फिर खोजें पूरे गांधी को

रामबहादुर राय

महात्मा गांधी को समझने-समझाने के चौथे चरण की शुरूआत 2014 से हो चुकी है। 1948 से 2013 तक तीन चरण पूरे हुए हैं। पहले चरण में गांधी को देश-समाज ने उनके सहयोगियों की परस्पर विरोधी व्याख्या से जाना-समझा। दूसरे चरण में उनके उत्तराधिकार और सरोकार पर बहस चली। तीसरे चरण में गांधी एक संदर्भ हो गए।

यह चरण पहले से बिल्कुल अलग है। गांधी विचार है। अब बहस गांधी विचार की समझ और उस पर आचरण को लेकर है। गांधी की निरंतरता तो बनी हुई है। इस चरण में गांधी की सही समझ कैसे बने और कौन इसकी पहल करे, यही सवाल यहां उठाया गया है।

‘अब बापू के बाद उनके कार्यक्रम और विचारों के बारे में मेरा मार्गदर्शन कौन कर सकता है? देवदास गांधी ने यह पूछा था।

वह 11 मार्च, 1948 की तारीख थी। सेवाग्राम में रचनात्मक कार्यकर्ता सम्मेलन के पहले ही दिन की बात है। देवदास गांधी ने जो सवाल तब उठाया था, वह आज भी अनुत्तरित है। देवदास गांधी आधुनिक समय के नचिकेता रूप माने जाएंगे।

‘मेरे सामने यह सवाल है कि अब बापू के बाद उनके कार्यक्रम और विचारों के बारे में मेरा मार्गदर्शन कौन कर सकता है? मैं जानना चाहता हूं। उत्तर की जरूरत मेरे जैसे लाखों आदमियों को मालूम होती है।’ देवदास गांधी ने यह तब पूछा था। तारीख थी 11 मार्च, 1948। सेवाग्राम में रचनात्मक कार्यकर्ता सम्मेलन के पहले ही दिन की बात है। जो सवाल उन्होंने तब उठाया था, वह आज भी अनुत्तरित है। देवदास गांधी आधुनिक समय के नचिकेता रूप माने जाएंगे।

उस सम्मेलन की एक कहानी है। महात्मा गांधी ने सोचा था और तय किया था कि दो फरवरी को रचनात्मक कार्यकर्ताओं का एक सम्मेलन सेवाग्राम में बुलाएंगे। स्वराज्य कायम करने के लिए। उसकी तैयारियां हो चुकी थीं। गांधीजी के जाने के छह हफ्ते बाद बदले संदर्भ में वह सम्मेलन हुआ। उसमें 46 व्यक्ति आए। सरदार पटेल अस्वस्थ रहने के कारण नहीं आ सके। लेकिन देवदास गांधी के जरिए एक सलाह भिजवाई कि ‘बापू के खास अनुयायियों और सरकार में कोई चौड़ी खाई नहीं पड़नी चाहिए।’

विनोबा के सहपाठी रघुनाथ श्रीहरि धोत्रे सम्मेलन के संयोजक थे। सम्मेलन पांच दिनों का था। जवाहरलाल नेहरू ने उद्घाटन किया और डॉ. राजेन्द्र प्रसाद अध्यक्ष थे। सम्मेलन का विचारणीय विषय था-बापू नहीं रहे, अब रहनुमाई कौन करेगा? जो उस समय चर्चा हुई, वह अब एक पुस्तक के रूप में आ गई है। गोपाल गांधी ने उसका संपादन किया है। यह पुस्तक 2007 में छपकर आई। अपने संपादकीय में गोपाल गांधी ने बताया है कि गांधी सेवक संघ के पास टाइप किया हुआ वह रिकार्ड था। उसे उन्हें 2006 में आत्माराम सरावगी ने यह कहते हुए सौंपा कि ‘यह दस्तावेज दिलचस्प है और हमारी पीढ़ी के लिए निहायत जरूरी।’ उसे थोड़ा काट-छांट कर गोपाल गांधी ने पुस्तक का रूप दिया।

पहले ही दिन विनोबा ने सवाल उठाया- ‘हमको यह सोचना है कि आज हमारी श्रद्धा कितनी गहरी है।’ इसे उन्होंने थोड़ा और समझाया- जनता और सरकार अहिंसा के लिए अनुकूल नहीं होती, ऐसी स्थिति में हमारी श्रद्धा क्या कहती है? विनोबा के इस सवाल से समझा जा सकता है कि गांधी को उन्होंने किस रूप में देखा और दिखाना चाहा।

लेकिन गांधी के दूसरे साथियों की दृष्टि भिन्न थी। जे.सी. कुमारप्पा ने सरकारी हिंसा का सवाल उठाया। श्रीमन्नारायण ने सुझाया कि ‘बापू जी ने जिस शांति सेना का संकेत दिया था, उस संगठन की रूपरेखा और योजना हम यहां बनाएं।’ प्रफुल्लचंद घोष ने कहा कि ‘आज बापू की जगह लेने वाला कोई एक आदमी हमारे पास नहीं है। इसलिए संगठन की जरूरत है। वहीं डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने कहा कि अगर हम ऐसा निश्चय करते हैं तो उसके रूप के बारे में विचार करना होगा।

कई दिनों की बातचीत में से दो संस्थाएं निकली। सर्वसेवा संघ और सर्वोदय समाज। वहीं यह भी साफ हुआ कि गांधीजन विनोबा में अपने पथ प्रदर्शक की छवि देखते हैं। इसे शंकर देव ने इस तरह रखा- ‘विनोबा ने हमारी जो मदद की है, वह अमूल्य है। उन्होंने हमारे पथ प्रदर्शक बनने की उदारता दिखाई है।’ वहां लोगों ने अपने विचार खुलकर रखे। जिसे पढ़ने पर दो बातें साफ तौर पर उभरती है।

गांधी के जाने के बाद गहरी निराशा थी और अगली दिशा के बारे में बहुत ही भ्रम था। मौलाना अबुल कलाम आजाद का यह कहना एक चेतावनी जैसी थी कि ’30 जनवरी से यह चीज बार-बार मेरे सामने आ रही है कि जिन कामों में बापू ने हाथ डाला था, उनकी असली जान बापू की हस्ती थी। अब वह नहीं रहे। हमें कोई ऐसा तरीका ईजाद करना है, जिसमें बापू की जिंदगी की जो दौलत है, वह बर्बाद न हो। अब बापू के जैसी हस्ती हमें नहीं मिलेगी।’

सम्मेलन के तीसरे दिन जवाहरलाल नेहरू आए। उनके पहुंचने के पहले सुरक्षा का तगड़ा इंतजाम हो गया था। वे सुबह करीब नौ बजे आए। उससे पहले आचार्य जे.बी. कृपलानी ने अपना विरोध दर्ज कराया और कहा कि ‘यहां पर वर्दी पहने हुए संगीन वाले पुलिस के लोग तैनात हैं। चारों तरफ कंटीले तार लगे हुए हैं। हम अहिंसक कहलाते हैं। हमें इन चीजों की क्या जरूरत है? और अगर किसी के लिए इस तरह के इंतजाम की जरूरत ही हो, तो उसे तमीज के साथ करना चाहिए। यह तरीका बिल्कुल भद्दा है। यह बापूजी का आश्रम था। यहां की एक परंपरा है- मर्यादा है। यहां जो इंतजाम किया गया है, उसमें कोई डीसेन्सी नहीं। कोई शऊर नहीं।’ प्रधानमंत्री अगर आज सेवाग्राम पहुंच जाएं तो कृपलानी जैसे लोगों पर क्या गुजरेगी?

जवाहरलाल नेहरू के आने के बाद संयोजक धोत्रे ने स्वागत कर कहा कि ‘जो रचनात्मक संस्थाएं काम कर रही हैं, उनकी जानकारी और कठिनाइयां थोड़े समय में पंडित जी के सामने रख दी जाएंगी।’ इस कथन से कांग्रेस की सरकार के साथ गांधी धारा से जुड़ी रचनात्मक संस्थाओं के संबंध की वहां नींव पड़ी। अनुभव यह बताता है कि उससे रचनात्मक संस्थाओं की सरकार पर निर्भरता का दौर शुरू हुआ। समाज की शक्ति का उसी से क्षरण भी प्रारंभ हुआ।

गांधी जी

उस दिन पंडित नेहरू को संबोधित कर श्रीकृष्णदास जाजू ने चरखा संघ की समस्याएं रखीं। काका कालेलकर ने हिंदुस्तानी प्रचार सभा की ओर से हिंदुस्तानी भाषा अपनाने के तर्क सिलसिलेवार पेश किए। वे आजीवन उस विचार पर कायम भी रहे। जाकिर हुसैन ने हिंदुस्तानी तालिमी संघ के बारे में बताया। ठक्कर बापा ने हरिजन सेवक संघ के प्रश्न उठाए। झबेर भाई पटेल ने ग्रामोद्योग संघ की समाज व्यवस्था का एक नक्शा सामने रखा। उन्होंने कहा कि ‘बुनियादी सवाल यह है कि हम अपनी सारी अर्थनीति का मूलाधार क्या रखना चाहते हैं।’ डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने नेहरू को सम्मेलन का सार सुनाया। यानी जवाहरलाल नेहरू ही वहां गांधीजी की जगह पर केंद्र में माने गए।

प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने साफगोई से बात की। अपने विचार छिपाए नहीं। किसी को खुश करने के लिए नहीं बोले। साफ कहा कि जो सवाल उठाए गए हैं, वे बुनियादी नहीं हैं। इस तरह रचनात्मक समूह की बातों को उन्होंने एक ही झटके में लगभग खारिज कर दिया। अगर वह राजनीतिक जमात का जमावड़ा होता तो बड़ा मतभेद उभर जाता। वह टूटन का कारण भी बनता। वैसा नहीं हुआ। गांधीजन ने उन्हें सुना, पूरी इज्जत देकर। गांधी कुटम्ब का जो सवाल था। नेहरू ने सलाह दी कि ‘इन सवालों को फिर से नई फिजा की रोशनी में सोचना होगा।’

 
 

 

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