सियासत के श्रीमंतों का सफाया

विजया लक्ष्मी

चुनावी नतीजों के बाद से यह सवाल उठने लगा है कि क्या वंशवादी राजनीति का अंत हो रहा है? सवाल मुनासिब है, इस चुनाव में मतदाताओं ने वंशवाद की राजनीति पर भी करारी चोट की है। वंशवाद की बुनियाद पर खड़ी कांग्रेस समेत कई राजनीतिक दलों का हश्र सभी के सामने है। मोदी की सुनामी ने विरोधी राजनीतिक दलों को कई सबक दिए हैं, उनमें एक सबक यह भी है कि सिर्फ वंश के नाम पर वोट की राजनीति के दिन लद गए हैं। भारतीय राजनीति में वंशवाद की राजनीति का सबसे बड़ा उदाहरण कांग्रेस रही है। यह पार्टी जितनी पुरानी है, भारतीय राजनीति में वंशवाद की जड़ें उतनी ही गहरी हैं।

अपनी स्थापना के 133 साल पूरे कर चुकी इस पार्टी की सबसे बड़ी विफलता उसका एक ही राजनीतिक परिवार पर निर्भर होना है। पिछली बार 2014 के लोकसभा चुनाव में पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी और उपाध्यक्ष राहुल गांधी के नेतृत्व में मैदान में उतरी थी, तब उसे 44 सीटें मिलीं। तब हताश कांग्रेसियों ने नारा दिया था- प्रियंका लाओ, कांग्रेस बचाओ। मौजूदा चुनाव से पहले महासचिव का ओहदा देकर प्रियंका गांधी को भी प्रचार में उतार दिया गया। इसे कांग्रेस का मास्टर स्ट्रोक करार दिया जा रहा था। नतीजा यह रहा कि परिणामों में पार्टी की चूलें हिल गईं।

दादा-पोता भी हारे

दक्षिण भारत में भी मतदाताओं ने वंशवादी राजनीति पर चोट की है। कर्नाटक में पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा और उनके पौत्र निखिल कुमारस्वामी को जनता ने नकार दिया। देवेगौड़ा कर्नाटक की तुमकुर सीट पर बीजेपी उम्मीदवार से चुनाव हार गए। देवेगौड़ा की पारंपरिक सीट हासन पर उनके दूसरे पौत्र प्रज्ज्वल रेवन्ना चुनाव जीत गए लेकिन उनके एक अन्य पौत्र और मुख्यमंत्री कुमारस्वामी के बेटे निखिल कुमारस्वामी मांड्या लोकसभा सीट पर निर्दलीय उम्मीदवार सुमलता अंबरीश से चुनाव हार गए।

पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी खुद अमेठी के अपने ही चुनावी अखाड़े में मात खा गए। इस हार के बावजूद लगता नहीं कि पार्टी अपने पुराने ढर्रे से निकल पाएगी क्योंकि कांग्रेस कार्यसमिति अपने अध्यक्ष राहुल गांधी के इस्तीफे की पेशकश अस्वीकार कर चुकी है। पार्टी प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला कहते हैं कि उनके नेतृत्व की हमें जरूरत है। जबकि मणिशंकर अय्यर जैसे कांग्रेसी दलील दे रहे हैं कि पार्टी नेतृत्व नहीं, बल्कि हार के कई अन्य कारण हैं, जिनपर हमें काम करने की जरूरत है। इसी चुनाव में मतदाताओं ने मध्यप्रदेश की गुना सीट पर कांग्रेस उम्मीदवार ज्योतिरादित्य सिंधिया के हार की पटकथा लिखकर साफ संदेश दे दिया कि वंशवादी राजनीति का अंत हो रहा है। ज्योतिरादित्य सिंधिया को उनके ही करीबी रहे भाजपा उम्मीदवार केपी यादव ने पटखनी दे दी।

डिंपल भी नहीं बचा पाई सीट

वंशवाद की राजनीति का एक उदाहरण समाजवादी पार्टी भी है। समाजवादी पार्टी का दादा-पोता भी हारे मतलब मुलायम परिवार से है। पार्टी अध्यक्ष पद से पिता मुलायम सिंह यादव को किनारे कर अखिलेश यादव ने कमान संभाली। इस चुनाव से पहले अखिलेश यादव ने बहुजन समाज पार्टी से तालमेल कर भाजपा को मात देने की पूरी तैयारी की थी। हालांकि इस गठबंधन से मुलायम सिंह यादव नाराज बताए जा रहे थे। नतीजा वही निकला, जिसकी संभावना जताई जा रही थी। इस चुनाव में समाजवादी पार्टी को सिर्फ पांच सीटें हासिल हुईं।

आरजेडी का खाता नहीं खुला

बिहार में राष्ट्रीय जनता दल को कभी अपराजेय मान लिया गया था। लालू राज में कई बार इसकी तस्दीक भी हुई लेकिन आज स्थिति यह है कि बाकी दलों के साथ तालमेल कर 19 सीटों पर चुनाव मैदान में उतरने वाले आरजेडी का एक भी उम्मीदवार जीत नहीं पाया। लालू प्रसाद यादव की बेटी मीसा भारती इसबार भी पाटलिपुत्र सीट से चुनाव हार गईं। 2014 की तरह इसबार भी भाजपा के रामकृपाल यादव ने उन्हें परास्त कर दिया। लालू प्रसाद यादव के समधी चंद्रिका प्रसाद राय भी सारण लोकसभा सीट से चुनाव हार गए। उन्हें हराने में उनके दामाद तेजप्रताप ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी थी। आरजेडी की भी समस्या यही है कि इसकी राजनीतिक विरासत लालू कुनबे तक सिमटकर रह गई है। लालू यादव खुद भ्रष्टाचार के मामले में सजा काट रहे हैं। पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को दरकिनार कर लालू के छोटे बेटे तेजस्वी यादव को पार्टी की कमान दी गई थी। चुनाव में ऐसी हार के बाद भी पार्टी नेतृत्व पर कोई सवाल उठे, इसकी उम्मीद बहुत कम है।

मुलायम परिवार के चार सदस्यों को हार का सामना करना पड़ा। कन्नौज सीट पर अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव, बदायूं से अखिलेश यादव के चचेरे भाई धर्मेंद्र यादव, फिरोजाबाद सीट से अखिलेश यादव के चाचा शिवपाल यादव और चचेरे भाई अक्षय यादव चुनाव हार गए। अक्षय यादव सपा से तो शिवपाल यादव अपनी नवगठित प्रतिशील समाजवादी पार्टी (लोहिया) उम्मीदवार के तौर पर आमनेसा मने थे। दोनों की लड़ाई में भाजपा चुनाव जीत गई।

साख और सियासत, दोनों गई

वंशवाद की राजनीति के चलते राष्ट्रीय लोकदल सुप्रीमो चौधरी अजित सिंह ऊपर तो चढ़े लेकिन साख गंवाकर इतने फिसले कि अब सियासत में शायद ही कोई पूछ हो। कभी 70 के दशक में चौधरी चरण सिंह जाटों के सबसे बड़े नेता माने जाते थे और प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे। अमेरिका से पढ़ाई कर लौटे उनके बेटे चौधरी अजित सिंह ने उनकी राजनीतिक विरासत संभाली। तकरीबन बीस वर्षों तक चौधरी अजित सिंह ने पोशाक की तरह से राजनीतिक साझीदार और राजनीतिक निष्ठाएं बदलकर अपनी राजनीतिक साख धूमिल कर ली। वे हर चुनाव में चार-पांच सीटें हासिल कर विभिन्न सरकारों में ओहदा हासिल करते रहे क्योंकि तब गठबंधन की राजनीति का दौर था। 1989 में वीपी सरकार, 1991 में नरसिम्हा राव सरकार, 1999 में वाजपेयी सरकार और 2011 में मनमोहन सिंह की सरकार में चौधरी अजित सिंह मंत्री रहे।

हारे सबके ‘लाल’

सियासत में वंशवाद की अमरबेल हरियाणा की राजनीति में खूब फली- फूली लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव ने इन सभी लालों को धूल चटा दी। हरियाणा के तीन लाल- देवीलाल, बंसीलाल और भजनलाल के अलावा हुड्डा परिवार भी हार से बच नही पाया। पूर्व उप प्रधानमंत्री देवीलाल के तीन पोते चुनाव लड़े और हारे। दुष्यंत चौटाला हिसार, अर्जुन चौटाला कुरुक्षेत्र तो दिग्विजय चौटाला सोनीपत सीट से परास्त हो गए। वहीं, भजनलाल के पोते भव्य विश्नोई तो हिसार सीट पर तीसरे नंबर पर रहे। जबकि भिवानी सीट पर बंसीलाल की पोती श्रुति चौधरी भी परास्त हो गईं। हुड्डा पिता-पुत्र की जोड़ी को भी हार का सामना करना पड़ा। पूर्व मुख्यमंत्री भूपेद्र सिंह हुड्डा सोनीपत तो उनके बेटे दीपेंद्र हुड्डा रोहतक से चुनाव हार गए।

 

2014 के चुनाव में जब वे बागपत सीट से भाजपा के सत्यपाल सिंह से चुनाव हार गए तो उनकी राजनीतिक जमीन खिसकती गई। 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान उन्होंने जिस भी दल से समझौते की पेशकश की, उन दलों ने विलय की शर्त रख दी। ताजा चुनाव में वे समाजवादी पार्टी-बसपा से गठबंधन में कामयाब तो रहे लेकिन जनता ने मुजμफरनगर सीट से चौधरी अजित सिंह और बागपत लोकसभा सीट से उनके पुत्र जयंत चौधरी, दोनों को खारिज कर दिया।j

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