भारत के शक्तिकेन्द्र गांवों को समझें

प्रदीप कौर आर्या

कोरोना के कहर से हर कोई अपने घरों में हैं। वो लोग जो महानगरों की चमक दमक से प्रभावित होकर गांव छोड़ गए थे वे वापस आ रहे हैं। यह देश तो सदियों से गांवों का देश रहा है। यहां की पूरी व्यवस्था गांवों पर टिकी थी। आर्थिक, सामाजिक या फिर राजनीतिक। व्यवस्था के केन्द्र गांव था। आज के इस दौर में एक बार ठहरकर सोचे कि गांव का हमारे लिए अर्थ क्या रह गया है? आज लोगों की बातचीत से लगता है कि गांव का अर्थ लोगों में काफी संकुचित हो गया है। जो ग्राम स्वराज्य का अर्थ था वह अब लोगों में नही है। गांव का अर्थ हमारे यहां संपूर्ण समाज रहा है। गांव समाज की ऐसी छोटी इकाई है जो अपने भीतर समाज की पूरी विशेषताएं समेटे हुए है। गांव किसी भी तरह से अधूरे नही रहे। यही उनका स्वराज्य था।

अंग्रेजों ने अपने यहां के गांव के आधार पर भारत में भी गांवों की भी तस्वीर बदली। उनके यहां गांव काफी निर्बल थे। वह शक्ति और विशेषज्ञता के केन्द्र नहीं थे। अंग्रेजों के यहां तो शक्ति शहरों में केन्द्रित रही। उनके गांव तो किसानों के लिए सिर्फ खेती करने के लिए ही थे। अंग्रेजों के यहां के गांव शहरों पर आश्रित थे। जबकि भारत में अंग्रेजों को निर्बल नहीं बल्कि सक्षम गांव मिले। भारत के गांवों में सब तरह की विशेज्ञता हासिल थी। लोहे ढालने वालों से लेकर सर्जरी करने वाले हुनरमंद भारत के गांवों मे थे। समाज की सभी जरूरते पूरी करने वाले उद्योग धंधे गांवों में थे। शास्त्रों के ऊंचे पंडित और आयुर्वेद के सिद्ध चिकित्सक गांवों में ही पाये जाते थे। शिक्षा के केन्द्र भी भारत के गांव ही थे। संस्थाओं का केन्द्र भी गांवों में ही होता था।

ऐसा नहीं की भारत में शहरों की कमी रही। यूरोप से ज्यादा ही शहर भारत में थे। लेकिन भारत के शहरों का अर्थ और उद्देश्य यूरोप के शहरों से अलग रहा। वे गांवों पर शासन करने वाले संभ्रांत समाज का केन्द्र नहीं रहे। भारत में ज्यादातर शहर या तो तीर्थों में रहे या बड़ी मंडियों के रूप में। राजा या उसका तंत्र भी शहर में रहता दिखाई दे सकता है। लेकिन गांवों और शहरों का यह रिश्ता नहीं था कि शहर गांव को नियंत्रित करे। अंग्रजों ने भारत के गांवों की शक्ति किस प्रकार कम की इसकी आज तक हमने पडताल नहीं की। गांवों की छवि करने के लिए समाज को तीन स्तरों पर विभाजित कर दिया गया। पहले समाज को राज्य से अलग किया गया। राज्य को ऐसी संस्था बना दिया गया जो समाज से ऊपर हो। उसके बाद गांव की विशेषज्ञता को शक्तिशाली संस्थाओं को राज्य के इर्द गिर्द इकठ्ठा करके शहरों को शक्तिकेन्द्र बनाया। इस तरह शहर और गांव का विभाजन हो गया। फिर शहरों का गांव पर नियंत्रण हासिल हो गया। फिर गांव के उद्योग धंधों को उजाड़कर शहरों मे बड़े उद्योग लगाए गए। इन तीन तरह के विभाजन ने गांवों को निर्बल बना दिया। मतलब पूरी व्यवस्था का केन्द्रीकरण।

हमारे गांव की व्यवस्था में उत्पादन तो यज्ञ की तरह है। जिसमें सृष्टि की सभी शक्तियां सहायक होती है। उत्पादन में भी समाज और प्रकृति का अनेक तरह से योगदान होता है। इसलिए यह ध्यान रखना जरूरी है कि प्रकृति से जो लिया है उतना उसे वापस भी कर दिया जाए। इसके साथ ही समाज की विभिन्न भूमिकाओं मे रहने वालों को भी उनका भाग मिल जाए। हमारी मान्यता रही है कि सृष्टि के सभी साधन परमात्मा के हैं। उन पर किसी भौतिक शक्ति का सर्वाधिकार नहीं है। इसलिए समाज के सभी लोगों का उत्पादन मे अपना अपना भाग है किसी का उस पर अनिवार्य नियंत्रण नहीं। आज भी बहुत कुछ गावों में बचा है। अपने गांव को समझे, जाने और फिर से अपने गांवों को संवारे। असली स्वराज्य तभी संभव है।

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