जनसत्ता जो दुबारा जन्मा..

रामबहादुर राय

इंदिरा गांधी ने 18 जनवरी 1977 को लोकसभा के विघटन करने और मार्च में चुनाव कराने की घोषणा कर नई चुनौती उछाली। उस समय इलाहाबाद में महाकुंभ लगा हुआ था। चुनाव कराने की घोषणा उस दिन हुई जिस दिन संगम में लाखों लोग मौनी अमावस्या के स्नान के लिए आए हुए थे। अब “ जब चुनाव की घोषणा हुई मैं पटना में जेपी के यहां था। मैं वापस लौट आया।

रामनाथ गोयनका घर आए, कहा अब अख़बार निकाल सकते हैं। तब देश भर में चुनाव को लेकर क्या चल रहा है, इसको लेकर अख़बार निकालने की योजना बनी। सभी प्रान्तों से सभी भाषाओँ के अख़बार रोज हवाई जहाज से आते थे। सभी भाषाओँ के जानकार को बुलाया जाता था। अनुवाद के बाद उसका सार-संक्षेप तैयार होता। वह इंडियन एक्सप्रेस में छपता था । यह पूरे चुनाव चला। एक दिन रामनाथ जी ने कहा कि संपादकीय तो सभी

लिख रहे हैं हमें न्यूज़ स्टोरी पर ध्यान देना चाहिए । हमने ख़बरें छापनी शुरू कर दी। मजबूरीवश टाइम्स ऑफ़ इंडिया और हिंदुस्तान टाइम्स सबको हमें फ़ॉलो करना पड़ा। लोग इंडियन एक्सप्रेस को ‘जनता एक्सप्रेस कहने लगे। वे मुलगांवकर को भी ले आए। मार्च सत्तहतर में जिस दिन मोरारजी ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली उसी दिन मुलगांवकर फिर इंडियन एक्सप्रेस के प्रधान संपादक हुए। दरअसल, सरकार के दबाव में इमरजेंसी के दौरान एस. मुलगांवकर को हटना पड़ा था।

जनसत्ता निकालने के लिए अंग्रेजी में अप्रेंटिसगिरी के दस साल का जो जिक्र प्रभाष जी करते हैं उसका यह दूसरा चरण था। पहला चरण 1973 से शुरू हुआ था। अपनी अंग्रेजी की अप्रेंटिसगिरी के दूसरे चरण में उन्होंने चंडीगढ़ इंडियन एक्सप्रेस के संपादक का जिम्मा संभाला। उसे लड़खड़ाने से बचाया। अख़बार को अपने पैरों पर खड़ा किया। वहां वे चार साल रहे। उसके बाद वे दिल्ली आ गए।

चंडीगढ़ छोड़ने से पहले उन्होंने रामनाथ गोयनका को एक लम्बा पत्र लिखा। वह पत्रकारिता का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज हैं। जो सुरक्षित है। उससे कई बातें निकलती हैं। पहली यह कि चंडीगढ़ की सफलता से एक्सप्रेस समूह को बल मिला था। रामनाथ गोयनका ने चंडीगढ़ भेजकर प्रभाष जोशी की अग्नि परीक्षा ली थी। वे देखना चाहते थे कि क्या प्रभाष जोशी को दिल्ली इंडियन एक्सप्रेस का जिम्मा दिया जा सकता है ? वहां की सफलता से उनको विश्वास हो गया क्योंकि यह साबित हो गया था कि दिल्ली इंडियन एक्सप्रेस से ज्यादा बेहतर चंडीगढ़ इंडियन एक्सप्रेस निकल रहा था।

उन्हें अगली जिम्मेदारी अहमदाबाद के इंडियन एक्सप्रेस समूह के अख़बारों को संभालने की सौंपी। इसे जानिए –‘जब रामनाथ जी ने अपने को अहमदाबाद भेजा और कहा लिखने-पढ़ने वालों की अपने पास कोई कमी नहीं है। जोशी तू जरा गुजरात जा के अपने अख़बारों को रास्ते पै ला। अख़बार भी वहां पांच थे इंडियन एक्सप्रेस, जनसत्ता (गुजराती), लोकसत्ता (गुजराती), रंग-तरंग और चांदनी (पत्रिकाएं)…..

लेकिन अहमदाबाद, बड़ौदा, राजकोट में चार दैनिक, एक साप्ताहिक और एक मासिक का संपादकीय और प्रबंधकीय चार्ज लेना और घाटा खाते अख़बारों को कमाऊं बना देने वाला पारस-स्पर्श अपने हाथ में नहीं है। लेकिन रामनाथ जी को ना कहना संभव नहीं था। किन्तु-परन्तु की दलीलें उनके सामने चलती नहीं थी। रस्सी के आते-जाते रहने से शिला पर निशान बन जाता है। ईमानदारी से कड़ी मेहनत करोगे तो क्या नहीं कर सकते। जाओ कर के देखो। फिर रामनाथ जी कह कर और भेज कर भूल जाने वाले आदमी नहीं थे। मेरे अहमदाबाद रहते वे कई बार आए। उनका

निष्कर्ष था कि अपने गुजराती अख़बार तभी पनपेंगे और फलेंगे-फूलेंगे जब गुजराती पत्रिका और उद्यम उनमें लगेगा। कैसे रमेश भट्ट (इला भट्ट के पति) इंडियन एक्सप्रेस में आए ? एक दिन रामनाथ गोयनका ने प्रभाष जोशी से कहा कि ‘ये रमेश भाई को पटाओ और अपने अख़बारों में लगाओ। अपना काम भी हो जाएगा और तुम्हारी भी जल्दी-छुटटी हो जाएगी।

बहरहाल अपन रमेश भाई पर काम करते रहे और वे जो उमर भर कॉलेज में अर्थशास्त्र पढ़ाते रहे और समाज सेवा में रूचि लेते रहे, एक दिन एक्सप्रेस ज्वाइन करने को तैयार हो गए। रामनाथ जी ने उन्हें गुजरात का जनरल मैनेजर बना दिया और कहा – आप से ज्यादा पढ़े-लिखे तो मेरे यहां के संपादक भी नहीं हैं।

एडिटोरियल में रूचि लो फिर देखो मैं क्या करता हूं और हमारे रमेश भाई बीस-पच्चीस साल की प्राध्यापिकी छोड़कर पत्रकारिता में आ गए। बाल सब सफ़ेद थे हालांकि उमर पचास से थोड़ी ही ज्यादा होगी। तब हम दोनों ने कोई छह महीने साथ काम किया। जो दूसरी बात पत्र में थी वह प्रभाष जोशी के संकल्प को प्रकट करती है। उन्होंने साफ-साफ लिखा कि आप के रहते मेरी एक्सप्रेस में एक ही आकांक्षा है कि मैं हिंदी दैनिक निकालूं। इसका उन्होंने कारण भी बताया कि ‘आप ही वह संपादकीय स्वतंत्रता दे सकते हैं जो नवभारत टाइम्स और हिंदुस्तान को नहीं है।

उस पत्र के अंत में गीता के अध्याय दो का यह 38वां श्लोक प्रभाष जोशी ने अपने हाथ से लिखा था। वैसे पूरा पत्र अंग्रेजी में टाइप किया हुआ है। “सुखदुखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ. ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापम-अवाप्स्यसि.” इसका अर्थ है – जय-पराजय, लाभ-हानि तथा सुख-दुःख को समान मानकर युद्ध के लिए तत्पर हो जाओ और इस सोच के साथ कि युद्ध करने पर पाप के भागी नहीं बनोगे। अगर प्रभाष जोशी अपना नजरिया बदल देते और अंग्रेजी में बने रहने के लिए तैयार हो जाते तो वे इंडियन एक्सप्रेस के प्रधान संपादक आसानी से हो सकते थे।

बी.जी. वर्गीस ने रामनाथ गोयनका की जीवनी में यह तो नहीं लिखा है लेकिन इसे कई बार लिखा है कि प्रभाष जोशी उन चंद लोगों में से थे जिन्हें रामनाथ गोयनका अपना अंतरंग मानते थे और संकट के समय उनसे सलाह लेते थे। प्रभाष जी 1981 से 1983 के दौरान इंडियन एक्सप्रेस दिल्ली के स्थानीय संपादक रहे।  ‘यहीं रहते हुए जनसत्ता की सारी योजना बनी।’

जनता राज में इंडियन एक्सप्रेस की समस्याएं कम नहीं हुई, बढ़ी। इमरजेंसी में शुरू हुए मुक़दमे चलते रहे। इस बारे में जेपी ने अपने आखिरी दिनों में प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई को पत्र भी लिखा। उसका सरकार पर कोई अनुकूल असर नहीं हुआ। वित्तमंत्री ने बाकायदा संसद में घोषणा की कि मुकदमें वापस लेने का कोई

निर्णय नहीं हुआ है। इमरजेंसी में इंदिरा गांधी की सरकार चाहती थी कि  इंडियन एक्सप्रेस की आवाज़ दबा दी जाये और उसे हिंदुस्तान टाइम्स ले लें। सरकार से लड़ते हुए एक्सप्रेस कर्जे में पड़ गया। उस पर 10 करोड़ का कर्जा था। इमरजेंसी में भावतोशदत्ता कमेटी की रिपोर्ट का फंदा एक्सप्रेस के गले में था। कांग्रेस के उकसावे पर अप्रैल 1977 में एक्सप्रेस में हड़ताल हुई। कांग्रेस के सदस्यों ने इसे संसद में उठाया। मुद्दा अंतरिम राहत का था। रामनाथ गोयनका का कहना था की कर्ज में डूबे होने के कारण तुरंत अंतरिम राहत नहीं दे सकते, लेकिन जैसे ही हालत सुधरेगी भुगतान किया जाएगा।

रामनाथ गोयनका के लिए जुलाई 1979 दो कारणों से भयावह रहा। उस समय दो हादसे हुए। पहला, उनके बेटे भगवान दास की दिल की धड़कन बंद हो जाने से मृत्यु हो गई दूसरा कि जनता पार्टी के आपसी झगडे से सरकार गिर गई। इस दूसरी घटना से मध्यावधि चुनाव की नौबत आई। इन कारणों से भी जनसत्ता निकालने की योजना टलती रही। 1980 में इंदिरा गांधी दुबारा सत्ता में आई। उन्होंने जगमोहन को दिल्ली का उपराज्यपाल बनाया। 17 फरवरी 1980 को उन्होंने पद संभाला. उस दिन रविवार था। फिर भी इंडियन एक्सप्रेस की नई बिल्डिंग की फ़ाइल मंगवाई। खुन्नस खाए जगमोहन ने एक मार्च को प्रेस कांफ्रेंस की और बताया कि बिल्डिंग अवैध है। उसे गिराने का आदेश दिया। जिसके खिलाफ इंडियन एक्सप्रेस ने अदालत से स्थगन आदेश प्राप्त किया। किस तरह दिल्ली नगर निगम के एक अफसर ने उपराज्यपाल के आदेश पर पानी फेरा और मदद की यह सब अलग इतिहास है। उसका जिक्र एक सिलसिले में पिछले दिनों अरुण शौरी ने भी अपनी एक्सप्रेस की लेखमाला में किया है…..जारी

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