कम्युनिस्टों से मिलता है भारतीय राजनीति के अघोरपंथ को बौद्धिक समर्थन

बनवारी

इस वर्ष छात्रसंघ चुनाव के परिणामों से स्पष्ट है कि जवाहर लल नेहरू विश्वविद्यालय अभी भी वामपंथियों का गढ़ बना हुआ है। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद उन्हें चुनौती देने की कोशिश कर रहा है। लेकिन कुछ वर्ष पहले संयुक्त सचिव के पद पर अपना उम्मीदवार जितवाने के अलावा उसे अधिक सफलता नहीं मिली। इस बार के चुनावों में सभी वामपंथी गुट एक होकर चुनाव में उतरे थे। छात्रसंघ के चारों पदों पर वे काफी अंतर से जीते। विद्यार्थी परिषद सभी स्थानों पर दूसरे नंबर पर रही। लेकिन उसके उम्मीदवार कहीं भी जीतने वाले उम्मीदवार के निकट नहीं थे।

अपने आपमें इसका कोई विशेष महत्व नहीं होना चाहिए लेकिन नेहरू विश्वविद्यालय देश के अग्रगण्य विश्वविद्यालयों में गिना जाता है। दो वर्ष पहले वहां अफजल गुरू को फांसी पर लटकाए जाने के तीन वर्ष बाद एक रात्रि सभा आयोजित की गई थी, जिसमें कथित तौर पर कुछ बाहरी तत्वों ने भारत तेरे टुकड़े होंगे, इंशाअल्लाह इंशाअल्लाह। जैसे नारे लगाए थे। उसका वीडियो सोशल मीडिया पर जिसने भी देखा होगा उसे इस बात को लेकर गहरी चिंता हुई होगी कि देश के एक नामी विश्वविद्यालय में ऐसी सभा कैसे हो गई। सभी ने उस नारे की निंदा की। लेकिन वामपंथी उसकी निंदा करने की बजाय अपनी सफाई देते रहे। इससे भी यह प्रश्न उठता है कि नेहरू विश्वविद्यालय किस तरह की विचारधारा का पोषण कर रहा है।

नेहरू विश्वविद्यालय की स्थापना 1969 में की गई थी। लेकिन उसके लिए 1 सितंबर, 1965 में तत्कालीन सरकार ने एक बिल राज्यसभा में प्रस्तुत किया था। लोकसभा में वह बिल अगले वर्ष आया। उसके दो वर्ष बाद नेहरू विश्वविद्यालय की स्थापना हुई। 1970 में इंडियन स्कूल आफ इंटरनेशनल स्टडीज को उसमें मिला दिया गया। यह वह समय था जब कम्युनिस्ट सरकार के भीतर पहुंचकर उसे वामपंथी दिशा देने की रणनीति पर काम कर रहे थे।

नेहरू विश्वविद्यालय को भी वामपंथी विचारों के पोषक विश्वविद्यालय के रूप में ही देखा गया था। उस पर बहस के दौरान सीपीआई के नेता भूपेश गुप्ता ने कहा भी था कि उसे अन्य विश्वविद्यालयों जैसा नहीं होना चाहिए। बल्कि उसमें वैज्ञानिक समाजवाद की शिक्षा दी जानी चाहिए। 1970 में इंडियन स्कूल आफ इंटरनेशनल स्टडीज के नेहरू विश्वविद्यालय में मिलाए जाने के बाद वामपंथियों का एकछत्र वर्चस्व नहीं रहा। क्योंकि स्कूल आफ इंटरनेशनल स्टडीज के प्रोफेसर काफी अलग तरह के थे और उनका दृष्टिकोण राष्ट्रवादी अधिक था।

नेहरू विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति में और शिक्षक राजनीति में थोड़े से समय गैर-कम्युनिस्टों का भी प्रभाव रहा। समाजवादी आनंद कुमार छात्रसंघ के अध्यक्ष का चुनाव एक से अधिक बार जीते और परिमल कुमार दास शिक्षक संघ का। लेकिन कुल मिलाकर विश्वविद्यालय में वामपंथियों की तूती ही बोलती रही।नेहरू विश्वविद्यालय कई मायनों में और विश्वविद्यालयों से अलग है। उसे उच्च शिक्षा के संस्थान के रूप में ही देखा गया है। उसमें इस समय 614 शिक्षक हैं और 8432 छात्र। इनमें भी अधिकांश छात्र शोध छात्र ही हैं, उनकी संख्या 5219 है। स्नातक वर्ग में केवल 905 छात्र हैं और स्नातकोत्तर वर्ग में 2150। कुल मिलाकर प्रति शिक्षक 14 छात्र का अनुपात भी नहीं बैठता। उसका बजट लगभग 200 करोड़ रुपये का है।

देश के और शिक्षा संस्थानों को इतने साधन या सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं। इसलिए यह स्वाभाविक है कि इस विश्वविद्यालय की शैक्षिक उपलब्धियों का आकलन किया जाए। इस विश्वविद्यालय में शिक्षा जगत के नामी लोग रहे हैं। अपने-अपने क्षेत्र में उनकी ख्याति भी खूब रही है। लेकिन देश की वर्तमान स्थिति को समझने और उसके भविष्य की दिशा तय करने में उनकी कोई सकारात्मक भूमिका नहीं रही। यह भी गौर करने लायक बात है कि जब एक विचारधारा के रूप में मार्क्सवाद लगभग सभी जगह निरर्थक होता जा रहा है, यह विश्वविद्यालय उसी की टेक पकड़े हुए हैं। हमारे देश में वामपंथी राजनीति ने एक विद्रोही मुद्रा अपना रखी है, उसी की झलक वामपंथी शिक्षकों में दिखाई देती है। उन्होंने वस्तुस्थिति को समझने की दृष्टि कम दी है, एक नकारात्मक सोच अधिक पैदा किया है।

दुनिया में अन्य देशों के मार्क्सवादी राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में ही सोचते हैं। लेकिन हमारे यहां के मार्क्सवादी अक्सर राष्ट्रीयता की लक्ष्मण रेखा लांघते ही दिखाई देते हैं। मार्क्सवादियों की असफलता उतनी महत्वपूर्ण नहीं है, जितनी उन्हें चुनौती देने वालों की। नेहरू विश्वविद्यालय में मिलने वाली सुविधाओं और उसकी चमक-दमक से खिंचकर देशभर से मेधावी युवा छात्र यहां आते हैं। वे मार्क्सवाद की स्वतंत्र समीक्षा क्यों नहीं कर पाते? मार्क्सवादी राजनीति में पड़े लोग उससे बाहर नहीं निकल सकते हैं लेकिन प्रतिभाशाली युवा छात्र तो उसकी तटस्थ समीक्षा कर ही सकते हैं।

विद्यार्थी परिषद ने पूरी बहस को राष्ट्रवाद बनाम मार्क्सवाद बनाकर देखा है। वास्तव में बहस सीधे मार्क्सवाद पर होनी चाहिए। मार्क्सवाद का जन्म किन परिस्थितियों मे हुआ, रूस और चीन में कम्युनिस्ट किस तरह सत्ता पाने में सफल रहे और सत्ता में पहुंचकर उन्होंने क्या किया, इसकी ठीक-ठीक समीक्षा होनी चाहिए थी। लेकिन हमारा शैक्षिक जगत अंग्रेजी से बंधा है और अंग्रेजी में उपलब्ध साहित्य की सीमाएं नहीं लांघ सकता। इसलिए हम इन सब प्रश्नों का उत्तर अपनी दृष्टि से खोजने से वंचित रह जाते हैं। अधिकांश लोग मार्क्सवाद को एक क्रांतिकारी विचारधारा के रूप में ही देखते हैं। जबकि सच्चाई यह है कि मार्क्सवाद एक प्रतिक्रांतिकारी विचारधारा है। उसने फ्रांसीसी क्रांति के द्वारा यूरोप के लोगों ने सामंतवाद की जो बेड़ियां तोड़ी थी, उन्हें कम्युनिस्ट शासित देशों की जनता को फिर पहना दिया।

यूरोप में सामंतवादी व्यवस्था थी, जिसमें सब अधिकार राजा के पास थे। वहीं अपने राज्य के सभी संपत्तियों का स्वामी था। उसके अधीन एक अभिजात कुल था, जो उत्पादक संपत्तियों का इस आधार पर उप-स्वामी था कि वह राजा को भू-दासों और मजदूरों से कर वसूल करके देता था। फ्रांसीसी क्रांति पहले केवल अभिजात वर्ग के खिलाफ थी। फिर राजा के खिलाफ भी हो गई। इसी से कम्यून शब्द निकला, जिसका अर्थ था कॉमन यानी साधारण लोगों का जनपद। इन साधारण लोगों को सामंतवादी व्यवस्था में कोई अधिकार नहीं थे। वे अभिजात कुल को उप-स्वामी के रूप में मिली उप-संपत्तियों पर दास की तरह काम करते थे।

कार्लमार्क्स ने मजदूरों का आवाहन किया था कि वे अपनी बेड़ियां तोड़ दें। लेकिन क्रांति मजदूरों द्वारा नहीं हुई। रूसी क्रांति कार्लमार्क्स की मृत्यु के बाद अभिजात वर्ग के ही एक खेमे द्वारा हुई। कम्युनिस्ट शासन के नाम पर खेतिहर और औद्योगिक मजदूरों के सभी अधिकार छीन लिए गए। कम्युनिस्ट शासन में उनकी स्थिति सामंतवादी भू-दासों से बेहतर नहीं है। उनके सब राजनैतिक अधिकार छीन लिए जाते हैं। संपत्ति और विधि का अधिकार न उनके पास पहले था न अब है। पूंजीवादी देशों में यह काम पूंजीवादी शक्तियों ने किया है।

कम्युनिस्टों ने दुनियाभर का इतिहास यूरोप के सामंतवाद की तर्ज पर लिखने की कोशिश की। भारत के मार्क्सवादी भी यही कहते रहे कि भारत में सामंतवाद था और वह वैसा ही था, जैसा यूरोप में था। उन्हें यह दिखाई नहीं दिया कि भारत के लोग कभी किसी के दास नहीं थे। राजा को परंपरा से चले आ रहे अपने कर भाग का अधिकार था। लेकिन वह प्रजा की संपत्ति का स्वामी नहीं था। विधि का अधिकार भी पंचायतों के द्वारा लोगों के पास ही था।

इसलिए भारत की तुलना यूरोप से नहीं की जा सकती। भारत के मार्क्सवादियों ने न यूरोप को समझने की कोशिश की, न भारत को और न उन्होंने कभी मार्क्सवादी सिद्धांतों का इस दृष्टि से आकलन किया कि वे इतिहास द्वारा सही सिद्ध हुए या नहीं। उनकी सारी बहस सत्ता हासिल करने के तौर-तरीकों को लेकर होती रही। सत्ता पाने को ही क्रांतिकारी विचारधारा मान लिया गया और उसमें हिंसा की वकालत करने वाला अधिक क्रांतिकारी मार्क्सवादी सिद्ध हुआ। हिंसक क्रांति वाले नक्सलवादी आज भी हमारी सबसे बड़ी राजनीतिक समस्या बने हुए हैं।

उन्हें मुख्य धारा में समर्थन नहीं मिला तो वे भोले-भाले वनवासियों के बीच चले गए और गुरिल्ला लड़ाई लड़ने लगे। भारतीय राजनीति के इस अघोरपंथ को बौद्धिक समर्थन देने का काम नेहरू विश्वविद्यालय जैसी जगहों से हुआ है। मार्क्सवादियों ने जिस तरह साहित्य को नारेबाजी के स्तर पर उतारकर उसे चौपट किया, उसी तरह राजनीति को हिंसा या वर्गयुद्ध के दायरे में देखने-दिखाने की कोशिश की और अपने अनुयायियों को बरगलाये रखा। मार्क्सवादियों का यह प्रतिक्रांतिकारी चेहरा रूस और चीन के कम्युनिस्ट शासन का विश्लेषण करते हुए आसानी से दिखाया जा सकता है। लेकिन नेहरू विश्वविद्यालय के गैर-मार्क्सवादी यह नहीं कर पाये। आज देश का सबसे सुविधा संपन्न विश्वविद्यालय वामपंथ की क्रांति की नकली मुद्रा ओढ़े हुए हैं। यह नकली मुद्रा राष्ट्रवाद बनाम मार्क्सवाद की बहस से नहीं उजागर होगी। उसके लिए सीधे मार्क्सवाद का विश्लेषण करना होगा। वह भी पूरी प्रखरता और निर्ममता से। क्योंकि मार्क्सवाद एक मानवद्रोही हिंसक विचारधारा है।

 

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