सरकार की ‘अगस्त क्रांति’ बनाम भाजपा की ओबीसी राजनीति

सत्ताधारी पार्टी और सरकार ने अगस्त के इस पखवाड़े को ‘सामाजिक न्याय पखवाड़ा’ बताते हुए इसकी तुलना भारत की आज़ादी की लड़ाई के एक अहम मुकाम साल 1942 की विख्यात ‘अगस्त क्रांति’ से की है.

इस तुलना का राजनीतिक संदर्भ दिलचस्प है. महात्मा गांधी की अगुवाई में तब की ‘अगस्त क्रांति’ में मौजूदा सत्ताधारियों के राजनीतिक पूर्वजों, संघ-परिवार से सम्बद्ध लोगों की हिस्सेदारी का उल्लेख नहीं मिलता है.

पर मौजूदा सत्ता-नेतृत्व ओबीसी कल्याण के नाम पर उठाए अपने ‘दो प्रमुख फ़ैसलों’ और दलित-आदिवासी उत्पीड़न निषेध क़ानून के पुराने रूप की वापसी को ‘अगस्त क्रांति’ जैसा बता रहा है!

शायद इसीलिए इस तरह की बेमेल-तुलना को लोकसभा और कुछ राज्यों के भावी चुनावों की सत्ताधारी दल की तैयारी से जोड़कर देखा जा रहा है.

अगर इन प्रशासनिक फ़ैसलों का वस्तुगत आकलन करें तो इनमें न तो ऐतिहासिक महत्व की कोई उल्लेखनीय बात है और न ही पिछड़ी जातियों में इन्हें लेकर खास उत्साह नज़र आ रहा है!
सरकार का एक प्रमुख फैसला है, पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा देने का. अनुसूचित जाति या अनूसूचित जनजाति आयोग को पहले से संवैधानिक दर्जा प्राप्त था. लेकिन बाद के दिनों में गठित ओबीसी आयोग को यह दर्जा प्राप्त नहीं था. अब उसका स्तर बढ़ाकर संवैधानिक दर्जा दे दिया गया.

जस्टिस जी रोहिणी आयोग
ओबीसी मामलों में सरकार का दूसरा कदम हैः भारत की तमाम पिछड़ी जातियों में श्रेणीकरण (सब-कैटेगेराइजेशन) के विचार का अध्ययन करने और इस बाबत सरकार को उचित सिफ़ारिश देने के लिए गठित जस्टिस जी रोहिणी आयोग.

यह पिछले साल बना था, इसे हाल में नया कार्य-विस्तार मिला है. संविधान के अनुच्छेद-340 के तहत यह आयोग बना था. इसी अनुच्छेद के तहत सन् 1979 में मंडल आयोग भी गठित हुआ था.

इसमें कोई दो राय नहीं कि राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग( एनसीबीसी) को संवैधानिक दर्जा देकर सरकार ने वाजिब कदम उठाया है. ओबीसी समुदायों की तरफ से इस आशय की मांग भी की जा रही थी.

27 फ़ीसदी नियुक्तियां भी आज तक नहीं
पर सवाल है, आयोग का कामकाज और उसका स्वरूप क्या होगा? जिस तरह सिर्फ क़ानून बनाने से कोई समाज सुंदर, सभ्य और समुन्नत नहीं हो जाता, ठीक उसी तरह आयोग को संवैधानिक दर्जा देने मात्र से पिछड़े वर्ग के मसलों, खास तौर पर सामाजिक न्याय के एजेंडे को हासिल नहीं किया जा सकता.

मंडल आयोग लागू होने के 25 साल पूरे हो रहे हैं लेकिन देश की 54 फ़ीसदी से ज्यादा आबादी वाले वृहत्तर ओबीसी समुदाय के बीच से केंद्रीय और सम्बद्ध सेवाओं में 27 फ़ीसदी नियुक्तियां भी आज तक नहीं हुईं! विश्वविद्यालयों-महाविद्यालयों के शिक्षकों की नियुक्तियों में लंबे समय तक आरक्षण के प्रावधान नहीं लागू थे.

2006 में यूपीए-1 सरकार के कार्यकाल में भारी विरोध के बीच शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण लागू हुआ था. तब अर्जुन सिंह केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री थे. लेकिन उच्च शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण के प्रावधानों को तरह-तरह की संस्थागत अधिसूचनाओं से निष्प्रभावी किया जा रहा है.

जिस तरह आनन-फानन में नयी सरकार के सम्बद्ध मंत्रालय ने नियुक्तियों के लिए नया विवादास्पद रोस्टर लागू कराया है, उससे ओबीसी समुदाय के प्रतिभाशाली अभ्यर्थियों की नियुक्तियां भी लगभग असंभव होती जा रही है.

रोस्टर के आधार पर नियुक्तियों पर हंगामा
पिछले दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय सहित देश के कई शैक्षणिक संस्थानों में कार्यरत शिक्षकों, ओबीसी छात्रों एवं अभ्यर्थियों आदि ने बड़ा प्रतिरोध मार्च किया था. मामला संसद में भी गूंजा.

केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री ने सदन को आश्वासन दिया कि वह रोस्टर सम्बन्धी समस्या का समाधान जल्द करेंगे. सरकार नये रोस्टर के आधार पर होने वाली नियुक्तियों पर पाबंदी लगायेगी. लेकिन मंत्री के आश्वासन के बावजूद देश के अनेक विश्वविद्यालयों ने सैकड़ों नियुक्तियां नये विवादास्पद रोस्टर के आधार पर कर लीं, जिसमें विश्वविद्यालय या महाविद्यालय के बजाय विभाग को इकाई माना गया है.

सवाल उठता है, आरक्षण के प्रावधानों के क्रियान्वयन के पेचीदा मसलों पर संवैधानिक दर्जा-प्राप्त ओबीसी आयोग साहसिक कदम उठायेगा या सरकार में बैठे ताक़तवर लोगों के संकेतों का इंतजार करेगा!

हाल के वर्षों में जिस तरह तमाम संवैधानिक और लोकतांत्रिक संस्थाएं निष्प्रभावी और कुंठित की जा रही हैं, उसे देखते हुए इस आयोग पर भी यह सवाल उठना लाजिमी है.

123वें संविधान संशोधन की रोशनी में गठित किये जाने वाले एनसीबीसी विधेयक को संसद के दोनों सदनों में विपक्ष ने भी समर्थन दिया. लेकिन कुछ सवाल भी उठे.

सरकार ने विपक्ष को आश्वस्त किया कि नया आयोग राज्यों के अधिकारों को पूरा महत्व देगा. कुछ ही दिनों में सरकार जब इस आयोग के सदस्यों की नियुक्ति शुरू करेगी, असल तस्वीर तब सामने आयेगी कि आयोग से वह ओबीसी समुदाय का वाकई कुछ भला करना चाहती है या सिर्फ भाजपा के ओबीसी-एजेंडे को आगे बढ़ाना चाहती है!

जहां तक ओबीसी में वर्गीकरण या श्रेणीकरण की व्यावहारिकता पर सिफ़ारिश देने के लिए गठित जस्टिस जी रोहिणी आयोग का सवाल है, सरकार उसकी सिफारिशों का बेसब्री से इंतजार कर रही है.

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