भीमा कोरेगांव में वामपंथ का हिंसक तांडव

 

बनवारी

भीमा कोरेगांव की हिंसा के सिलसिले में महाराष्ट्र पुलिस ने अनेक स्थानों पर छापे मारकर पांच लोगों को गिरफ्तार किया है। अब तक की जांच से यह स्पष्ट हो चुका है कि उस हिंसा में माओवादियों का हाथ था। इसी सिलसिले में जून में कुछ गिरफ्तारियां की गईं थी, उनसे जो सूत्र और दस्तावेज मिले, उसके आधार पर जांच आगे बढ़ाते हुए पुलिस ने पांच और लोगों को गिरफ्तार किया है। उन पर जो धाराएं लगाई गईं हैं, वे राज्य को सशस्त्र विद्रोह के जरिए उखाड़ फेंकने से संबंधित है। उन पर यह आरोप सही है या नहीं, इसका निर्णय अदालतें ही कर सकती हैं। गिरफ्तार किए गए पांचों लोग माओवादियों से जुड़े हुए माने गए हैं। यह संबंध आपराधिक है या नहीं, इसका पता अदालत ही लगा सकती है।

अदालत का दरवाजा खटखटाने के लिए केवल मानवाधिकारों संगठनों से जुड़े कार्यकर्ता ही नहीं पहुंचे, प्रसिद्ध इतिहासविद् रोमिला थॉपर भी पहुंची हैं। सुप्रीम कोर्ट ने गिरफ्तारी पर रोक लगाने से तो इंकार कर दिया, लेकिन कहा कि 6 सितंबर तक होने वाली अगली सुनवाई तक उन्हें जेल में नहीं ले जाया जाए, बल्कि घर में नजरबंद करके रखा जाए। मार्क्सवादी पार्टी ने गिरफ्तारियों की खुलकर निंदा की है और फासीवादी कार्रवाई बताया है। उसका मानना है कि यह गिरफ्तारियां दलित आंदोलन को कुचलने और सरकार से असहमति रखने वाले लोगों का गला घोंटने के लिए की गईं हैं। दलित आंदोलन में माओवादी तत्व घुसे हुए हैं, यह बात पहली बार सामने नहीं आई। यह जानते हुए भी मार्क्सवादी पार्टी गिरफ्तार किए गए लोगों की पीठ पर हाथ रख रही है। इसका अर्थ स्पष्ट है कि वह खुले तौर पर माओवादियों की हिंसा का समर्थन भले न करें, पर वह उनकी पक्षधर हैं और उनके सशस्त्र विद्रोह को विचारधारा के आधार पर देखती है और उसे अनुचित नहीं समझती। यह विचित्र बात है कि एक खुले और लोकतांत्रिक देश में तो उन्हें और मानवाधिकार के नाम पर सक्रिय वामपंथियों को उत्पीड़न दिखाई देता है। लेकिन जिस चीन से माओवाद की प्रेरणा ली गई है, वहां उन्हें कोई उत्पीड़न दिखाई नहीं देता।

एक खुले और लोकतांत्रिक देश में मानवाधिकार के नाम पर सक्रिय वामपंथियों को उत्पीड़न दिखाई देता है। लेकिन जिस चीन से माओवाद की प्रेरणा ली गई है, वहां उन्हें कोई उत्पीड़न दिखाई नहीं देता।

मार्क्सवादियों से निकली नक्सलवादी शाखा और उसकी प्रशाखाएं लंबे समय से माओवाद को अपनी विचारधारा बनाए हुए हैं। उनके सशस्त्र संघर्ष में न केवल अपने कर्तव्य पालन में लगे पुलिस बल के लोग बर्बरतापूर्वक मार डाले गए हैं, बल्कि अपने समर्थकों का जीवन भी उन्होंने अपने राजनैतिक उद्देश्य के लिए बलि चढ़ाया है। अब तक उनकी बेतुकी हिंसा में जितने लोग मारे गए हैं, उतने कश्मीर में भी शायद ही मारे गए हों। मार्क्सवादी पार्टी की चीन से सहानुभूति भी किसी से छिपी नहीं है। वह जब तब भारत सरकार को हिदायत देती रहती है कि वह अमेरिका पर निर्भरता घटाए और चीन पर निर्भरता बढ़ाए। मार्क्सवादी पार्टी के राजनैतिक दुराग्रहों का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि उसके उस समय के कामरेड यह मानने के लिए तैयार नहीं थे कि चीन ने 1962 में भारत पर आक्रमण किया था। उनका तर्क और भी विचित्र था। उनका तर्क यह था कि कोई समाजवादी देश किसी पर आक्रमण कर ही नहीं सकता। इस तरह का तर्क विचारधारा द्वारा अंधा बना दिया गया व्यक्ति ही दे सकता है। मार्क्सवादी पार्टी की सार्वजनिक रूप से व्यक्त की जाने वाली राजनैतिक भाषा भले बदल गई हो, लेकिन उसकी सहानुभूति किसके साथ है, यह वह समय-समय पर प्रकट करती रहती है। उसे कभी चीन के भीतर क्या होता रहा है, इसे देखने, जानने और समझने की आवश्यकता नहीं लगती। चीन की सांस्कृतिक क्रांति के दौरान जो बर्बरता बरती गई, उसकी उसने कभी निंदा नहीं की। चीन के विस्तारवाद की ओर वह हमेशा आंख मूंदे बैठी रही। चीन अपने देश के साधारण नागरिकों के साथ कैसा व्यवहार करता है, इसे देखने-समझने की उसे कभी आवश्यकता अनुभव नहीं हुई। न ही कभी उससे चीन के कम्युनिस्ट शासन की अल्पसंख्यक समुदाय से संबंधित उत्पीड़क नीतियों पर उंगली उठाई।

जब मार्क्सवादी कामरेड यह तर्क दे रहे थे कि कोई समाजवादी देश किसी दूसरे देश पर आक्रमण नहीं करता, तब उन्हें यह याद नहीं आया कि आज के चीन का बहुलांश हड़पा हुआ क्षेत्र है। चीन का परंपरागत भू-भाग आज के चीन का केवल 45 प्रतिशत ही रहा है। 1949 में उसने यूरोपीय लोगों की तरह अपने भू-भाग का विस्तार करना आरंभ किया, उसने रूस से समझौता करके मंचूरिया और मंगोलिया का बड़ा हिस्सा हड़प लिया। उसने शिनजियांग पर कब्जा कर लिया। भारत की पहाड़ सी राजनैतिक भूल का फायदा उठाकर उसने तिब्बत हड़प लिया। यह सब क्षेत्र चीन के मूल क्षेत्र नहीं है और कम्युनिस्ट शासन में इस क्षेत्र के लोगों पर अमानुषिक अत्याचार हुए हैं। माओवादियों को भारत के मैदानी क्षेत्रों में सफलता नहीं मिली तो वे भोले-भाले वनवासियों के बीच पहुंच गए। लेकिन उन्हें कभी चीन उईगर मुसलमानों के साथ क्या कर रहा है या तिब्बत के बौद्धों के साथ क्या कर रहा है, यह दिखाई नहीं दिया। अभी संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट में कहा गया कि चीन ने दस लाख उईगरों को कैम्पों में कड़े नियंत्रण में रखा हुआ है। यह खबर अतिरंजित थी। क्योंकि इतनी बड़ी संख्या में लोगों को कैम्पों में नहीं रखा जा सकता। इस खबर को असत्य बताते हुए भी चीन के राजकीय अखबार ‘ग्लोबल टाइम्स’ में कहा गया कि उईगरों के साथ जो कुछ हो रहा है, वह उन्हें रास्ते पर लाने के लिए हो रहा है। पिछले दिनों चीन के मुख्य क्षेत्र में रहने वाले उईगर मुसलमानों की एक बड़ी मस्जिद गिरा दी गई। उस पर बहुत विरोध हुआ। हमारे यहां के मार्क्सवादी भारतीय मुसलमानों की पीठ पर सदा हाथ रखे रहते हैं। लेकिन उईगर मुसलमानों के बारे में उन्हें कुछ कहने की आवश्यकता नहीं पड़ी। तिब्बतियों पर होने वाले अत्याचारों की पूरी दुनिया को खबर है। केवल हमारे मार्क्सवादियों को खबर नहीं है। उन्हें यह सब अमेरिकी प्रचार दिखाई देता है। चीन में अल्पसंख्यकों की संख्या बहुत अधिक नहीं है। सभी तरह के अल्पसंख्यक नौ प्रतिशत से कम ही बैठते हैं। हान और तुर्क मुसलमानों की संख्या भी ढाई करोड़ से अधिक नहीं है फिर भी उनको जिस तरह की पाशविक यातनाएं दी गई है, वह किसी भी विचारधारा के लिए लज्जा की बात होनी चाहिए। हमारे यहां कोई माओवादियों और मार्क्सवादियों से पूछता नहीं है कि उन्हें चीन का उत्पीड़न क्यों दिखाई नहीं देता।

चीन में सामान्य नागरिकों पर कोई कम अत्याचार नहीं हुए। रूस के सोवियतों की नकल पर अपने यहां कम्यून बनाने के चक्कर में चीन ने कई करोड़ नागरिकों को भूख और बदहाली का शिकार बनाकर मरने दिया। अब तक ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले किसी चीनी को शहरी क्षेत्रों में बसने की इजाजत नहीं थी। शहर की मलिन बस्तियों में रहने वाले अस्थायी मजदूरों को भी जब तब भेड़-बकरियों की तरह खदेड़ा जाता रहा। चीन की अब तक चली आ रही जनसंख्या नीति की गिनती संसार की सबसे बर्बर नीति में की जानी चाहिए। किसी को एक बच्चे से अधिक पैदा करने की इजाजत नहीं थी। माओ ने किसी समय जनसंख्या वृद्धि का मजाक उड़ाते हुए कहा था कि लोग केवल मुंह नहीं दो हाथ लेकर भी पैदा होते हैं। लेकिन जब जनसंख्या नियंत्रण की नीति बनी तो सबकुछ उलट गया। आज तक यह कहा जाता है कि चीन की सेना में अधिकांश सैनिक वास्तविक लड़ाई के समय घबरा जाएंगे। क्योंकि वे अपने मां-बाप की अकेली संतान हैं, उन्हें डर बना रहेगा कि उनके पीछे कौन उनके मां-बाप की देखभाल करेगा। भारत के वामपंथियों को यह सब दिखाई नहीं देता। वह एक खुली और लोकतांत्रिक व्यवस्था में जो छूट पाए हुए हैं, वह चीन जैसे नियंत्रित राज्य में किसी को उपलब्ध नहीं है। फिर भी उन्हें भारत की सरकार फासीवादी दिखाई देती है और चीन की सरकार समाजवादी।

कोई भी देश अपने यहां ऐसे लोगों को बर्दाश्त नहीं कर सकता, जो खुले तौर पर राज्य सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए सशस्त्र क्रांति की बात करते हो। अगर कोई राज्य सत्ता केवल हिंसक तरीकों से बनी हो और उन्हीं तरीकों पर टिकी हो तो उसे उखाड़ फेंकने के लिए हिंसक क्रांति की बात की जा सकती है, लेकिन एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में हिंसक संघर्ष की कोई जगह नहीं हो सकती। इसलिए जो लोग माओवादी संघर्ष में पड़े हैं, उन्हें उसके परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहना चाहिए। राज्य की शक्ति उनसे बहुत अधिक है। अपने हिंसक तरीकों से वे राज्य को और अधिक बल प्रदान करते हैं। उनका समर्थन करने वाले और उनसे सहानुभूति रखने वाले लोग अक्सर यह भूल जाते हैं कि वे एक विचारधारा के आकर्षण में अमानवीय संघर्ष को बढ़ावा दे रहे हैं। लोकतंत्र में असहमति की जगह है, असहमति के नाम पर हिंसा की नहीं। इसलिए मार्क्सवादी पार्टी और उसके नेताओं को राजनैतिक लक्ष्मण रेखाएं याद दिलाई जानी चाहिए। अगर वे चीन के हिमायती हैं या माओवाद से सहानुभूति रखते हैं तो उन्हें भारतीय राजनीति में खुली छूट नहीं हो सकती। मानवाधिकार सबके हैं, केवल वैचारिक असहमति की राजनीति करने वाले लोगों के नहीं। वामपंथियों को अन्य लोगों के मानवाधिकार दिखाई नहीं देते। केवल हिंसक राजनीति करने वाले लोगों के मानवाधिकार दिखाई देते हैं।

 

 

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