यहां अली और बजरंग बली

 

बनवारी

सभी दल मुसलमानों का इस्तेमाल करते हैं। यह लड़ाई हिन्दू और मुसलमानों के बीच की नहीं है। हिन्दुओं के बीच की ही दो विचारधाराओं की लड़ाई है। अपने आपको सेक्यूलर मानने वाले लोग अनजाने में ब्रिटिश नीति का अंधानुकरण कर रहे हैं।

त्तर प्रदेश में हुए सपा, बसपा और राष्ट्रीय लोकदल के गठबंधन का चुनावी अभियान वहाबी इस्लाम की शिक्षा देने वाले देवबंद से शुरू हुआ और उसमें बसपा की नेता मायावती ने मुसलमानों से कहा कि वे कांग्रेस के बहकावे में न आएं। अपना वोट केवल गठबंधन के उम्मीदवार को दें, वर्ना उनके वोट बंटेंगे और फायदा भाजपा को होगा। मायावती का उत्तर प्रदेश के मुसलमानों से यह आग्रह अकारण नहीं था। 2014 के चुनाव में सपा, बसपा और कांग्रेस में मुस्लिम वोटों का बंटवारा हो गया था। बसपा को तो उस चुनाव में एक भी सीट नहीं मिली थी। सपा और कांग्रेस अपने केवल सात उम्मीदवार जिता पाए थे। उनमें से कोई मुसलमान नहीं था। मुरादाबाद, रामपुर, संभल, अमरोहा, सहारनपुर और मेरठ में सपा, बसपा और कांग्रेस सभी ने मुस्लिम उम्मीदवार खड़े किए थे।

मुस्लिम वोटों में विभाजन के कारण सभी जगह भाजपा जीत गई थी। मुस्लिम वोटों के इस विभाजन को रोकने के लिए ही अपनी पुरानी दुश्मनी भुलाकर मायावती अखिलेश यादव के साथ साझा मोर्चा बनाने के लिए तैयार हो गईं और फिर अजित सिंह को तीन सीट देकर उन्हें भी साथ मिला लिया। कांग्रेस को साथ नहीं लिया जा सका क्योंकि एक तो मायावती को आशंका रहती है कि कांग्रेस की ताकत बढ़ी, तो बसपा के पीछे लामबंद अनुसूचित जातियां कांग्रेस की तरफ खिसक जाएंगी। दूसरे गठबंधन में शामिल होने के कारण कांग्रेस अधिक सीट मांगती और सपा-बसपा को कम सीटों पर चुनाव लड़ना पड़ता। अब मुश्किल यह है कि मुसलमानों की पर्याप्त संख्या वाले अनेक संसदीय क्षेत्रों में कांग्रेस ने भी ताकतवर मुस्लिम उम्मीदवार खड़े किए हैं। मायावती को आशंका हो रही है कि वे एक बार फिर उनका खेल न बिगाड़ दे।

पिछले आम चुनाव के बाद से देश के वामपंथी विश्लेषकों का एक वर्ग यह कहने के लिए काफी कागद कारे कर रहा है कि 2014 में भाजपा के उभार के कारण देश की संसद में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व बहुत सिमट गया था।

विपक्ष में मुस्लिम वोटों को लेकर एक और घमासान छिड़ा हुआ है। दरअसल विपक्षी दलों में यह धारणा फैली हुई है कि मुसलमान मतदाता जिस तरफ रहेंगे उसी को चुनाव में फायदा होगा। विपक्ष में ऐसे कई नेता हैं, जिनकी राजनीति मुस्लिम वोटों को केंद्र में रखकर होती है। इसमें सबसे ऊपर तो ममता बनर्जी का नाम है। पश्चिम बंगाल देश के उन राज्यों में हैं, जहां मुस्लिम मतदाताओं की काफी संख्या है। देश में मुस्लिम आबादी 14 प्रतिशत है, जबकि पश्चिम बंगाल की जनसंख्या में मुसलमानों का प्रतिशत 27 से अधिक है। उनका समर्थन जुटाने की होड़ पहले मार्क्सवादी दलों और कांग्रेस के बीच थी। तृणमूल के अस्तित्व में आने के बाद यह होड़ तीन दलों के बीच हो गई। एक समय अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए ममता बनर्जी ने राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा का भी हाथ थामा था। 2014 के आम चुनाव में सबसे अधिक मुस्लिम सांसद पश्चिम बंगाल से ही बने थे। देशभर से जीते कुल 22 मुस्लिम सांसदों में से आठ पश्चिम बंगाल से थे।

ममता बनर्जी की आंख मूंदकर की गई मुस्लिम पक्षधरता की प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक ही थी। पश्चिम बंगाल की जनता में हुई इस प्रतिक्रिया से भाजपा को बल मिला। आज कांग्रेस का ही नहीं, माकपा का जनाधार भी खिसककर भाजपा की तरफ आ रहा है। त्रिपुरा में जो हुआ, उसकी कुछ पुनरावृत्ति इस चुनाव में पश्चिम बंगाल में हो सकती है। पिछले आम चुनाव में यहां भाजपा को केवल दो सीटें मिली थीं। इस बार वह उससे कई गुना अधिक सीट जीतेगी। देश में ममता, मुलायम, लालू प्रसाद, चंद्रबाबू नायडू आदि अनेक ऐसे नेता हैं, जिनकी राजनीति के केंद्र में मुस्लिम मतदाता रहे हैं। इन चुनावों में मुस्लिम वोटों को आकर्षित करने के लिए चंद्रबाबू नायडू ने अपनी सरकार में किसी मुस्लिम को उप मुख्यमंत्री बनाने से लेकर इस्लामी बैंक खोलने तक अनेक वायदे किए हैं। हालांकि आंध्र में राजनीतिक हवा जगन रेड्डी के पक्ष में बह रही है। जगन परिवार ईसाई है, इसके बावजूद आंध्र के मुसलमानों का झुकाव उनकी तरफ दिखाई दे रहा है। इस चुनाव में पूरे विपक्ष ने मुसलमानों के भीतर यह डर खड़ा करने की कोशिश की है कि अगर भाजपा फिर सत्ता में आई, तो वे देश की राजनीति में हाशिये पर चले जाएंगे। पिछले आम चुनाव के बाद से देश के वामपंथी विश्लेषकों का एक वर्ग यह कहने के लिए काफी कागद कारे कर रहा है कि 2014 में भाजपा के उभार के कारण देश की संसद में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व बहुत सिमट गया था।

उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात जैसे बड़े राज्यों से एक भी मुस्लिम उम्मीदवार नहीं जीता था। देश के केवल सात राज्यों और एक केंद्रशासित प्रदेश से ही मुस्लिम उम्मीदवारों को विजय मिली थी। पश्चिम बंगाल के अलावा जम्मू- कश्मीर और बिहार से चार-चार, केरल से तीन, असम से दो, आंध्र और तमिलनाडु से एक-एक और लक्षद्वीप से एक मुस्लिम उम्मीदवार जीता था। देश के 22 राज्यों और छह केंद्र शासित क्षेत्रों से कोई मुस्लिम उम्मीदवार नहीं जीता था। उत्तर प्रदेश में ही सपा और बसपा ने कुल मिलाकर 30 मुसलमानों को टिकट दिए थे, लेकिन उनमें से कोई मोदी लहर के चलते नहीं जीत पाया। इन सब तथ्यों के आधार पर पिछले पांच वर्ष कुछ ऐसा माहौल बनाया गया कि भाजपा फिर से जीती तो देश की राजनीति में मुसलमानों के लिए कोई जगह नहीं रहेगी। यह सही है कि भाजपा ने हिन्दू समाज को राजनीतिक रूप से संगठित करने की कोशिश की है। उसने कुछ मुसलमानों को नाम के लिए टिकट दिए भी। 2009 में चार मुसलमानों को टिकट दिया गया, जिनमें से एक जीता। 2014 में भाजपा के सात उम्मीदवार मुस्लिम थे, लेकिन कोई जीत नहीं पाया। भाजपा का उभार अधिकांशत: कांग्रेस और अन्य दलों की मुस्लिम सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने की नीति के कारण हुआ है। उनकी इस नीति पर कोई उंगली नहीं उठाई जाती।

क्या कोई देश अपने बहुसंख्यक समुदाय के हितों और मान्यताओं की उपेक्षा सहन कर सकता है? यह एक तथ्य है कि अब तक के आम चुनावों में मुसलमानों को जनसंख्या के अनुपात में लोकसभा में प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं हुआ। केवल 2014 के आम चुनाव का उल्लेख करके यह तथ्य समझ में नहीं आएगा। पहले तीन आम चुनावों में कांग्रेस भारी बहुमत से जीती थी। उस समय देश में कांग्रेस का एकछत्र राज्य था। लेकिन देश में दस प्रतिशत से अधिक मुस्लिम आबादी होते हुए भी संसद में मुसलमानों की संख्या पांच प्रतिशत से कम रही। 1952 से पहले आम चुनाव  में केवल 21 मुस्लिम उम्मीदवार जीते थे।

अगले दो आम चुनावों में 24 और 23 उम्मीदवार जीते। 1967 और 71 में 29 और 30 मुस्लिम सांसद बने। 1977 में उप चुनावों को मिलाकर 34 मुस्लिम सांसद बने। यही चुनाव था, जिसमें उत्तर भारत से कांग्रेस का सफाया हो गया था और उसका कारण आपात स्थिति के प्रति लोगों का गुस्सा तो था ही, मुसलमानों में नसबंदी को लेकर पैदा हुई यह भावना थी कि इंदिरा गांधी के पुत्र संजय गांधी ने विद्वेषपूर्वक मुसलमानों की नसबंदी करवाई है। उसके बाद से देश के बहुत से राज्यों में मुसलमानों ने कांग्रेस से किनारा कर लिया। 1980 और 1984 के चुनावों में कांग्रेस को फिर भारी बहुमत मिला। उसने मुसलमानों को अपने पास लौटाने के लिए काफी मुसलमानों को टिकट दिए। इस तरह सातवीं और आठवीं संसद में उपचुनाव मिलाकर 49 और 46 मुस्लिम सांसद थे। ये कुल सांसदों का सवा नौ और साढ़े प्रतिशत बैठते थे। यह अनुपात भी देश की जनसंख्या में उनके अनुपात से कम था। लेकिन उसके बाद देश की जनसंख्या में तो उनका अनुपात बढ़ता रहा है। पर संसद में उनका प्रतिनिधित्व घटता रहा है। केवल 1989 और 2004 में उनकी संख्या 30 से कुछ ऊपर गई। वर्ना संसद में उनका अनुपात 4 से 6 प्रतिशत के बीच झूलता रहा। देश में केवल 15 संसदीय क्षेत्र ऐसे हैं, जहां मुसलमानों की भारी बहुसंख्या निवास करती है। बारामूला, श्रीनगर, अनंतनाग, किशनगंज, मुर्शिदाबाद, मालदा दक्षिण, ढुबरी, बारापेटा, जंगीपुर, करीमगंज, हैदराबाद, बहरामपुर, मल्लपुरम, पोन्नई और लक्षद्वीप में मुस्लिम आबादी बहुसंख्या में है। इसके अलावा 13 और संसदीय क्षेत्र ऐसे हैं, जहां उनकी आबादी 40 प्रतिशत से अधिक है। पचास सीटों पर उनकी मत संख्या एक तिहाई से ज्यादा है और कुल सौ सीटों पर उनका प्रतिशत 20 से अधिक है। लेकिन सभी दल यह जानते हैं कि अगर मुसलमानों में ध्रुवीकरण करवाया गया, तो उसकी प्रतिक्रिया हिन्दुओं में होगी।

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने मायावती द्वारा किए गए मुसलमानों के आह्वान के जवाब में इसीलिए कहा कि उनके पास अली हैं, तो हमारे पास बजरंगबली हैं। यह भी सभी दलों को मालूम है कि मुसलमानों में नेतृत्व का अभाव है और जीतने लायक उम्मीदवार आसानी से नहीं मिलते। आरंभ के पांच संसदीय चुनावों में कांग्रेस का बोलबाला था। पर संसद में मुस्लिम प्रतिनिधित्व निराशाजनक ही था। कांग्रेस मुसलमानों को बड़ी संख्या में टिकट देती तो वे जीतते, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। वास्तविकता यह है कि सभी दल मुसलमानों का इस्तेमाल करते हैं। यह लड़ाई हिन्दू और मुसलमानों के बीच की नहीं है। हिन्दुओं के बीच की ही दो विचारधाराओं की लड़ाई है।

अपने आपको सेक्यूलर मानने वाले लोग अनजाने में ब्रिटिश नीति का अंधानुकरण कर रहे हैं। भारत पर ब्रिटिश शासन के दौरान अंग्रेजों ने मुसलमानों को कुछ खास नहीं दिया, लेकिन उन्हें उकसाकर हिन्दुओं से लड़ाए रखा। उनकी पीठ पर हाथ रखकर धर्मांतरण को बढ़ावा दिया। मुस्लिम शासन में देश में मुसलमानों का अनुपात मुश्किल से 10 प्रतिशत तक पहुंचा था। अंग्रेजों के नब्बे वर्ष के शासन में वह 10 से 25 प्रतिशत हो गया। स्वतंत्र भारत के सेक्यूलर शासन में अब तक वह ड्योढ़ा हो चुका है। उनकी आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक स्थिति भले न सुधर रही हो, जनसंख्या बढ़ती जा रही है। इसके साथ ही साथ हिन्दू और मुसलमानों के बीच की खाई चौड़ी होती जा रही है।

 

 

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