मीडिया के इस दौर में पत्रकार के रूप में गांधी को याद करती पुस्तक ‘गांधी की पत्रकारिता’

विजया लक्ष्मी

गांधी जी की पत्रकारिता को समझाने वाली पुस्तक ‘गांधी की पत्रकारिता’ छप कर आ गई है। इसे प्रज्ञा संस्थान के लोकनीति केन्द्र ने तैयार किया है और के.एल.पचौरी प्रकाशन ने छापा है। इसमें चौदह विद्वानो पत्रकारों और समाजकर्मियों का लेख और बातचीत है। इससे एक पत्रकार के रूप में गांधी जी को समझा जा सकता है। महात्मा गांधी राजनीति में चैबीस घंटे निमग्न रहते हुए भी राजनीतिक व्यक्ति नहीं थे। इसी तरह उन्होंने अनेक पत्र-पत्रिकाएं निकालीं, लेकिन वे पत्रकार नहीं थे। जैसे उन्होंने राजनीति को नया स्वरूप दिया, उसे भारतीय मूल्यों और मान्यताओं से जोड़ा, उसी तरह उन्होंने पत्राकारिता को नया स्वरूप दिया, उसे भारतीय मूल्यों और मान्यताओं से जोड़ा।

दक्षिण अफ्रीका में उनकी पत्रिकाएं आश्रम जीवन, आत्मनिर्भरता, स्वास्थ्य, नैतिक जीवन, सामाजिक कार्य, अनुचित सरकारी कानून और उनके विरुध सत्याग्रह की जानकारी से भरी रहती थीं। इंडियन ओपिनियन का हर अंक इन विविध विषयों की मूल्यवान जानकारी से भरा हुआ होता था। भारत में आने के बाद उन्होंने जिन पत्रों का संपादन अपने हाथ लिया उनकी सामग्री और भी विशद थी। यंग इंडिया, नवजीवन या हरिजन के अंकों में आप भारतीय समाज और सभ्यता के बारे में जितनी सामग्री पाएंगे उतनी और कहीं उपलब्ध नहीं थी। उस सामग्री पर सरसरी निगाह डालकर ही आप समझ जाएंगे कि वह एक साथ ही नैतिक भी थी, सामाजिक भी और राजनैतिक भी।

‘गांधी की पत्रकारिता’ पुस्तक में आगे महात्मा गांधी की पत्राकारिता पर पंद्रह विद्वानों विचारकों की लेख या वार्ताएं हैं। इन लेखों में महात्मा गांधी की पत्राकारिता के लगभग सभी पहलुओं पर बहुत विस्तार से बात हुई है। इस विषय पर इतनी महत्वपूर्ण सामग्री अन्यत्र दुर्लभ होगी। इसमें जानेमाने पत्रकार अच्युतानंद मिश्र, रामबहादुर राय, अरविंद मोहन, इसाबेल हाफ्मायर, बनवारी, प्रो. आनंद कुमार, जवाहरलाल कौल रामशरण जोशी, एन.के सिंह के साथ ही सोपान जोशी ने भी गांधी जी के पत्रकारीय पक्ष को समझाने की कोशिश की है। इन सब विद्वानो ने महात्मा गांधी की पत्राकारिता के बारे में जो कुछ कहा जा सकता है, कहा है। साथ ही उन्होंने एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठाया है। क्या आज की पत्राकारिता को उस दिशा में मोड़ा जा सकता है जिस दिशा में महात्मा गांधी ने पत्राकारिता को मोड़ा था? अधिकांश विद्वानों ने आज की पत्राकारिता की कठिनाईयां गिनाते हुए यह निष्कर्ष निकाला है कि यह व्यापार का युग है। छपाई आदि की तकनीक में जो परिवर्तन हुए हैं उससे वह बहुत महंगी हो गई है। उसके लिए बड़ी पूंजी की आवश्यकता होती है। पूंजी लगाने वाले मुनाफा बटोरने के लिए उसका इस्तेमाल करते हैं। इसलिए वह किसी बड़े सामाजिक उद्देश्य या नैतिक मूल्यों को सामने रखकर नहीं चल सकती। जिस तरह हमारी राजनीति चिरपरिचित पश्चिमी स्वरूप में ढल गई है, उसी तरह पत्राकारिता उसी राजनीति का माध्यम बनी हुई है। एक लेख में यह टिप्पणी भी की गई है कि अगर आज गांधी जी होते तो अपनी पत्राकारिता के लिए शायद ही कोई गुंजाइश देख पाते।

जिस तरह महात्मा गांधी ने अपने उद्देश्य के माध्यम के रूप में पत्र-पत्रिकाओं का उपयोग किया था, उसी तरह आज भी उनका उपयोग किया जा सकता है। कुछ समय पहले तक साहित्य या राजनीतिक विचारधारा के प्रसार के लिए काफी पत्रिकाएं निकलती थी। वह अधिकांश पत्रिकाएं धीरे धीरे बंद हो गई क्योंकि जिस तरह के साहित्य या विचारधाराओं को प्रसारित करने का वे माध्यम थीं उनकी समाज को कोई उपयोगिता दिखाई नहीं दी। वे पश्चिम के प्रभावों की वाहक मात्र थीं। लेकिन ऐसी पत्रिकाओं की सदा गुंजाइश रहेगी जिनमें समाज अपने जीवन और सभ्यता वेफ आदर्शा की झलक देखता हो। महात्मा गांधी के पत्र और पत्रिकाएं ऐसी ही थी,इसलिए वे लोकप्रिय होती रहीं। निश्चय ही छपाई के स्वरूप में जो परिवर्तन हुए हैं उससे वे महंगी हुई हैं। लेकिन कुछ सुविधाएं भी बढ़ी हैं।

महात्मा गांधी की जैसी पत्रकारिता पेशेवर लोगों के लिए संभव नहीं है। लेकिन समाज के बारे में जानने समझने वाले लोग प्रयत्नशील हो तो सोद्देश्य पत्रिकाएं निकल सकती हैं। उसके लिए उन लोगों को सामने आना होगा जो इसे एक सामाजिक कार्य समझते हुए बिना किसी आर्थिक अपेक्षा के सहयोग करने के लिए तैयार हैं। हिंदी क्षेत्र में ही तीस ऐसे नगर होंगे जिनमें ऐसे हजार दो हजार लोग जुटाए जा सकते हैं जो पत्रिका के लिए निरंतर आर्थिक सहयोग भी करें, उसके लेखक, पाठक भी हों और उसके प्रसार प्रचार में भी योगदान दें। यह भ्रम है कि समाज में रंगीन और मंहगी छपाई ही ग्राह्य होती है। सादगी का अपना आकर्षण होता है। पत्रिकाओं की सामग्री अवश्य ऐसी हो जिसमें समाज का आगे का मार्ग दिखता हो और उसकी अपनी मान्यताओं का उसमें दिग्दर्शन हो। विपरित परिस्थितियों में ही गांधी खड़े हुए थे। उनकी पत्रकारिता भी। उनमें संकल्प था। वैसा संकल्प हो तो ऐसी पत्राकारिता की गुंजाइश सदा रहेगी। अगर आप पत्राकारिता को पूरे समाज के मंगल की भावना से जोड़ सके तो वह गांधी जी जैसी पत्राकारिता ही होगी।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Name *