राजनीति की नई दिशा

बनवारी

इन आम चुनावों में नरेंद्र मोदी की विजय अनेक अर्थों में ऐतिहासिक है। यह विजय उन्हें अपने पिछले पांच वर्षों के शासन की नीतियों के आधार पर, नेतृत्व क्षमता के आधार पर और कठिनाई के समय साहसिक निर्णय करने के आधार पर मिली है। इस रूप में उनकी यह जीत अद्वितीय है। क्योंकि 1947 के बाद हुए आम चुनावों में किसी दूसरे नेता को इन सब आधारों पर फिर से सत्ता में पहुंचने का अवसर प्राप्त नहीं हुआ था। उनकी लोकप्रियता की तुलना जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी से की जा सकती है। नि:संदेह कांग्रेस के इन दोनों नेताओं की लोकप्रिय छवि थी। उन्हें देश के कोने-कोने में लोग जानते थे। लेकिन जवाहर लाल नेहरू की लोकप्रियता उनके शासन के दौरान नहीं बनी थी। देश के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान पैदा हुई थी।

राहुल गांधी ने कहा कि यह दो दलों की नहीं दो विचारधाराओं की लड़ाई थी। इन चुनावों में देश की जनता ने नरेंद्र मोदी की विचारधारा के पक्ष में वोट दिया है। उन्होंने घोषित किया कि वे अपने विचारों के लिए लड़ते रहेंगे और जीतेंगे। राहुल गांधी के शिष्टतापूर्वक प्रकट किए गए इस संकल्प के पूरा होने की अलबत्ता कम ही संभावना है।

स्वतंत्रता संग्राम जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में नहीं लड़ा गया था, महात्मा गांधी के नेतृत्व में लड़ा गया था। जवाहर लाल नेहरू महात्मा गांधी के नेतृत्व कौशल से तो प्रभावित थे, पर वे उनके विचारों से प्रभावित नहीं थे। नेहरू द्वारा मतभेद व्यक्त किए जाने पर महात्मा गांधी ने उन्हें सार्वजनिक रूप से अपना अलग रास्ता चुनने की सलाह दी थी। लेकिन नेहरू की महात्मा गांधी के जीवित रहते ऐसा करने की हिम्मत नहीं हुई। 1947 में प्रधानमंत्री बनने, महात्मा गांधी की हत्या और सरदार पटेल की मृत्यु के बाद जवाहर लाल नेहरू को मौका मिला और उन्होंने गांधी की खड़ी की गई कांग्रेस को नेहरू कांग्रेस में बदल दिया। नरेंद्र मोदी ने अपनी विजय की व्याख्या करते हुए कहा है कि इस चुनाव में देश के लोगों को परिवारवाद से मुक्ति मिल गई है। यह इस विजय की अधूरी व्याख्या ही है।

नरेंद्र मोदी की इस जीत ने नेहरू-इंदिरागांधी परिवार की सत्ता में वापसी की संभावना को काफी क्षीण कर दिया है। पर उससे बड़ी बात यह है कि उन्होंने भारतीय राजनीति को नेहरूवादी आग्रहों से मुक्त कर दिया है। उसकी जो दिशा महात्मा गांधी ने निश्चित की थी, आंशिक रूप से ही सही, वह उस दिशा में लौट आई है। नरेंद्र मोदी ने इस विजय का श्रेय स्वयं लेने के बजाय उचित ही देश के साधारण लोगों की राजनैतिक बुद्धि को दिया है। स्वयं भारतीय जनता पार्टी में भी किसी को यह विश्वास नहीं था कि जब आम चुनाव के परिणाम आएंगे तो भाजपा के सांसदों की संख्या तीन सौ से पार होगी और भाजपा के गठबंधन की संख्या 350 के पार होगी। अपनी चुनावी रैलियों के उत्तरार्द्ध में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहना आरंभ किया था कि भाजपा के सांसदों की संख्या 300 से पार हो जाएगी। लेकिन उन्हीं दिनों राम माधव ने कहा कि अगर भाजपा अपने बल पर बहुमत नहीं पा सकी तो वह सहयोगी दलों के समर्थन से सरकार बना लेगी। बहुमत से पीछे रह जाने की आशंका राम माधव के अलावा भी अनेक नेताओं में थी।

जनता जनार्दन ने भारतीय जनता पार्टी को केवल बहुमत देकर दोबारा सत्ता में नहीं भेजा, यद्यपि यह भी 1984 के बाद पहली बार हुआ, बल्कि लगभग डेढ़ दर्जन राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में भारतीय जनता पार्टी को इतने वोट मिले कि पूरा विपक्ष एकजुट हो जाता तो भी भारतीय जनता पार्टी को हरा पाना मुश्किल था। विपक्ष के जो लोग मोदी के सत्ता में फिर से लौटने को कठिन मान रहे थे और अंतिम समय तक ईवीएम से छेड़छाड़ की आशंकाएं व्यक्त कर रहे थे, चुनाव परिणामों के बाद बिल्कुल ठंडे पड़ गए। भारतीय जनता पार्टी की मुख्य प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस 19 प्रांतों और केंद्र शासत प्रदेशों में अपना खाता भी नहीं खोल पाई। उसे कुल 52 सीटें मिली हैं और उनमें भी अधिकांश केरल, तमिलनाडु और पंजाब से हैं। केरल से उसे 15 और तमिलनाडु और पंजाब से आठ-आठ सीट न मिली होती तो इस चुनाव में उसके सांसदों की संख्या दो दर्जन भी पार न कर पाई होती। हिन्दी प्रदेश के जिन तीन राज्यों में छह महीने पहले उसकी सरकारें बनी थीं। वहां वह केवल तीन सीट जीत पाई। छत्तीसगढ़ में दो और मध्यप्रदेश में एक। इन चुनावों में कांग्रेस को अधिकांश राज्यों से इक्का-दुक्का सीटें ही मिली हैं। उसके अधिकांश सांसद केवल केरल, तमिलनाडु और पंजाब से ही जीते हैं। पर इन राज्यों में भी उसकी विजय संयोग ही है।

केरल में मार्क्सवादी पार्टी ने शबरीमला की परंपराओं से छेड़छाड़ करके अपने पैरों पर स्वयं कुल्हाड़ी मारी थी। केरल की लगभग आधी आबादी मुस्लिम और ईसाई है। इसलिए भाजपा अब तक वहां अपनी जड़े नहीं फैला पाई। स्वाभाविक ही था कि मार्क्सवादियों की गलती का लाभ कांग्रेस को मिलता। केरल की दो सीट छोड़कर कांग्रेस खेमा सभी सीट जीतने में सफल हो गया। राहुल गांधी के वायनाड जाने का कुछ असर पड़ा होगा, पर वे वहां से चुनाव न लड़े होते तो भी केरल का चुनाव परिणाम कुछ भिन्न न रहा होता। तमिलनाडु में जयललिता की मृत्यु ने अन्नाद्रमुक को अंर्तकलह की ओर धकेला और उसने अपना जनसमर्थन खो दिया। द्रमुक भी करूणानिधि के बिना चुनाव में उतरी थी पर वह चुनाव में एकजुट थी, इसलिए उसका गठबंधन सभी सीट जीत गया। द्रमुक अपनी लड़ी सभी सीटें जीत गई। केवल कांग्रेस गठबंधन में मिली 9 सीटों में से एक नहीं जीत पाई। पंजाब में नवजोत सिद्धू को आगे करके कांग्रेस के नेतृत्व ने भी अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने की कोशिश की थी। लेकिन दस वर्ष के अकाली शासन से वितृष्णा के कारण और कैप्टन अमरिंदर सिंह के कुशल नेतृत्व के कारण कांग्रेस की नैया पार लग गई।

पिछले एक वर्ष में देश के चार महत्वपूर्ण राज्यों में अपनी सरकारें बनवाने के बावजूद कांगे्रस इन चुनावों में अपना मत प्रतिशत नहीं बढ़ा पाई। उसका मत प्रतिशत इस बार भी 20 के आसपास ही रहा है। दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी अपना मत प्रतिशत बढ़ाने और अपनी देशव्यापी उपस्थिति सुनिश्चित करने में सफल रही है। इन चुनावों में उसकी सबसे उल्लेखनीय उपलब्धि पश्चिम बंगाल और उड़ीसा में बड़ी संख्या में सीटें जीतना है। पश्चिम बंगाल में वह दो वर्ष बाद होने वाले विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी को बेदखल करके राज्य की सत्ता में पहुंचने का सपना देखने लगी है। पिछले पंचायत चुनाव में वह राज्य की प्रमुख प्रतिद्वंद्वी शक्ति होकर उभरी थी और उसे 18 प्रतिशत वोट मिले थे। इन चुनावों में उसने उन्हें दोगुना कर लिया है।

राज्य में कांग्रेस और मार्क्सवादियों का सांगठनिक आधार लगभग समूचा खिसककर भाजपा के पास आ रहा है। इन चुनावों में भाजपा को समर्थन देते हुए यह नारा दीवारों पर मार्क्सवादी ही लिख रहे थे कि ममता उन्नीसे हाफ, इक्कीसे साफ। हालांकि इन दोनों राज्यों में अभी भाजपा के पास ऐसा नेतृत्व नहीं है, जो ममता और नवीन पटनायक का विकल्प बन सके। यही कारण है कि इस बार राज्य के विधानसभा चुनाव में बीजू जनता दल फिर बहुमत पा गया और नवीन पटनायक पांचवीं अवधि के लिए मुख्यमंत्री बने। नवीन पटनायक भी अब 72 वर्ष के हो चुके हैं और उनका स्वास्थ्य उनके लिए कठिनाई पैदा कर रहा है। इस नाते भविष्य भाजपा का ही है। कांग्रेस कब की मैदान से बाहर हो चुकी है। भाजपा के लिए अब केवल तीन राज्य बचे हैं, जहां उसकी अधिक पैठ नहीं दिखाई देती। वे हैं केरल, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश। आंध्र में फिर भी उसका संगठन है। लेकिन केरल और तमिलनाडु में उसे कठिन चुनौती का सामना करना है। इन चुनावों में भाजपा को इतनी विशाल जीत किन कारणों से मिली है, इसकी काफी मीमांसा हो चुकी है।

अधिकांश लोगों का कहना है कि यह चुनाव नरेंद्र मोदी के नेतृत्व पर जनमत संग्रह जैसा हो गया था। देश के लोगों को लगा कि इस समय देश में नरेंद्र मोदी का कोई विकल्प नहीं है। इसलिए उन्हें लगभग एकतरफा समर्थन मिला। इस तर्क में आंशिक सच्चाई है। शासन में नेतृत्व की केंद्रीय भूमिका होती है। इसलिए चुनाव के समय नेतृत्व की क्षमता और विश्वसनीयता की कसौटी होती है। यह भी सही है कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी निरंतर अपने आपको अक्षम और अयोग्य ही नहीं, हंसी का पात्र भी सिद्ध करते रहे। इसलिए वे नरेंद्र मोदी को कोई चुनौती देने की स्थिति में नहीं थे। प्रधानमंत्री बनने की लालसा लिए बैठे राज्यस्तरीय नेता भी विकल्प नहीं हो सकते थे। उनमें से कोई सर्वमान्य नेता होकर उभरने की स्थिति में नहीं था। भारत के लोग राजनैतिक रूप से इतने परिपक्व हैं कि वे दस या बीस सांसद जुटाने लायक दलों के गठजोड़ को देश नहीं सौंप सकते थे। नरेंद्र मोदी में भी उन्होंने कोई अंधभक्ति नहीं दिखाई। जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए, उनमें सक्षम क्षेत्रीय नेतृत्व ही सफल हुआ।

नवीन पटनायक से लगाकर जगन रेड्डी तक इसी का उदाहरण हैं। आंध्र में इस बार भाजपा को कुछ नहीं मिला, लेकिन तेलंगाना में वह चार सीट जीतने में सफल रही। दक्षिण में कर्नाटक और तेलंगाना तक वह अपना विस्तार कर पाई है। उसके आगे उसे करना है। अगले पांच वर्ष तक वह इसी को लक्ष्य बनाने की कोशिश करेगी। उसका यह आरोहण काल है। नरेंद्र मोदी के संकल्प और ऊर्जा को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि यह आरोहरण काल अभी पांच वर्ष से अधिक ही चलने वाला है। इन चुनावों में भारतीय जनता पार्टी की उपलब्धि केवल तीन सौ के पार सांसद जिता लाना ही नहीं है। चुनाव में अपनी और अपनी पार्टी की पराजय के बाद राहुल गांधी ने अब तक का शायद सबसे संयत और अर्थपूर्ण वक्तव्य देते हुए प्रेस वार्ता में कहा कि यह दो दलों की नहीं दो विचारधाराओं की लड़ाई थी।

इन चुनावों में देश की जनता ने नरेंद्र मोदी की विचारधारा के पक्ष में वोट दिया है। हम उसे स्वीकार करते हैं। उन्होंने घोषित किया कि वे अपने विचारों के लिए लड़ते रहेंगे और जीतेंगे। राहुल गांधी के शिष्टतापूर्वक प्रकट किए गए इस संकल्प के पूरा होने की अलबत्ता कम ही संभावना है। इस चुनाव में उनकी पार्टी का ही नहीं, उनकी विचारधारा का भी अवसान हो गया है। कांग्रेस की विचारधारा ही अब तक उसके रास्ते की सबसे बड़ी बाधा रही है। जवाहर लाल नेहरू ने महात्मा गांधी की खड़ी की गई कांग्रेस को अपने विचारों के अनुरूप ढालने के लिए राष्ट्रीय आंदोलन में उभरी नेतृत्व की पूरी पीढ़ी को धीरे-धीरे शक्तिहीन कर दिया था। देश की आजादी के समय राष्ट्रीय नेतृत्व में ही नहीं, राज्यों में भी सभी तपे- तपाए कद्दावर नेता थे। उनमें से कोई नेहरू से कम नहीं था।

नेहरू ने सबको योजनापूर्वक किनारे किया। उसके बाद ही नेहरू-इंदिरा गांधी परिवार कांग्रेस की धुरी बन पाया और वह नेहरू के यूरोप प्रेम से उपजे विचारों को भारतीय समाज पर थोपे रहा। नरेंद्र मोदी का उभार इन विचारों से मोहभंग के समानांतर हुआ। इसलिए नरेंद्र मोदी देश की राजनीति की दिशा को आसानी से भारतीय सभ्यता की ओर मोड़ने में सफल हो पाए। चुनाव परिणाम आने के बाद अपने मुख्यालय में पार्टी के कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए नरेंद्र मोदी ने इस परिवर्तन का उल्लेख करते हुए कहा कि इन चुनावों में कोई सेक्यूलरिज्म का झंडा लहराता हुआ दिखाई नहीं दिया। इससे पहले के चुनावों में सबसे अधिक दुहाई सेक्यूलरिज्म की ही दी जाती थी। इन चुनावों में नरेंद्र मोदी की सफलता ने और भी कारण गिनाए गए हैं।

स्वयं नरेंद्र मोदी ने अपने चुनाव अभियान के दौरान और चुनाव परिणाम आने के बाद भी अपनी उन सभी योजनाओं को गिनाने में अधिक दिलचस्पी ली, जिनके कारण देश के बहुसंख्यक साधनहीन या अल्पसाधन आबादी को कुछ मूलभूत सुविधाएं प्राप्त हुई हैं। यह सही है कि आज राज्यतंत्र के पास साधन भी अधिक हैं और ऐसी प्रौद्योगिकी भी जो मूलभूत सुविधाओं को थोड़े से समय में देश की बड़ी संख्या तक पहुंचा सकती है। लेकिन साधन और प्रौद्योगिकी से अधिक महत्वपूर्ण राजनैतिक संकल्प होता है। नरेंद्र मोदी ने यह नीतियां चुनाव के समय या चुनाव जीतने को ध्यान में रखकर नहीं बनाई थी। वे उनके पांच वर्ष के शासन की उपलब्धियां हैं। ऐसी समयबद्ध उपलब्धियां वही दिखा सकता है, जिसने अपने आपको देश और समाज के साथ एकात्म कर रखा हो।

कांग्रेस के शासनकाल में नीतियां कम नहीं बनीं, पर उन पर कभी ठीक से और तेजी से अमल नहीं हो पाया। क्योंकि कांग्रेस नेतृत्व में वैचारिक प्रतिबद्धता और सामाजिक प्रतिबद्धता दोनों ही क्षीण थी। उस क्षीणता से वैसा संकल्प नहीं उभर सकता था, जैसा नरेंद्र मोदी में उभरा। यही बात बालाकोट की कार्रवाई के बारे में कही जा सकती है। चुनाव अभियान के दौरान उसका श्रेय सेना तक सीमित रखने की बात कही गई। पर सेना तो सदा ही उसके लिए तैयार थी। कांग्रेस के लिए नेतृत्व में संकल्प नहीं था, जोखिम लेने की क्षमता नहीं थी। नेतृत्व का आकलन तो इस तरह के संकल्प से ही होता है। नरेंद्र मोदी ने वह दिखाया। इसलिए यह चुनाव परिणाम देश के लोगों द्वारा नरेंद्र मोदी के नेतृत्व के संपूर्ण आकलन से आए हैं, उनकी किसी एक नीति या निर्णय से नहीं आए। यही बात देश की राजनीति में उनकी दीर्घकालिक सफलता सुनिश्चित करने वाली सिद्ध होगी।

 

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