भारत की जड़ें तो गांवों में हैं

ओम प्रकाश तिवारी

 

कोरोना महामारी बाजारपरस्त वैश्वीकरण का नया संस्करण है या उसका अंत? यह विमर्श का मुद्दा हो सकता है, लेकिन एक बात स्पष्ट हो गई है कि ग्राम गणराज्य में ही भारत का सुनहरा भविष्य है। इसकी जड़ें आज भी हमारे गांवों में है। बस उन्हें खाद-पानी देने की आवश्यकता है। वे जल्द ही लहलहा उठेंगी।

महात्मा गांधी ने आजादी के पूर्व ग्राम गणराज्य की कल्पना की थी। वे आजादी का असली अर्थ गांवों की समरसता, आत्मनिर्भरता और लोकतंत्र में व्यापक लोकभागीदारी को मानते थे। दुर्भाग्य है कि आजादी के बाद नीति नियंताओं ने इस पर ठोस पहल नहीं की। ग्राम पंचायतों का मौजूदा ढांचा ग्राम गणराज्य की परिकल्पना को साकार नहीं कर सकता।

गांधी जी की ग्राम गणराज्य की परिकल्पना दरअसल,हजारों वर्ष पूर्व के हमारे ग्राम गणराज्यों के मूल्यों पर आधारित थे। ग्राम गणराज्य प्राचीन भारत में मौजूद थे। वैशाली में यह व्यवस्था तब थी जब दुनिया के अन्य देशों में इसकी कल्पना तक नहीं की गई थी। विश्व के कथित विख्याात प्राचीनतम गणतंत्रों से भी पहले।

वर्तमान पंचायती राज व्यवस्था, जिसे ग्राम स्वराज की संज्ञा दी जाती है, वह वास्तव में ग्राम स्वराज नहीं है। ग्राम गणराज्य या ग्राम स्वराज वस्तुतः सत्ता को जनता के हाथों में देने की संकल्पना से जुड़ी है। गांधी जी की नजर में गांव गणतंत्र के लघु रूप थे, जिनकी बुनियाद पर देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था की इमारत खड़ी होनी थी। गांधी ने अपने इस सपने को ग्राम स्वराज्य के रूप में परिभाषित किया था। उन्होंने आत्मनिर्भर और स्वायत्त ग्राम गणराज्य का विचार इसलिए रखा था कि जनता अपनी किस्मत का खुद फैसला करे, खुद अपने पर शासन करे, खुद अपनी अर्थव्यवस्था चलाये और उसे बाहर के मशविरे और हस्तक्षेप पर निर्भर न रहना पड़े।

वर्तमान पंचायती राज की मूल अवधारणा भी कागजी तौर पर स्थानीय योजनाओं में आम लोगों की भागीदारी है। गांवों को सक्षम बनाने के लिये बना पंचायत उपबन्ध अधिनियम, 1996 : भारतीय संविधान का अनुच्छेद 243 ड (4) (ख) संसद को कानून बनाने और उसे अनुसूचित एवं जनजातीय क्षेत्रों में विस्तारित करने का अधिकार प्रदान करता है। इस शक्ति का प्रयोग करते हुए संसद द्वारा पंचायत उपबन्ध (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम, 1996 बनाया गया। संविधान के 73वें संशोधन के बाद पंचायत राज व्यवस्था की नींव रखी गयी़। राज्य के विकास के लिए त्रिस्तरीय व्यवस्था की गयी। स्वास्थ्य, शिक्षा, सड़क, पेयजल, कृषि, स्वरोजगार जैसी मूलभूत सुविधाएं पंचायतों को प्रदान करने का ढीला ढाला प्रयास किया गया़। यह उम्मीद की गयी थी कि इस व्यवस्था के लागू होने से गांवों में विकास को गति मिलेगी। संविधान संशोधन के बाद यह संभावना प्रबल हुई है कि गांवों की तस्वीर में काफी बदलाव देखने को मिलेगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। पंचायती व्यवस्था ठीक से काम नहीं कर रही है। पंचायत के पास न तो अपना प्रशासन है, न वित्तीय अधिकार और न ही विधायी तंत्र। सारी शक्तियां और अधिकार राज्य सरकार व उसके अधिकारियों के पास है। जब तक गांवों का अपना खुद का प्रशासन नहीं होगा तब तक ग्राम गणराज्य की बात करना छलावा मात्र ही रह जायेगी। पंचायतो को जो स्वायत्तता और संसाधन मिलने चाहिए थे वे नहीं मिल पाए हैं, पंचायतें मजबूर और पराधीन हैं।

वर्तमान पंचायती व्यवस्था में ऊपर से निर्णय होते है, नीचे से नहीं। पैसा जनता का और तय करता है नौकरशाह। यह जनता के बीच तय होना चाहिए। दुर्भाग्य है कि पंचायती राज व्यवस्था नौकरशाही में बदल गयी है। पंचायतों को सशक्त बनाने के लिए ठोस कदम नहीं उठाए गये। इसे सशक्त बनाना आवश्यक है।

भारत गांव, कस्बों और नगरों का एक विशाल ढांचा है। देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा आज भी गांवों में रहता है। जब गांव बदलेगा तभी देश की तस्वीर भी बदलेगी। आजाद भारत की सरकारों ने विकास का जो मॉडल अपनाया था उससे आजादी के सात दशकों में गांवों की हालत लगातार बद से बदतर होती गई। गांवों का मूलाधार है खेती और उस पर आधारित लघु उद्योग, लेकिन देश की विकास नीतियां इनके लिए घातक साबित हुई हैं। आजादी के बाद आयी तमाम सरकारों की प्राथमिकताओं में खेती-बाड़ी की जगह काफी नीचे रही। खेती अब मुनाफे का धंधा कतई नहीं रह गई है। किसान ख़ुदकुशी करने को मजबूर हो गये है।

सत्ता के विकेंद्रीकरण के नारों से लोगों को यह भरोसा हुआ कि अब गाँव में अपनी सरकार होगी। सत्ता की बागडोर गाँव के लोगों के हाथों में होगी। गाँव के फैसले गाँव में लिए जाएंगे। गांवों की तस्वीर बदल जायेगी, मगर ऐसा नहीं हुआ। आज भी हमारे गांवों में आवश्यक बुनियादी चीजें नहीं हैं। हालांकि विकास की कीमत भी गांवों को ही चुकानी पड़ी है। गांव के छोटे-मोटे उद्योग-धंधे और व्यवसाय चौपट हो गए। गाँवों में न तो ढंग के स्कूल बन पाए, न अस्पताल और न ही शौचालय। बदहाली और मजबूरी के इसी माहौल के चलते गांवों से लोगों के पलायन का दौर चला, जिससे परंपरागत ग्रामीण अर्थव्यवस्था चौपट हो गई।

कोरोना त्रासदी के इस नाजुक दौर में ग्राम गणराज्य में ही भारत का सुनहरा भविष्य दिख रहा है। क्योंकि नाजुक दौर में बाजार की ताकतों ने मनुष्यों को भगवान भरोसे छोड़ दिया। राष्ट्र राज्य ने भी देशबन्दी के बहाने पहले उनकी सुधि नहीं ली। शहरी सभ्य समाज ने उन्हें संबल देने के बजाय धूर्त, कोरोना वाहक जैसे शब्दों से नवाजा। अंततः लोगों को अपने गांव याद आये और लोग पैदल ही सैकड़ों किमी की दूरी नापते हुए अपने गांव पहुचे। गांवों ने उन्हें पनाह दी। इस तरह एक बार फिर यह सिद्ध हो चुका है कि ग्राम गणराज्य में ही देश समाज का कल्याण निहित है।

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