हरित क्रांति – क्या पाया, क्या खोया?

प्रदीप कौर आर्या

भारत में हरित क्रांन्ति की शुरुआत सन 1966-67 से हुई। इसकी शुरूआत का श्रेय नोबल पुरस्कार विजेता प्रोफेसर नारमन बोरलॉग को जाता है। हरित क्रांन्ति का उद्देश्य अन्न उत्पादन को बढ़ाना था। सिंचित एवं असिंचित खेती योग्य जमीन में अधिक उपज देने वाले संकर तथा बौने बीजों के उपयोग से अच्छी फसल का उत्पादन ही इसका मुख्य उद्देश्य था। हरित क्रान्ति भारतीय खेती में लागू की गई उस विकास विधि का परिणाम है, जो 1960 के दशक में पारंपरिक खेती को आधुनिक तकनीकि के प्रयोग को प्रेरित करती है। इस तकनीक के आश्चर्यजनक परिणाम निकले। इसका विकास भी तेजी से हुआ। इससे प्रभावित होकर नीति बनाने वालों कृषि विशेषज्ञों और राजनीतिज्ञों ने इसे क्रांति का संज्ञा दी। इसे ही हरित क्रांति कहा गया। यह इसी का परिणाम था कि अन्न की किल्लत से दो चार हो रहे देश में उपयोग से ज्यादा पैदावार होने लगी। इससे किसानों के सोचने के तरीके भी बदले। व्यावसायिक खेती की ओर किसान बढ चला। गेंहूं,मक्का,गन्ना और बाजरा की पैदावार पहले से कई गुना बढ़ गई।

इसके चलते रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल खेती में बढ़ गया। इसको इन आंकड़ों से समझा जा सकता है। साल 1960-61 में उपयोग था दो किलोग्राम प्रति हेक्टेअर। वहीं साल 2008-9 में यह बढ़कर 128.6 किलोग्राम हो गया। इसी तरह 1960-61 में रासायनिक उर्वरकों की कुल खपत 2.92 लाख टन थी, जो बढ़कर 2008-9 में 249.09 लाख टन हो गई। पैदावार तो बढ़ी लेकिन इसके दुष्परिणाम भी सामने आने लगे। इसी तरह अधिक पैदावार देने वाले उन्नतशील बीजों का प्रयोग भी बढ़ा। नई-नई किस्म के बीजों की खोज की गई। अधिक पैदावार के लिए गेंहूं, धान, बाजरा, मक्का और ज्वार जैसी फसलों के लिए ज्यादा जोर दिया गया। गेंहूं में अधिक सफलता मिली।

सिंचाई पर भी जोर दिया गया। साल 1951 में देश में कुल सिंचाई क्षमता 223 लाख हेक्टेअर थी। यह बढ़कर साल 2008-9 हो गई।  में 1,073 लाख हेक्टेअर हो गई। साल 1951 में 210लाख हेक्टेअर जमीन सिंचित थी। 2008-9 में यह बढ़कर 663 लाख हेक्टेअर हो गई। हरित क्रांति से कुछ फसलों के पैदावार मे बढ़ोत्तरी हुई। अन्न के आयात में कमी आई। इसके साथ ही खेती के परंपरागत तरीके में भी बदलाव आया। दुसरी ओर इसके कारण कुछ दूसरे नकारात्मक प्रभाव भी पड़े। हरित क्रान्ति का प्रभाव कुछ विशेष फ़सलों तक ही सीमित रहा, जैसे- गेहूँ, ज्वार, बाजरा। अन्य फ़सलो पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा है। यहाँ तक कि चावल भी इससे बहुत ही कम प्रभावित हुआ है। व्यापारिक फ़सलें भी इससे अप्रभावित ही हैं। खेती की लागत भी बढ़ी। भारी निवेश करना छोटे तथा मझोले किसानो की क्षमता से बाहर हैं। इस तरह, हरित क्रान्ति से लाभ उन्हीं किसानों को हो रहा है, जिनके पास निजी पम्पिंग सेट, ट्रैक्टर, नलकूप तथा अन्य कृषि यन्त्र हैं। यह सुविधा देश के बड़े किसानों को ही उपलब्ध है। सामान्य किसान इन सुविधाओं से वंचित हैं।

हरित क्रान्ति का प्रभाव पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र तथा तमिलनाडु आदि राज्यों तक ही सीमित है। इसका प्रभाव सम्पूर्ण देश में नहीं फैल पाने के कारण देश का सन्तुलित रूप से विकास नहीं हो पाया। इस तरह, हरित क्रान्ति सीमित रूप से ही सफल रही है।

साठ के दशक के उत्तरार्ध में पंजाब में हरित क्रांति ने चमत्कारी परिणाम दिखाए। हरित क्रांति को यथार्थ में बदलने के लिए जीन संशोधित बीज और रासायनिक उर्वरकों ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। लेकिन सवाल यह था कि हरित क्रांति को उस समय बरक़रार रखने के लिए किन चीज़ों की ज़रूरत थी। वह यह था कि जो भी उत्पादन हो उसकी ख़रीद की जाए। ग्रेन पर इतना ज़ोर हो गया कि यह ग्रीन के बजाए ग्रेन क्रांति में तब्दील हो गई। उसके लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य आ गया। फिर सरकार को उसकी ख़रीद करनी पड़ती थी। उसके लिए लेवी व्यवस्था शुरू की गई। अनाज के भंडारण और वितरण के लिए भारतीय खाद्य निगम और सार्वजनिक वितरण प्रणाली थी। इस तरह उत्पादन से वितरण तक की पूरी सीरिज़ बन गई।

सभी इस बात को स्वीकार करते हैं कि पंजाब ही नहीं देश के उन हिस्सों में जहाँ पानी की कमी थी हरित क्रांति असफल साबित हुई। ऐसे देश में जहाँ मॉनसून हमेशा से ही आँख-मिचौली खेलता आया है, क्या हरित क्रांति एक आदर्श मॉडल साबित हो सकती थी? उस वक़्त की कृषि नीति में रासायनिक उर्वरक ज़मीन के स्वाभाविक पौष्टिक तत्वों से ज़्यादा महत्वपूर्ण हो गए और उन्हें प्राथमिकता मिलने लगी। किसान हर साल ज़मीन से गेहूँ और चावल लेते गए और उसमें रासायनिक उर्वरक डालते गए। जो उत्पादन क्षमता थी उसे बरक़रार रखने के लिए ज़्यादा से ज़्यादा रासायनिक उर्वरक डालते गए। साथ ही कीटनाशकों का प्रयोग करना पड़ा। आज अगर उसमें रासायनिक उर्वरक न डालो तो कोई उत्पादन ही नहीं होगा।

दरअसल 80 के दशक के मध्य में हरित क्रांति से जुड़ा उन्माद काफ़ी हद तक फ़ीका पड़ गया। न सिर्फ़ मिट्टी की पौष्टिकता पर ही इसके दुष्प्रभाव दिखाई दिए बल्कि सामाजिक स्तर पर इसके परिणाम छोटे किसानों के लिए घातक साबित हुए। इसमें कोई शक नहीं है भारत जैसे देश में साठ के दशक में हरित क्रांति का उद्देश्य भुखमरी से निजात पाना था। इसका समर्थन करने वालों का कहना है कि खेती के पारंपरिक तरीक़े छोटे खेतों के लिए तो सार्थक हो सकते हैं लेकिन बड़ी ज़रूरतें इससे पूरी नहीं हो सकती थीं। पर्यवेक्षकों का मानना है कि हरित क्रांति की रुपरेखा तैयार करने से पहले नीति निर्धारकों ने इसकी दीर्घकालिक क्षमता पर विचार नहीं किया और कहीं न कहीं यह तात्कालिक ज़रूरतों को पूरा करने का माध्यम बन कर रह गई। इसीलिए आज जैविक खेती की जरूरत को महसूस किया जा रहा। जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए सरकार अनेक योजनाएं लेकर आ रही है।

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