यूरोपीय शक्ति का रहस्य

शास्त्रीय बुद्धि के मामले में भारत संसार का सबसे उन्नत समाज है। इसलिए सात दशक पहले स्वतंत्र होने के बाद हमारी बौद्धिक जिज्ञासा यह समझने में लगनी चाहिए थी कि दो-तीन शताब्दी पहले तक संसार का सबसे पिछड़ा क्षेत्र होने के बावजूद यूरोप विश्व के एक विशाल क्षेत्र को अपने नियंत्रण में लेने में कैसे सफल हो गया। वह अपने से हर दृष्टि से श्रेष्ठ भारत और चीन जैसी शक्तियों को पराभूत कैसे कर सका। विशेषकर छोटा सा ब्रिटेन जिसकी अठारह सौ में भी जनसंख्या केवल एक करोड़ थी और जिसके पास किसी को देने के लिए न ज्ञान था न उपयोगी वस्तुएं, वह कैसे संसार की एक चैथाई भूमि पर और एक तिहाई जनसंख्या पर अपना साम्राज्य स्थापित करने में सफल हो गया। हमारे सौ दो सौ लोग भी इस जिज्ञासा को शांत करने में लग जाते तो हम अपनी और संसार की अधिक सही समझ विकसित करने में सफल हो पाए होते।

यह करना आवश्यक था और है, क्योंकि यह किए बिना हम यूरोप के फैलाए इस भ्रम से मुक्त नहीं हो सकते कि उन्होंने अपने बौद्धिक पुरुषार्थ से मानव इतिहास की सबसे उन्नत सभ्यता विकसित कर दी है। संसार के बाकी सभी लोगों को उनके दिखाए रास्ते पर उनके पीछे-पीछे चलते रहना है। यूरोप का फैलाया भ्रम केवल भारतीयों की बुद्धि को ही ग्रसित किए हुए नहीं है। अन्य सब गैर-यूरोपीय समाज भी अपने आपको यूरोपीय बुद्धि के अनुगत बनाए हुए हैं। वे सामरिक और आर्थिक शक्ति में यूरोपीय जाति से आगे अवश्य निकलना चाहते हैं, लेकिन उनकी बनाई लीक पर ही चलकर। सभी लोगों ने यूरोपीय ज्ञान-विज्ञान, राजनैतिक तंत्र और आर्थिक ढांचों को स्वीकार कर रखा है। इसलिए बीसवीं शताब्दी के मध्य में यूरोपीय राजनैतिक साम्राज्य के तिरोहित हो जाने के बावजूद संसार के सभी लोगों पर उनका आर्थिक, राजनैतिक और बौद्धिक नियंत्रण बना हुआ है।

पिछली दो-तीन शताब्दियों में यूरोपीय जाति ने संसार के अन्य लोगों के साथ जो बर्बरता बरती है, उसकी स्मृति और उससे पैदा आक्रोश भारत से अधिक दूसरे क्षेत्रों में है। अरब उनको निरंतर चुनौती देते रहे हैं। चीन यूरोपीय जाति के सामरिक और आर्थिक दृष्टि से सबसे समृद्ध देश अमेरिका से आगे निकलना चाहता है। अफ्रीकी यूरोपीयों के प्रति घृणा से भरे रहते हैं कि अपने नब्बे वर्ष के नियंत्रण में यूरोपीय शक्तियों ने उन्हें सब तरह से चैपट कर दिया। लेकिन इन सभी चुनौतियों में कोई सभ्यता-दृष्टि नहीं है। इन सबसे उसकी आशा भी नहीं की जानी चाहिए। ऐसा नहीं है कि इन सबकी अपनी विशेष सभ्यता नहीं रही। लेकिन यूरोपीय ज्ञान-विज्ञान की चकाचैंध के बीच उनकी सभ्यता-दृष्टि निष्क्रिय हो गई है। उसे सक्रिय करने के लिए जो शास्त्रीय बुद्धि और शास्त्रीय कौशल चाहिए वह सबसे अधिक भारतीयों के पास ही रहा है। उन्होंने भी अपनी शास्त्रीय बुद्धि को निष्क्रिय कर रखा है। उसे सक्रिय किए बिना दुनिया को किसी सारभूत रूप में बदलना संभव नहीं है।

ऐसा नहीं है कि हमारी शास्त्रीय बुद्धि पूरी तरह सुप्त पड़ी रही है। महात्मा गांधी को हमारी इस शास्त्रीय बुद्धि ने ही पैदा किया था। महात्मा गांधी ने यूरोपीय सभ्यता की जो मीमांसा की है, वह अब तक की सबसे तेजस्वी और समर्थ मीमांसा है। बाकी लोगों ने यूरोपीय सभ्यता के किसी एक पहलू को नकारा है और दूसरे पहलू की श्रेष्ठता स्वीकार कर ली है। उदाहरण के लिए उन्नीसवीं शताब्दी में जापान के फुकुजावा यूकिची ने प्रतिपादित किया था कि यूरोपीय विज्ञान में तो कुछ दैवी तत्व है, लेकिन उनकी सामाजिक दृष्टि राक्षसी है। इसी मान्यता पर चलते हुए जापान यूरोपीय अनुकरण पर उनके बराबर की एक आर्थिक शक्ति बन गया, लेकिन अपने समाज पर यूरोपीय प्रभाव न पड़ने देने की उसने भरपूर कोशिश की। वह पूरी तरह सफल न हुआ हो, पर आज भी जापानी समाज अपने आत्मगौरव से भरा-पूरा दिखाई देता है।

जब यूरोपीय चीन पहुंचे थे वहां विदेशी मांचू शासन था। चीन को यूरोपीय शक्तियों ने कभी सीधे अपने शासकीय नियंत्रण में नहीं लिया। लेकिन वे मांचू शासकों को पराभूत करके चीन पर अपनी इच्छाएं लादने में सफल रहे थे। यूरोपीय शक्तियों से चीनी लोगों ने अपने आपको काफी आहत और अपमानित अनुभव किया था। उसी का परिणाम बाॅक्सर विद्रोह और अफीम युद्ध था। वे यूरोपीय शक्तियों के अनैतिक और बर्बर राजनय से अत्यधिक स्तब्ध हुए थे। लेकिन इसका विकल्प उनके नवशिक्षित लोगों ने माक्र्सवाद में देखा। माक्र्सवादी विचारधारा के आधार पर माओ ने एक निरंकुश तंत्र खड़ा किया और पूरे चीन को यूरोपीय शक्तियों को चुनौती देने में लगा दिया। पिछली आधी शताब्दी में चीन सामरिक और आर्थिक दृष्टि से शक्तिशाली अवश्य हुआ है, लेकिन अब तक वह अपनी सभ्यता-दृष्टि से विपरीत दिशा में ही बढ़ता रहा है।

इस्लाम के आवेश का उपयोग करके खड़ी हुई अरबों की शक्ति तुर्कों के शक्तिशाली होने के साथ-साथ दसवीं शताब्दी के अंत तक शेष हो गई थी। कुछ समय बाद तुर्क वहां एक शक्तिशाली उस्मानी साम्राज्य खड़ा करने में सफल हो गए। पहले महायुद्ध में मित्र राष्ट्रों को सबसे कड़ी टक्कर उस्मानी राज्य से ही मिली थी। उनकी पराजय के बाद पूरे अरब क्षेत्र का ब्रिटेन, फ्रांस और रूस ने अपने हिसाब से पुनर्गठन किया। वे अपनी समर्थक सरकारें बनवाने में अवश्य सफल हो गए, लेकिन आम अरब मुसलमानों में यूरोपीयों की छवि एक पतित विधर्मी की ही छवि रही है। दोनों के बीच यरूशलम पर नियंत्रण को लेकर चले अभियानों से लगाकर लगातार संघर्ष ही छिड़ा रहा है। अरब यह मानते हैं कि उनके संपर्क ने ही यूरोपीय लोगों को ज्ञान-विज्ञान की ओर आगे बढ़ाया। अरब क्षेत्रों में तेल की खोज और उसके बाद मिली अनर्जित समृद्धि ने अरब बौद्धिक जगत को भरमाए रखा है। लेकिन आम अरब में यूरोपीयों के प्रति जो घृणा है, वह मजहबी आवेश के सहारे एक आतंकवादी चुनौती में बदल गई है। उनकी इस चुनौती में भी केवल मजहबी आवेश है, कोई सभ्यतादृष्टि नहीं है। यह आवेश उन्हें बर्बरता की ओर ही ले जा रहा है।

अरब और यूरोपीय शक्तियों के अतिक्रमण से पहले अफ्रीकी संसार के सबसे अधिक सरल और प्राकृतिक विधियों से चलने वाले लोग थे। उनके पास संसार की एक चैथाई खेती योग्य भूमि थी और अकूत खनिज संपदा थी। सोने और हीरों का सबसे बड़ा भंडार अफ्रीका में ही है। लेकिन उनकी इस प्राकृतिक समृद्धि का दोहन करने की कोशिश में पहले अरबों और फिर यूरोपीयों ने उन्हें संसार का सबसे संकटग्रस्त क्षेत्र बना दिया। आज अफ्रीका की आधी आबादी धर्मांतरित होकर इस्लाम के प्रभाव में आ गई है और शेष आधी ईसाइत के। वे अपनी प्राकृतिक विधियों से दूर कर दिए गए और उनकी खेती की अस्सी प्रतिशत भूमि रबर, कपास, चीनी और अन्य निर्यात की जाने वाली वस्तुओं के उत्पादन में झोंक दिए जाने के कारण बर्बाद हो गई है। यूरोप उन्हें भीख का कटोरा थमाकर खिसक आया है। आम अफ्रीकी यूरोपीय रंगभेद को भी लंबे समय तक भुला नहीं पाएगा। यूरोपीय लोगों से वे अपना बदला शायद अपनी जनसंख्या बढ़ाकर ले रहे हैं। आज उनकी जनसंख्या वृद्धि संसार में सबसे अधिक है और कब यह जन-प्लावन मध्य सागर पार करके यूरोपीय क्षेत्रों और अमेरिका को आक्रांत कर दे, कहा नहीं जा सकता। अगले पचास वर्ष में वे अपना काफी हिसाब चुकता कर चुके होंगे।
यूरोप को मिलने वाली यह सब चुनौतियां उसकी शक्ति को दी जा रही चुनौतियां हैं। यह मान लिया गया है कि यह शक्ति यूरोपीय जाति ने जिन विचारों और साधनों के आधार पर अर्जित की थी, उनमें कुछ हेय नहीं है। उन्हें आज की यूरोपीय सभ्यता में बहुत कुछ हेय लगता है। लेकिन यह समझने का अब तक समुचित प्रयत्न नहीं किया गया कि यूरोपीय शक्ति की मूल प्रकृति क्या है। वह मानव जाति को उन्नयन की दिशा में ले जाती है या अवनति की दिशा में। यह प्रतीति शायद सबको है कि यूरोपीय स्वभाव में कुछ गंभीर दोष है। वह भौतिक समृद्धि की ओर भले ले जाएं लेकिन वह सामाजिक रूप से मनुष्य को पतित करता है। यह लगभग वैसी ही बात है, जैसी काफी पहले जापानियों ने समझी और कही थी। बाकी लोग उसे जापानियों की तरह से नहीं अपनी तरह से समझते हैं। लेकिन अब तक उनकी यह समझ उन्हें यूरोपीय बुद्धि को और उस बुद्धि से पैदा किए गए तंत्र और साधनों को ठीक से जांचने-परखने की दिशा में अग्रसर नहीं कर पाई।

औद्योगिक क्रांति के बाद जब यूरोप अपनी नई व्यवस्थाएं खड़ी कर रहा था, महात्मा गांधी वकालत की पढ़ाई के लिए ब्रिटेन में थे। उन्होंने मुश्किल से किशोर वय पार की थी। लेकिन अपनी सभ्यता की अंर्तदृष्टि शायद उनमें जन्मजात थी। उस समय उनमें अपनी जातीय श्रेष्ठता का भाव अवश्य था, भारतीय सभ्यता की अंर्तनिहित शक्ति और श्रेष्ठता का भाव भी उनमें था, लेकिन यूरोपीय समाज को उन्होंने शत्रु भाव से नहीं, एक सहज जिज्ञासा से, अपनी सभ्यता की तुलनात्मक दृष्टि से ही देखने की कोशिश की। उन्होंने जितना उसे देखा और जाना उतना ही उसे तुच्छ और अस्वीकार्य पाया। उन्होंने औरों की तरह उसे दो भागों में बांटकर देखने की कोशिश नहीं की। उन्हें यूरोपीयों का स्वभाव और नैतिक-सामाजिक जीवन जितना अस्वीकार्य लगा, उतना ही उनका ज्ञान-विज्ञान और आधुनिक उपलब्धियां भी अस्वीकार्य लगीं। हमारे समय के अग्रणी महापुरुषों में संभवतः महात्मा गांधी अकेले ऐसे हैं जो यूरोप को सभ्यता से विहीन मानते थे। उन्हें उसमें कुछ ग्रहणीय दिखाई नहीं दिया था।

यह आश्चर्य की बात लगती है कि जिस भारतीय मेधा ने महात्मा गांधी जैसा व्यक्ति पैदा किया, वह अपने बौद्धिक वर्ग को यूरोप को ठीक से समझने में प्रवृत्त नहीं कर पाई। इसका एक बड़ा कारण तो यह है कि हमारा यह बौद्धिक वर्ग, लगभग समूचा यूरोपीय शिक्षा की ही देन है। पिछली एक शताब्दी में इसका आकार इतना बढ़ गया है कि उसने हमारी सभ्यतागत बुद्धि को निस्तेज कर दिया है। हमारे जिन लोगों में अपनी विद्या की समझ है, वे यूरोपीय बुद्धि को ठीक से नहीं समझते। उन्हें वैसे भी शक्ति के सभी केंद्रों से बाहर कर दिया गया है। वे केवल स्वाध्याय और बची-खुची परंपरागत संस्थाओं से अपनी विद्या परंपरा को बचाने का प्रयत्न कर रहे हैं। फिर भी यह देखकर आश्चर्य होता है कि हमारा बौद्धिक वर्ग यूरोपीय प्रभाव से निकल क्यों नहीं पा रहा। पर संभवतः इतिहास में ऐसा होता रहा है। समाज की अपनी बुद्धि कुछ काल खण्ड के लिए निस्तेज हो जाती है।

यूरोप को समझने में सबसे बड़ी बाधा उसकी शिक्षा है। अपने शिक्षा तंत्र के माध्यम से उसने अपनी पिछली छह शताब्दियों का एक बड़ा मोहक वृतांत गढ़ लिया है। इस वृतांत के अनुसार 1453 में जब तुर्कों ने उस समय उनकी सभ्यता के केंद्र कांस्टेंटिनोपल को जीत लिया तो वहां से यूनानी ज्ञान-विज्ञान के अध्येता इटली आ गए। उन्होंने यूरोप के बौद्धिक जगत को फिर प्राचीन दर्शन और समाज को समझने और आत्मसात करने की ओर मोड़ा। चैदहवीं शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी के इस काल को पुर्नजागरण काल कहा जाता है और अब तक हमारे सभी शिक्षा संस्थानों में इसका बड़ा गुणगान किया जाता था। इसी काल में यूरोप की नई तार्किक-वैज्ञानिक दृष्टि विकसित हुई। 1440 में जर्मनी के एक सुनार गुटेनबर्ग ने नई तरह के छापेखाने का विकास किया था। इससे पुर्नजागरण काल के विचारों को फैलाने में आसानी हुई। 1517 में जर्मनी के मार्टिन लूथर ने द नाइंटीन फाइव थीसिस नामक ग्रंथ लिखकर चर्च के वर्चस्व को चुनौती दी थी। उसने रिफाॅर्मेशन (सुधार काल) आरंभ करते हुए यूरोपीय चेतना में बड़ी हलचल पैदा कर दी थी।

अगला दौर अठारहवीं शताब्दी में आरंभ हुआ, जिसे यूरोपीय इतिहासकार एनलाइटेनमेंट का काल कहकर पुकारते हैं। इस काल में ऐसे राजनैतिक और वैज्ञानिक विचार पैदा हुए जिन्होंने यूरोपीय जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन कर दिया। इस क्रांतिकारी परिवर्तन का आरंभ अमेरिकी क्रांति से हुआ, उसने फ्रांसीसी क्रांति को जन्म दिया। ब्रिटेन में राजा और अभिजात वर्ग के परस्पर संघर्ष में डेमोक्रेसी का जन्म हुआ। इसी काल में पूंजीवादी और माक्र्सवादी विचार पैदा हुए। उन्नीसवीं शताब्दी में ब्रिटेन औद्यौगिक क्रांति करने में सफल रहा। बीसवीं शताब्दी में अमेरिका की वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकीय उपलब्धियों से आज की यूरोपीय सभ्यता खड़ी हो गई। इस तरह चैदहवीं शताब्दी से आरंभ हुआ यह ज्ञानात्मक विकास है, जो यूरोप को एक नए युग में ले गया है। यूरोपीय इतिहास का यह वृतांत पिछली एक शताब्दी में गढ़ा गया है। वह इतना एकांगी और अतिरंजित है कि वह इस दौर में बरती गई यूरोप की सारी बर्बरता पर पर्दा डाल देता है और हमें यह देखने नहीं देता कि अपनी जिन उपलब्धियों को वे सभ्यता का उत्कर्ष बता रहे हैं, वे वास्तव में सभ्यता का अपकर्ष हैं।

3 thoughts on “यूरोपीय शक्ति का रहस्य

  1. Never read a bigger garbage then this. We deny and refuse to accept the facts and continue to live in a dreamworld. Stop praising Gandhi he was a tool in the hands of British in South Africa and continued to serve their interest in India. Please list achievements of this biggest hypocrite and hindu hater of India. First explain why we remained slaves for 1200 years and still the country is in grip of anarchy. No civilized nation can accept thugs like kejriwal and Mamta. Last 500 years history is history of Europe and explosion of knowledge which has benefitted humanity. We are an indisciplined nation hence cannot control corona. Unless you stop living in a dreamworld we will continue to be a country of clowns.

    1. इसमें कौन से तथ्य गलत हैं, गांधी से आपकी नफरत हो सकती है, यह आपका नजरिया हो सकता है, गांधी खुद अपने आपको सनातनी हिन्दू कहते थे

  2. You do not publish comments that you do not like. My comment on this article full of misinformation got deleted. Hypocrites.

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