रीय नहीं राज्यस्तरीय पार्टी रह गई है और उसके जनाधार वाले दो राज्यों के हित परस्पर विरोधी दिखते हो तो टेक्टिकल लाइन का फैसला करना मुश्किल हो जाता है। यही माकपा का दिक्भ्रम है। भारतीय जनता पार्टी कुछ दबाव में अवश्य है। कम से कम छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान उसके लिए काफी महत्वपूर्ण हैं। क्योंकि पिछले आम चुनाव में उसको यहां की अधिकांश सीटें मिल गईं थीं। लेकिन वह यह मानकर चल रही है कि विधानसभा के चुनाव उलटे भी पड़े तो लोकसभा में मोदी का जादू उसे सत्ता तक पहुंचा देगा।  

 

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